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Showing posts from April, 2019

भारत के बुद्धिजीवी यह अपील करने पर क्यों मजबूर हुए?

                                                 (Image Courtesy : AsiaNews) यह सामान्य परिघटना नहीं है कि पिछले हफ्ते भर के भीतर करीब 600 रंगकर्मियों , 100 से अधिक फिल्मकारों , 200 से अधिक लेखकों , 100 से अधिक विजुअल कलाकारों तथा 150 से अधिक वैज्ञानिकों ने अलग-अलग दिनों पर लगातार बयान जारी करके बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को वोट न देने की सार्वजनिक अपील की. यह भारत के बुद्धिजीवियों का एक संख्या-योग मात्र भी नहीं है , बल्कि इसे देश के शीर्ष और आला दिमागों का एक व्यापक प्रतिनिधित्व माना जाना चाहिए . अपील करने वाले ये रोशनखयाल लोग किसी एक संस्थान , एक क्षेत्र , एक भाषा , धर्म-जाति या राजनीतिक दल विशेष से ताल्लुक नहीं रखते और इनसे लाखों बुद्धिजीवियों की मौन सहमति भी है. आखिर क्या वजह है कि अमोल पालेकर , अनुराग कश्यप , एमके रैना , कोंकणा सेन शर्मा , रत्ना पाठक शाह और संजना कपूर जैसे अभिनेता-निर्देशक-फिल्मकार , गिरिश कर्नाड , अरुंधती रॉय , अमिताव घोष , नयन...

राजपथ को जनपथ से जोड़ती हैं ‘कभी फकीर! कभी चौकीदार’ की रचनाएं

आलोक वर्मा व्यंग्य एक माध्यम है जिसके द्वारा लेखक समाज और जीवन की विसंगतियों, खोखलेपन और पाखंड को दुनिया के सामने उजागर करता है। जिनसे हम सब परिचित तो होते हैं किंतु उन स्थितियों को दूर करने, बदलने की कोशिश नहीं करते बल्कि बहुधा उन्हीं विद्रूपताओं-विसंगतियों के बीच जीने की, उनसे समझौता करने की आदत बना लेते हैं। व्यंग्यकार अपनी रचनाओं में ऐसे पात्रों और स्थितियों की योजना करता है जो इन अवांछित स्थितियों के प्रति पाठकों को सचेत करते हैं। महेश राजपूत का आलोच्य व्यंग्य संग्रह ‘कभी फकीर! कभी चौकीदार!’ एक डिजिटल पुस्तक है। इसको पढ़ते हुए मुझे हिंदी के दो शीर्ष व्यंगकारों हरिशंकर परसाई और शरद जोशी याद आए। परसाई जी ने सदाचार की ताबीज की भूमिका कैफियत में लिखा है- अपनी कैफियत दूं, तो हंसना-हंसाना, विनोद करना अच्छी बातें होते हुए भी, मैंने मनोरंजन के लिए कभी नहीं लिखा। मेरी रचनाएं पढ़ कर हंसी आना स्वाभाविक है। यह मेरा यथेष्ट नहीं। और चीजों की तरह मैं व्यंग्य को उपहास, मखौल न मान कर एक गंभीर चीज मानता हूं। साहित्य के मूल्य, जीवन मूल्यों से बनते हैं। वे रचनाकार के एकदम अंतस से पैदा न...