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Showing posts from May, 2018

तुमको हमारी नज़र लग जाए!

नज़र लगने का 'कांसेप्ट' कभी मेरी समझ में नहीं आया! ऑफिस में पढ़े-लिखे सहयोगी भी अक्सर छींक आने से लेकर बुखार हो जाने पर कह देते हैं, "लगता है किसीकी नज़र लग गयी!" पर यह नज़र लगना होता क्या है? असल में इसकी जड़ में 'हैव्स" की 'हैव्स नॉट' के प्रति हीन भावना, असुरक्षा की भावना है। दरअसल आपके पास जो भी होता है, जो अपनी समझ के अनुसार आपने चाहे अपनी काबिलियत के बल पर हासिल किया हो या ऐसे ही मिल गया हो, आपको लगता है कि वह लोग जिनके पास वह नहीं है, आपसे जलते हैं। मन ही मन वह चाहते हैं कि आपसे यह छिन जाए। हालाँकि यह भी सच है कि किसीके चाहने भर से किसीका कुछ होता-जाता नहीं है। बद्दुआ एक कमज़ोर व्यक्ति का लड़ाई हार जाने पर आखिरी हथियार है। वह यही सोचकर सब्र कर लेता है, "मुझ पर अन्याय करने वाले का मैं कुछ नहीं बिगाड़ सका तो क्या, भगवान्/खुदा/गॉड या कहें कुदरत उसे सबक सिखाएगी।" ऐसा कुछ नहीं होता। पर फिर भी आश्चर्यजनक रूप से अगर लोग "गरीब की हाय" या "किसीकी बद्दुआ" से डरते हैं तो इसके पीछे उनका अपराध बोध होता है कि उन्होंने सामने वाले के सा

(55) घंटे का सीएम!

सचमुच हमारे देश का कुछ नहीं हो सकता! बताइए न ऐसे देश का हो भी क्या सकता है जहाँ विपक्षी इतने बदमाश हों कि युगों-युगों तक सीएम बने रहने के काबिल एक शख्स को 55 घंटे का सीएम बना दिया जाए! इतनी बड़ी साज़िश! इतनी गहरी साज़िश! दो पार्टियों (कांग्रेस और जनता दल सिक्युलर) ने पहले तो यह इम्प्रैशन दिया कि वह एक दूसरे के खिलाफ लड़ रही हैं। फिर जनता को कन्फ्यूज़ कर ऐसे परिणाम लाये कि देश और सभी राज्यों में शासन करने लायक एकमात्र स्वाभाविक पार्टी यानी बीजेपी को 'सिंगल लार्जेस्ट पार्टी' तो बनवा दिया पर बहुमत के आंकड़े से दूर रखा। फिर नतीजे आते ही आनन-फानन अनैतिक गठजोड़ कर सरकार बनाने का दावा ठोंक दिया ताकि बीजेपी को लगे कि हाय, देर करने से गाड़ी छूट न जाए और वह भी बिना सोचे-समझे दावा ठोंक दे! फिर राज्यपाल को मजबूर कर दिया कि वह येदुरप्पाजी को सरकार बनाने का न्योता दे! आप पूछेंगे मजबूर कैसे? अरे भाई सोशल मीडिया में इतना हल्ला मचा दिया कि कभी पीएम (तब गुजरात के सीएम) थे के लिए सीट छोड़ने वाले वाजूभाई वाला तो बीजेपी के प्रत्याशी को ही बुलाएँगे कि उनकी जगह बैठा कोई भी व्यक्ति सोचता कि विपक्षी उनकी बा

काश! स्टूडियो का फ्लोर फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं! (एक भक्त की डायरी से)

वैसे तो मैं भी चोरी करना पाप मानता हूँ पर चूंकि यह जानने की उत्सुकता हमेशा मन में रही है कि एक भक्त के दिमाग में क्या चलता है, इसलिए मौका मिला तो मैं खुद को रोक नहीं पाया और एक भक्त (जो एक टीवी   न्यूज़ चैनल में काम करता है) की डायरी चुरा ली। यहाँ पेश है उसकी अप्रैल महीने में की गयी कुछ एंट्रीज़, विशेष 'बैठे-ठाले' के पाठकों के लिए: 01 अप्रैल आज एक अजीब किस्सा हो गया। मैंने जब ऑफिस में प्रवेश किया तो मेरे कुछ साथी जो किसी बात पर 'हो-हो' कर हंस रहे थे, मुझे देखते ही चुप हो गए। मैं समझ गया वह मेरे बारे में ही कुछ बात कर रहे होंगे और हंस रहे होंगे। फिर याद आया कि आज अप्रैल फूल डे है और मेरे ऑफिस में कुछ कुलीग ऐसे 'देश-द्रोही' हैं जिनकी राय में 'भक्त' और 'मूर्ख' में कोई अंतर नहीं है इसलिए मेरे पीछे मुझ पर हंस रहे होंगे। शिट! मैं भी क्या-क्या सोच लेता हूँ। कभी मुझे किसी ने भक्त कहा तो नहीं है और न ही मैं उनके सामने पीएम की तारीफ़ करता हूँ, फिर भला वह क्यों मुझे भक्त मानेंगे? मैंने बड़ी मुश्किल से नकारात्मक विचार अपने मन से निकाले और अपने डेस्क