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Showing posts from 2020

ये नयन डरे-डरे...

    हिचकॉक की फिल्म 'रिबेका' की नक़ल कर बनी 'कोहरा' का मनुहार गीत है, 'ये नयन डरे-डरे'। अपमानित व उपेक्षित महसूस कर रही पत्नी को पति मनाने की कोशिश कर रहा है और इस एक गीत में राजश्री उर्फ राज (वहीद रहमान), जो अमित (बिस्वजीत) की दूसरी पत्नी है, अमित की पहली पत्नी पूनम की मौत के बावजूद उसकी वैवाहिक जीवन में ग्रहण जैसी उपस्थिति से आक्रांत है, अमित की प्रेमिका बनती है और फिर मांग में सिंदूर भरवा कर पत्नी का हक पाती है। मुखड़ा है : ये नयन डरे-डरे ये जाम भरे-भरे ज़रा पीने दो कल की किसको खबर इक रात होके निडर मुझे जीने दो फिल्मांकन यों है कि राज कमरे से निकल बाहर आई है, अमित पीछे आता है। गाना शुरू करता है। उसकी आंख से आंसू पोंछता है। अंतरा शुरू होने से पहले आईने में खुद को देखना अपनी अलहदा खूबसूरती के प्रति उसे आश्वस्त करता है। वह पारंपरिक तौर पर गोरी-चिट्टी खूबसूरत नहीं है जैसे पूनम के बारे में वह सुनती रही है। एक हल्की मुस्कुराहट पहली बार राज के चेहरे पर अंतरे में आती है जब वह कहता है रात हसीं, ये चांद हसीं, तू सबसे हसीं मेरे दिलबर और फिर राज की झुकी पलकें उठती हैं,

वोट दो, वैक्सीन लो!

-तो कोरोना वैक्सीन बिहार के सभी लोगों को मुफ्त में लगाएंगे?  -पार्टी का बिहार चुनाव के लिए घोषणापत्र तो यही कहता है।  -बाकी देशवासियों को नहीं लगाएंगे?  -हमने तो ऐसा नहीं कहा।  -मुफ्त में नहीं लगाएंगे?  -हमने ऐसा भी नहीं कहा।  -अच्छा, सबसे पहले बिहारवासियों को लगाएंगे?  -आप बड़े बदमाश हैं। बिहार बनाम भारत का मुद्दा बना रहे हैं। हम कोरोना जैसे संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति नहीं करते।  -गुस्सा न करिये। बिहार में टीका लगाने का क्रम क्या होगा?  -ये कैसा सवाल है?  -सबसे पहले उन्हें लगेगा जिन्होंने बीजेपी को वोट दिया?  -यह शरारतपूर्ण सवाल है। “हैव यू स्टॉप्ड बीटिंग युअर वाईफ?“ टाइप। मैं इसका जवाब नहीं देने वाला। -फिर जेडीयू के वोटर। उसके बाद एलजेपी के?  -व्हाट नॉनसेंस? सरकार सभी के लिए होती है, सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के वोटरों के लिए नहीं। जैसे हमारे पीएम सभी १२५ करोड़ देशवासियों के पीएम हैं, केवल ६०० करोड़ मतदाताओं के नहीं।  -बिलकुल। इसीलिए मैं पूछना चाहता था कि उन बिहार वासियों का क्या होगा जो आपको वोट नहीं देंगे? जो आपके सहयोगी दल को वोट नहीं देंगे? या जो वोट देंगे ही नहीं? -स

“हम पब्लिक ओपीनियन के खिलाफ नहीं जा सकते!“

  "हम पब्लिक ओपीनियन के खिलाफ नहीं जा सकते। अखबार का सर्कुलेशन गिरकर जो अब है उसका 25 फीसदी  हो जाएगा और आर्थिक नुकसान हम सह नहीं पाएंगे।" डॉक्टर अशोक गुप्ता के लेख को छापने से मना करते हुए कहता है 'जनवार्ता' का संपादक। सामने डॉक्टर भी है और अखबार का मुद्रक प्रकाशक भी और स्थानीय नगरपालिका का अध्यक्ष भी, जो डॉक्टर का छोटा भाई है पर लेख छापे जाने के खिलाफ है क्योंकि उससे चांदीपुर कस्बे की बदनामी होगी। मामला यह है कि डॉक्टर ने कस्बे के प्रमुख आकर्षण यानी प्रसिद्ध मंदिर के चरणामृत में बैक्टीरिया पाये जाने की पुष्टि की है और अगर यह बात तुरंत जनता की जानकारी में नहीं लाई गई और प्रशासन ने मंदिर को जलापूर्ति वाली पाइपलाइन ठीक नहीं की तो प्रदूषित जल से लोगों में फैल रही पीलिया की बीमारी महामारी का रूप ले सकती है। लेकिन मंदिर निर्माण करने वाले, जो सेठ भी हैं और प्रभावशाली हैं, यह नहीं मानते। उनका मानना है कि चरणामृत दूषित हो ही नहीं सकता क्योंकि उसमें गंगाजल और तुलसी के पत्ते मिले हैं। यह सब लोग मिलकर 'नास्तिक' डॉक्टर पर लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहु

आपका मीडिया ट्रायल किसीकी प्रतिष्ठा, करियर, जिंदगी तबाह कर देता है!

  सबसे पहले स्पष्ट कर दूं कि यह पुस्तक समीक्षा नहीं है। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद रिया चक्रवर्ती के चल रहे मीडिया ट्रायल के मौजूदा समय में जिग्ना वोरा की पिछले साल नवंबर में आई किताब  'बिहाईंड बार्स इन भायखला: माय डेज़ इन प्रिज़न' एक पत्रकार के अपनी बिरादरी के हाथों मीडिया ट्रायल झेलने की आपबीती है । वरिष्ठ पत्रकार ज्योतिर्मय डे (जे. डे) की हत्या के आरोप में 2011 में गिरफ्तार हुईं और 2018 में बरी हुईं जिग्ना ने कुछ महीने जेल में बताये थे और यह पुस्तक उन महीनों, मुकदमे, करियर और ज़िंदगी के बारे में है। इसका एक पहलू मीडिया ट्रायल है, जिसने उन्हें इसलिए भी ज़्यादा आहत किया कि वह खुद एक पत्रकार थीं। फ्री प्रेस जर्नल, मुंबई मिरर, मिड-डे और एशियन एज जैसे अखबारों में काम कर चुकी थीं। गिरफ्तार होने और अदालत के पुलिस कस्टडी में भेजे जाने के बाद जिग्ना लिखती हैं, “मीडिया के व्यवहार ने मुझे सबसे ज़्यादा ठेस पहुंचाई, शायद मेरे कर्मों ने ही सुनिश्चित किया था कि मैंने दूसरों के साथ जो व्यवहार किया था, मेरे साथ किया जा रहा था। मैंने यह भी महसूस किया कि मीडिया इतना बेरहम था कि प्राइम टा

तुम कब जाओगे, कोरोना?

  कोरोना, तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? जब तुम आये थे, हमने तुम्हारा स्वागत किया था। तुम्हारे लिए देश के द्वार बोले तो अपने एयरपोर्ट खोल रखे थे। यह सोचा था कि कुछ दिन बिताकर चले जाओगे। तुम्हारे स्वागत में हमने ताली भी बजवाई, थाली भी पर तुम पर कोई असर नहीं हुआ, कठोर। फिर हमने दिये और मोबाइल टॉर्च जलवाकर दिवाली भी मनवाई। मंशा थी कि इस देश का सबसे बड़ा त्यौहार देखने के बाद तुम खुशी-खुशी चले जाओगे, पर तुम बड़े ढीठ निकले। गये नहीं। शायद तुम हमारे कुछ भक्त मंत्रियों के 'गो कोरोना गो' मंत्रजापा से नाराज़ हो गये और यहीं रहने का फैसला कर लिया। हमने लॉकडाऊन कर एक लक्ष्मण रेखा खींची और 130 करोड़ लोगों को घरों में बंद कर दिया। और तुम्हें 21 दिन का अल्टीमेटम दिया। महाभारत के युद्ध से तीन दिन ज़्यादा ही दिये। पर तुम नहीं गये। गौमूत्र से लेकर कोरोनिल की धमकियां दीं। तुम आईटी सेल से निकली फेक न्यूज़ की तरह फैलते रहे। मीडिया को साथ में लेकर हमने तुम्हें इग्नोर करना शुरू कर दिया। प्राइम टाइम डिबेट से तुम्हें गायब करवा दिया और बॉलीवुड, राफेल, पड़ोसी देश को मोबाइल एप्प छोड़, टीवीतोड़ जवाब आदि पर चर्चा

रुमाल जितना बयान, धोती जितना स्पष्टीकरण

-तो कोई हमारी सीमा में नहीं घुसा, न किसी चौकी पर कब्जा किया? -पीएमजी ने तो ऐसा ही बोला था लेकिन उनका ये मतलब नहीं था। -बोले तो? -पीएमओजी ने स्पष्टीकरण दिया है। आप पढ़ लीजिये। -रुमाल जितना छोटा बयान था, धोती जितना बड़ा स्पष्टीकरण। ऊपर से निकल गया। -इसका मतलब खोट आपकी समझ में है, इसमें पीएमजी और पीएमओजी का क्या कसूर? -ओके ये डीएमजी ने और ईएएमजी ने क्या कहा था? -अजी, एक बार सुप्रीम कोर्ट ने कुछ बोल दिया तो सेशन्स कोर्ट और हाई कोर्ट के ऑब्ज़रवेशंस को कौन पूछता है? -बोले तो? -बोले तो पीएमजी और पीएमओजी के बयान, स्पष्टीकरण के बाद डीएमजी और ईएएमजी के बयानों पर क्यों बात करें? -ओके। दुश्मन देश के कितने जवानों को मारा हमने? -देखिये जी, हमने आधिकारिक रूप से तो कोई बयान जारी नहीं किया, पर आपकी बिरादरी के ही कुछ सदस्यों ने 43 का आंकड़ा दिया था। एक चैनल ने तो दुश्मन देश के मारे गये जवानों के नाम भी दिये थे। -तो क्या आप उसकी पुष्टि करते हैं? -हम न तो उसकी पुष्टि करेंगे न खंडन। -वह क्यों भला? -हम मनोबल नहीं गिराना चाहते। -दुश्मन देश की सेना का? -नहीं, मीडिया क

फ्रॉम द मेकर्स ऑफ ब्लॉकबस्टर फ्रेंचाईजी ‘लॉकडाऊन‘ कम्स ‘जीना-मरना कोरोना संग‘

-कोरोना वायरस से बच गये पत्रकारों का इस वर्चुअल प्रेस कांफ्रेंस में स्वागत करते हुए बता दूं कि हमारी लॉकडाऊन फ्रेंचाइजी सफल रही है, क्या कहा? प्रमाण? अजी, आपका जीवित होना और इस पीसी में हिस्सा लेना ही इसका प्रमाण है, अब हम अनलॉक फ्रेंचाइजी ला रहे हैं। आपको जो पूछना है, पूछिए: -लॉकडाऊन शुरू करने से पहले कितने मामले थे? -एक्ज़ेक्ट फिगर तो मुझे याद नहीं, पर दो सौ से तीन सौ के बीच होंगे। -आज कितने हैं? -एक्ज़ेक्ट फिगर मुझे देखना पड़ेगा पर यही कोई दो लाख होंगे। मैं जानता हूं, आप बड़े बदमाश हैं। लॉकडाऊन को फ्लॉप साबित करना चाहते हैं पर याद रखिये, हम लॉकडाऊन नहीं लाते न, तो यह फिगर बीस लाख या उससे भी ज्यादा होता। -बीस लाख का अनुमान महामारी विशेषज्ञों से आया होगा? -नहीं, हमारे खेल मंत्रालय के कुछ आंकड़ा विशेषज्ञों ने दिया। -कोरोना को लेकर अपनी स्ट्रेटेजी के बारे में बताएंगे। -ज़रूर। देखिए कोरोना का पहला लेटर ‘सी‘ है तो हमने 'सी' को पकड़ लिया और कोरोना को कन्फ्यूज करने की रणनीति बनाई। मजे की बात ये रही कि हम सफल भी हुए। -कैसे? -हमने 14 घंटे का जनता कर्फ्यू

लाभार्थी मीडिया का फेक न्यूज़ फैलाते पकड़े जाना, बिग बॉस के 'डैमेज कंट्रोल स्कवाड' का सक्रिय होना!

'डैमेज कंट्रोल स्कवाड' की गोपनीय वीडियो कांफ्रेंसिंग बैठक हुई। मामला संगीन था। बिग बॉस के 'फेक न्यूज़' विरोधी अभियान का शिकार लाभार्थी मीडिया ही हो गया था। लाभार्थी मीडिया ने बिग बॉस से, इससे पहले कि बहुत देर वाली देर हो जाये, कुछ करने को कहा था। बिग बॉस ने 'डैमेज कंट्रोल स्कवाड' को निर्देश दिया, जिसके नतीजतन यह बैठक हुई। अपनी जान पर खेलकर आपका यह खादिम उस अति गोपनीय बैठक का एक्सक्लुज़िव ब्यौरा लाया है: बिग बॉस का प्रतिनिधि : कोरोना के खिलाफ लड़ाई में हम में से कई 'लक्ष्मण रेखा' से बंधे हैं और बोर होकर भी घरों में रहकर, जैसा कि साहब का आदेश है, अपना फर्ज निभा रहे हैं। इसलिये जो कहना है जल्दी कहें, टू द प्वाइंट कहें, हमें बैठक जल्दी समाप्त कर बोर होने का महत्वपूर्ण काम करना है। एक लाभार्थी मीडिया संस्थान का प्रतिनिधि : सर, ये पुलिस तो हमारे पीछे पड़ गई है। हमारी न्यूज़ को फेक बताकर हमें जलील कर रही है! बिग बॉस का प्रतिनिधि: क्या आप फेक न्यूज़ नहीं चला रहे थे? प्रतिनिधि: सर, न्यूज़ तो फेक निकली पर हमने ऐसा इंटेंशनली नहीं किया था। बिग ब

फेक न्यूज के शोर में सरकार के जोर का सच

विडंबना है कि ये दोनों बातें पिछले सप्ताह ही एकसाथ सामने आईं। एक तरफ केंद्र सरकार अदालत में सोशल मीडिया में पसरे फेक न्यूज का हवाला देकर मीडिया पर प्री-सेंसरशिप लादना चाहती दिख रही थी और दूसरी तरफ केंद्र सरकार निजामुद्दीन मर्कज में तबलीग को लेकर मुस्लिमों के खिलाफ सोशल मीडिया में धड़ल्ले से फैलायी जा रही और नफरत भड़काने वाली फेक न्यूज की अनदेखी कर रही थी। कोरोना वायरस का फैलाव रोकने के लिए भारत में बिना सोचे-समझे 21 दिवसीय लॉकडाऊन करने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 24 मार्च की आकस्मिक घोषणा के बाद इसके परिणामस्वरूप अचानक बेरोजगार, बेघर हुए भूखे-प्यासे माइग्रेंट (प्रवासी ) मजदूर जब परिवहन व्यवस्था ठप होने के कारण पैदल ही महानगरों और अन्य शहरों से अपने गांवों की तरफ जाने लगे तो उनकी दशा की हृदयविदारक सचित्र खबरें मीडिया के एक हिस्से में आईं। उनमें से कम से कम 30 लोगों की जान चली जाने  की भी खबरें आईं। इस दौरान प्रवासी मजदूरों को राहत दिलाने  की एक  याचिका उच्चतम न्यायालय में दाखिल की गई। याचिका के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 29 मार्च को एक आदेश जारी किया , जिसमें सभी

अफवाहें हैं अफवाहों का क्या?

इसे संयोग ही कहिये कि दुनिया के सबसे बड़े (अ)लोकतंत्र की सबसे बड़ी (अ) राजनीतिक पार्टी के पोर्टल पर विश्व भर में फैल चुकी और देश में पैर पसार रही एक महामारी के बारे में जानकारी वाले हिस्से में  FAQs पर मेरी नज़र पड़ गई। मुझे लगा कि ब्लॉग के पाठकों से यह जानकारी साझा करनी चाहिये सो साईट पर पूछे गये कुछ सवाल और दिये गये उनके जवाब, जो टू द प्वाइंट थे, यहां दे रहा हूं: -क्या यह सच है कि यह महामारी विश्व में चार महीने पहले फैलनी शुरू हुई? -जी। सच है। -क्या यह भी सच है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हमें भी ढाई महीने पहले जानकारी दे दी थी जब यह महामारी फैल रही थी? -जी। बिल्कुल सच है। -और क्या यह भी सच है कि देश में महामारी विदेशों से आने वाले अमीर लोगों के कारण फैली? -जी। यह भी झूठ नहीं है। -क्या यह सच है कि गौैमूत्र से महामारी का उपचार हो सकता है? -देखिये, अब तक अगर यह सिद्ध नहीं हुआ कि गौमूत्र से उपचार हो सकता है तो यह भी सिद्ध नहीं हुआ कि नहीं हो सकता। हम वैज्ञानिक पद्धति से सोचने, काम करने वाले लोग हैं सो अनुसंधान जारी है। -हमने यह महामारी फैलने से रोकने के लिये क्या किया

श्रीनगर हवाई अड्डे पर बांग्लादेश से लौटे छात्रों के परिजनों पर लाठीचार्ज

छात्रों के परिजनों ने आरोप लगाया कि कुछ छात्रों को हवाई अड्डे से बाहर ले जाया गया और ‘होम-क्वारंटाईन‘ किया गया जबकि अन्य को बदहाल आइसोलेशन इकाइयों में भेजा गया   अजान जावैद, 19 मार्च श्रीनगर: श्रीनगर हवाई अड्डे पर तब अव्यवस्था दिखी जब बांग्लादेश में पढ़ाई कर रहे कश्मीरी छात्रों का एक समूह गुरुवार को लौटा। कुछ छात्रों के परिजनों के अनुसासर जैसे ही छात्र विमान से उतरे, उन्हें अराइवल सेक्शन में दो घंटे से ज्यादा रोक लिया गया बिना कोई कारण बताए। मामला तब बढ़ गया जब कुछ छात्रों को ‘चुपचाप‘ हवाई अड्डे से बाहर ले जाया गया जबकि अन्य को बताया गया कि उन्हें क्वारांटाईन किया जायेगा जबकि सभी छात्रों का दावा था कि वह कोलकाता हवाई अड्डे पर थर्मल इमेजिंग की फीवर स्क्रीनिंग से गुज़र चुके हैं। उड़ान कोलकाता होते हुए श्रीनगर आई थी। परिजनों ने आरोप लगाया कि छात्र जिन्हें बाहर ले जाया गया, अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों के बच्चे थे, इसलिए उन्हें होम क्वारांटाईन किया गया जबकि अन्य को ऐसे क्वारांटाईन केंद्रों में भेजा गया जहां ‘अपर्याप्त सुविधाएं‘ हैं। हवाई अड्डे से कुछ छात्रों को बाहर ले जाये जाने के बा

किसी दिन उसने अंदर से कुंडी लगा दी तो?

यह संवाद है सुनीता का, जो फिल्म 'थप्पड़' में अमृता के घर में सहायिका है। वह अमृता को बता रही होती है कि जब भी उसे उसका पति मारता है, वह घर से निकलकर बाहर से कुंडी लगा देती है। लेकिन उसकी यह आशंका बनी रहती है कि किसी दिन उसके पति अंदर से कुंडी लगा दी तो? तो वह कहां जायेगी?? 'थप्पड़' एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर बनी एक महत्वपूर्ण फिल्म है। लेकिन इसके केंद्र में एक मध्य वर्ग की बेहद खूबसूरत, पढ़ी-लिखी लड़की का होना इसे कॉमर्शियल टच भी देता है और विषय की गंभीरता भी थोड़ी कम करता है। संक्षेप में फिल्म की कहानी यूं है कि अमृता के एक सफल और प्रसन्न गृहिणी होने का भ्रम टूटता है, जब एक पार्टी में उसका पति सबके सामने उसे थप्पड़ मार देता है। बाद में वह थप्पड़ को कार्यस्थल की कुंठा का नतीजा बताकर वह बाद में जस्टीफाई करने की कोशिश करता है। पर अमृता जिसने कॉलेज के समय ज़िंदगी से सिर्फ दो ही बातों, सम्मान और खुशी, की अपेक्षा की थी, वह इसे स्वीकार नहीं कर पाती और कुछ सोच-विचार के बाद घर छोड़कर मायके चली जाती है।  बाद में जब उसका पति कानूनी रास्ते से उसे जबरन घर लान

रिपोर्टर की खोपड़ी, संपादक की नौकरी बचाने के लिए बैलेंस बनाये रखना जरूरी है

हर बार लंबी-चौड़ी भूमिका क्या बांधना? आपके खादिम को एक लाभार्थी मीडिया हाऊस की ‘स्टाईल शीट‘ मिल गई। उसमें बाकी सब तो ठीक था पर ‘दंगे कवर कैसे न करें?‘ सेक्शन काफी रोचक लगा जो यहां ब्लॉग के पाठकों से शेयर कर रहा हूं। ‘दंगे कवर कैसे न करें?‘ दंगे एक संवेदनशील मुद्दा हैं और हमारे प्रतिष्ठित मीडिया हाऊस व हमारे पत्रकारों की जिम्मेदारी भरी भूमिका को देखते हुए यह जानना जरूरी है कि दंगे कैसे कवर न किये जाएं क्योंकि जब हमारे संस्थान के सदस्य यह जान जाएंगे तो उन्हें इसका भी पता लग जायेगा कि दंगे कैसे कवर किये जाते हैं। इसलिए नीचे दिये टिप्स ध्यान से पढ़ें: धर्म न पूछो दंगाइयों का हिंसा करने वाले समुदाय का धर्म (यदि वह बहुसंख्यक समुदाय से हो तो) कभी न दें। इसके दो कारण हैं। एक उनकी भावनाएं आहत हो सकती हैं और संबंधित संवाददाता, संपादक संस्थान पर बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओें को आहत करने के आरोप में और दो समुदायों के बीच वैमन्सय बढ़ाने के आरोप में मुकदमेबाजी झेलनी पड़ सकती है और दंगाइयों को ज्यादा ही गुस्सा आ गया तो कार्यालय में तोड़फोड़ से लेकर स्टाफ के किसी सदस्य की खोपड़ी भी फूट सकती है और मुक

‘शांति मार्च‘ में ‘गोली मारो‘ के नारे लगना, गोदी मीडिया के संपादक का धर्म संकट में फंसना

धर्म संकट गहरा था। गोदी मीडिया के क्या टीवी, क्या अखबार और क्या वेबसाईट, सभीके न्यूज़रूम में उस दिन यही माहौल था। यहां पेश है एक अखबार के न्यूजरूम में संपादक के केबिन में बुलाई गई बैठक का एक्सक्लूजिव ब्यौरा। मामले की पृष्ठभूमि संक्षेप में यूं है कि शहर में 40 से ज्यादा जानें लेने वाली हिंसा थमने के बाद सत्तारूढ़ पार्टी के समर्थन से एक शांति मार्च निकला। शांति मार्च में सत्तारूढ़ पार्टी के वह नेताजी भी शामिल थे, शामिल क्या थे, नेतृत्व ही वही कर रहे थे, जिनके नाम भड़काऊ भाषण देने और हिंसा भड़कने का कारण बनने को लेकर प्राथमिकी दर्ज होते-होते रह गई थी। खैर, शांति मार्च कवर करने के लिए जिस रिपोर्टर को भेजा गया था, वह लौटकर अपनी खबर वरिष्ठ उप संपादक को दे चुका था। एक नज़र डालने के बाद वरिष्ठ उप संपादक ने खबर मुख्य उप संपादक को दे दी। मुख्य उप संपादक ने समाचार संपादक को और समाचार संपादक ने खबर संपादक के केबिन में भिजवा दी। पांच मिनट के अंदर संपादक ने सबको केबिन में बुला लिया। संबंधित रिपोर्टर और चीफ रिपोर्टर को भी बुला लिया गया था और मीटिंग शुरू हो गई। संपादक : यह खबर हम कैसे छाप सकते हैं?

"मैं इस हार की नैतिक औैर हर तरह से जिम्मेवारी लेता हूं..."

वह हर मायनेे में सबसे अलग पार्टी थी। इसलिए, हर चुनाव को गंभीरता से लेती थी चाहे वह गली-मोहल्ले का चुनाव हो या फिर किसी प्रांत या देश का। हर चुनाव में वोट पार्टी, देश और विश्व के सबसे लोकप्रिय नेता के नाम पर ही मांगे जाते थे औेर अक्सर पार्टी जीत भी जाती थी या हार में भी जीत देख लेती थी। जैसे सीटें कम हुईं तो बढ़े हुए वोट प्रतिशत से खुश हो लेती। वोट प्रतिशत कम हुआ हो तो प्रत्याशियों के हार के अंतर को हाईलाईट किया जाता। कुल मिलाकर पार्टी में कभी किसी चुनाव में हार का ठीकरा किसीके सिर फोड़ने की नौबत लगभग नहीं ही आई थी। ऐसे में एक मिनी प्रांत में पार्टी की बेहद बुरी हार हुई। एक एसयूवी में भरकर विधानसभा भेजने लायक संख्या में इसके प्रतिनिधि चुने गये यानी दहाई का आंकड़ा भी नहीं छुआ और जहां तक वोट प्रतिशत का मामला है तो मिनी प्रांत के पिछले चुनाव के मुकाबले तो यह ज्यादा था, जो सुकून वाली बात थी लेकिन कुछ समय पहले हुए देश के चुनाव में इसी क्षेत्र से मिले वोटों के मुकाबले यह संख्या काफी कम थी। पार्टी सदमे में थी। ट्विटर पर अति सक्रिय रहने वाले नेताओं की उंगलियों को जैसे करंट लग गया था। पार्टी के

मुस्कुराइये, आप शाहीन बाग में हैं :-)

दिसंबर-जनवरी में कम से कम तीन बार मैंने शाहीन बाग जाने की योजना बनाई पर अमल नहीं कर पाया लेकिन पांच फरवरी को मुंबई से चंडीगढ़ जाते समय दिल्ली उतर ही गया और पहुंच गया शाहीन बाग। रात वहीं गुज़ारी। बढ़ती उम्र के कारण, इधर, रात को जागना नहीं हो पाता। फिर चंडीगढ़ की ठंड ने अपना असर दिखाना शुरू किया है और थोड़ा चलने पर या कुछ देर खड़े रहने पर बायें पैर में दर्द होने लगा है। इसलिये बीच-बीच में कहीं कोना पकड़कर थोड़ी देर के लिये बैठ जाना पड़ता है। लेकिन यह शाहीन बाग के आंदोलन का जोश और ऊर्जा का कमाल ही था कि रात कैसे गुज़री पता ही नहीं चला। अगली सुबह मैं कितना तरोताज़ा था, इसकी गवाही नोएडा में रहने वाले मेरे मित्र प्रणव प्रियदर्शी देंगे, जिनके घर मैं सुबह मेट्रो पकड़कर लगभग सात बजे पहुंचा। पोस्ट के साथ उनकी खींची सेल्फी लगाने का कारण यह है कि मेरे मोबाईल का कैमरा खराब है और शाहीन बाग में मैं कोई तस्वीर नहीं खींच पाया था। वैसे भी शाहीन बाग मैं एक आम नागरिक के तौर पर गया था, पत्रकार के रूप में नहीं, इसलिये तस्वीरें खींचने या रिपोर्टिंग का कोई इरादा नहीं था। मैं बस कुछ घंटे वहां के माहौल को

सीएए नागरिकता छीनने वाला नहीं नागरिकता देने वाला कानून है!

-सीएए पर देश में बवाल मचा हुआ है, थोड़ा विस्तार से बताएंगे कि सीएए है क्या बला? -सीएए नागरिकता छीनने वाला नहीं, नागरिकता देने वाला कानून है़। -फिर सीएए का एक महीने से देशव्यापी विरोध क्यों हो रहा है? -सीएए नागरिकता छीनने वाला नहीं नागरिकता देने वाला कानून है। -यह तो मेरे सवाल का जवाब नहीं हुआ? -सीएए नागरिकता छीनने वाला नहीं नागरिकता देने वाला कानून है। -अच्छा एनआरसी से सीएए का क्या संबंध है? -सीएए नागरिकता छीनने वाला नहीं नागरिकता देने वाला कानून है। -एनपीआर से इसका कोई संबंध है या नहीं, या फिर एनपीआर का एनआरसी से संबंध हो? दरअसल जनता में कन्फ्यूज़न है, जो आप दूर कर सकते हैं... -सीएए नागरिकता छीनने वाला नहीं, नागरिकता देने वाला कानून है। -ओके। ये शाह साहब की क्रोनोलॉजी हमें समझ नहीं आई। आप समझाएंगे तो मेहरबानी होगी... -सीएए नागरिकता छीनने वाला नहीं, नागरिकता देने वाला कानून है। -सीएए के तहत जब अफ़ग़ानिस्‍तान, पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश के प्रताड़ित धार्मिक अल्‍पसंख्‍यकों को सुरक्षा देने की कोशिश की ही जा रही है तो फिर उन्‍हीं देशों के बलूच, अहमदिया और शिया जैसे अन्‍य प्रताड़ित धार्म

हमें ‘छपाक‘ नहीं देखनी, नहीं देखनी, नहीं देखनी!

 -आप ‘छपाक‘ का विरोध कर रहे है? -हां। करते हैं और अंतिम सांस तक करते रहेंगे। -क्यों फिल्म बहुत बुरी है? -हमारे लिये बुरी है। -क्यों? फिल्म अश्लीलता को बढ़ावा देती है? -नहीं। -तो क्या हिंसा को बढ़ावा देती है? -नहीं। -फिर तो जरूर इसमें अंडरवर्ल्ड का पैसा लगा होगा? -ऐसी अफवाह तो थी पर पुष्टि नहीं हो सकी। -कहीं फिल्म में कोई पाकिस्तानी कलाकार तो नहीं है? -नहीं। -या कोप्रोडक्शन हमारे ‘एनीमी नंबर टू‘ चीन की किसी फिल्म कंपनी ने किया हो? -हमें नहीं पता। -अच्छा। अब समझा। वो फिल्म में मुस्लिम खलनायक का नाम हिंदू कर दिया था, ऐसी खबर आई थी। क्या वह खबर है आपके गुस्से का कारण। -नहीं। वह तो अफवाह निकली। -फिर आप फिल्म का विरोध क्यों कर रहे हैं? -उसमें दीपिका पादुकोण है। -क्यों? क्या वह बुरी अभिनेत्री हैं? -नहीं। -तो फिर? उन्होंने आपका क्या बिगाड़ा है? -वह जेएनयू गई थीं। -जेएनयू बोले तो? -जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय। -विश्वविद्यालय? वहां दीपिका के जाने से क्या प्रॉब्लम है? -वह ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग‘ का अड्डा है? -तो दीपिका क्या वहां किसी गैंग में शामिल होने गई थीं? -ऐसा उन्होंने कहा तो नहीं। उन्होंने