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Showing posts from May, 2017

"Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" bags 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival, Delhi

Sindhi movie "Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" (PHHYA) bagged 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival held this week at New Delhi by Sindhi Academy, Delhi Government. According to sources related to PHHYA, the movie which created history by premiering in Dubai in 2014, got awards for Best film (popular), Best director (Ramesh Nankani), Best Actor (Jeetu Vazirani) and Best Music Director (Hitesh Udhani). Award for best music was shared by Kamlesh Vaidya and Vijay Rupani (Vardaan)    The festival held on 27th and 28th May at Sirifort Stadium, New Delhi, screened 4 movies; PHHYA, Nai Shuruaat, Vardhaan and Trapadd Teshion Tey. Nai Shuruaat, a movie based on thalasemmia, bagged awards in category of Best film (critics) and Best cinematography (Unnidivakaran D Vinod). While Vardaan, with a message to save girl child, got award for Best female actor (Komal Chandnani) also.

सब विपच्छ का दोष है!

पिछले तीन सालों में हमारे देश में एक नया रहस्योद्घाटन हुआ है, वह यह कि देश की सभी समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार विपक्ष है। देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा विपक्षी दल हैं। देश का अगर विकास हुआ है (और हुआ तो होगा ही), तो वह विपक्ष के कारण नहीं बल्कि विपक्ष के बावजूद हुआ है और जो नहीं हुआ तो उसका ज़िम्मेदार विपक्ष है। यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि तीन साल पहले तक की सरकारें कमज़ोर और नाकारा थीं और अब विपक्ष कमज़ोर और नाकारा है। विपक्ष कमज़ोर और नाकारा तो है ही विभिन्न विपक्षी दलों में कोई एकता भी नहीं है। अब इसके लिए आप सरकार को तो दोष नहीं न दे सकते। सरकार देश चलाये या विपक्षी एकता की चिंता करे?     चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, न जाने कितने राजनीतिक पंडित यह लिखते-बोलते नहीं थकते कि साहब हमारे देश का विपक्ष मज़बूत होता तो फलां मुद्दे पर सरकार को फाड़ देता, फलां मुद्दे पर सरकार को चीर देता। विपक्ष में दम होता तो सरकार इतनी निरंकुश न होती। सरकार की मजाल न होती कि वह कोई गलत कदम उठाती, मनमाने फैसले लेती, पर अफ़सोस हमारा विपक्ष इतना कमज़ोर, इतना नाकारा है कि सरकार, वो

प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा

-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं।  साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम