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Showing posts from November, 2017

ब्रेकिंग न्यूज़ : 'पद्मावती' पर पर्यावरण विभाग ने रोक लगाईं! कहा, "बहुत ध्वनि प्रदूषण फैला रही है!"

पर्यावरण विभाग ने फिल्म 'पद्मावती' पर रोक लगा दी है! विभाग का कहना है कि फिल्म बहुत नॉइज़ पोल्यूशन यानी ध्वनि प्रदूषण फैला रही है ।  विभाग के एक उच्चाधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि इस ज्वलंत मुद्दे पर एक आपात बैठक बुलाई गयी थी जिसमें मंत्री का प्रतिनिधित्व उनके निजी सहायक ने किया। इस बैठक में सर्वसम्मति से फिल्म को बैन करने का फैसला लिया गया। फैसले के अनुसार फिल्म को सिर्फ भारत में ही नहीं 'प्लेनेट अर्थ' पर बैन किया गया है क्योंकि ध्वनि प्रदूषण की समस्या सिर्फ भारत में तो है नहीं। बैठक के मिनट्स (जिसकी कॉपी इस संवाददाता के पास है) के हवाले से ख़ास अपने पाठकों के लिए हम यह सुपर एक्सक्लूसिव   रिपोर्ट आपके सामने पेश कर रहे हैं: बैठक की शुरुआत गगनभेदी 'वन्दे मातरम' और समापन 'भारत माता की जय' के नारों से हुई। बैठक का एजेंडा रखते हुए एक उच्चाधिकारी ने कहा कि ऊपर से आदेश है कि कुछ करना होगा, हम कुछ नहीं कर रहे, इसलिए कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों को क़ानून और व्यवस्था बिगड़ने की आशंका का हवाला देकर फिल्म को बैन करना पड़ रहा है, इसमें यह संके

#मैंकरसकतीहै...!

आम तौर पर मुझे जो फिल्म देखनी होती है, उसकी समीक्षा नहीं पढ़ता और कल सुबह भी अखबारों में या नेट पर 'तुम्हारी सुल्लू' की समीक्षा नहीं पढ़ी । वास्तव में खुद को बड़ी मुश्किल से रोका। फिल्म देखने के बाद सोचा अच्छा किया। मुंबई के सुदूर उपनगर विरार में रहने वाली सुलोचना उर्फ सुल्लू से बिना उसके बारे में जाने मिलना सुखद अनुभव रहा। एक निम्न-मध्यम वर्गीय शादीशुदा औरत, एक बच्चे की मां जो कुछ करना चाहती है, क्या? उसे पता नहीं, पर कुछ तो करना चाहती है जो सिर्फ पति, बच्चे और घर सँभालने से परे उसके अपने अस्तित्व को तलाशने में मदद करेगा। उसे लगता भी है कि वह कर भी सकती है। बल्कि उसे पूरा-पूरा विश्वास है कि वह कर सकती है और वह कहती भी है, "मैं कर सकती है!" मोहल्ले में मुंह से पकड़े चम्मच में नीम्बू रखकर चलने की प्रतियोगिताएँ जीतने वाली सुल्लू एक रेडियो स्टेशन का एक कांटेस्ट जीतती है और वहां रेडियो जॉकी के लिए इंटरव्यू का पोस्टर देखकर रेडियो स्टेशन वालों के पीछे पड़ जाती है कि उसे एक चांस दिया जाए। वहां भी उसका सूत्र वाक्य यही है, 'मैं कर सकती है।' आखिर उसे वह काम मिल भी जा

राष्ट्रवाद के समय में लेखकों की भूमिका

एम. हामिद अंसारी लेखक चूंकि लोगों के नज़रिए को प्रभावित करते हैं और उनके विचारों को आकार देने में मदद करते हैं, इसलिए लेखकों की एक सामाजिक जिम्मेदारी है. पाठक वर्ग उनके लेखन से ही उनके सामाजिक उद्देश्य, विवेक की गहराई और भावनात्मक ईमानदारी को परखता है. इसीलिए उनका कार्य समकालीन सांस्कृतिक आचार-विचार और राष्ट्रीय पहचान को प्रतिबिम्बित करता है और करना चाहिए. इस तरह यह महत्वपूर्ण सवाल हमारे समक्ष आता है: भारतीय राष्ट्रीय पहचान क्या है? इस सवाल का जवाब देने के दो तरीके हो सकते हैं: पहला  निगमनात्मक होगा, तथ्यों अथवा अनुभव से स्वतंत्र: दूसरा विवेचनात्मक होगा, तथ्यों और अनुभव पर आधारित. पहला स्वीकृत परंपरा की अचूकता, समानता, एकरूपता, अखंडता की वकालत करता है. दूसरा ज़मीनी सच्चाई पर आधारित विभिन्नता, विविधता, जटिलता को पहचानता है. यह स्वयंसिद्ध सत्य है कि सभी नज़रियों को प्रत्यक्ष तथ्यों की कसौटी पर परखना होता है. तो भारत के सामाजिक परिदृश्य की असल हकीकत क्या है? भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण संकेत देता है कि हमारी धरती पर शारीरिक बनावट, वेशभूषा, भाषा, पूजा के तरीकों, पेशे, खाने की