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राजपथ को जनपथ से जोड़ती हैं ‘कभी फकीर! कभी चौकीदार’ की रचनाएं



आलोक वर्मा
व्यंग्य एक माध्यम है जिसके द्वारा लेखक समाज और जीवन की विसंगतियों, खोखलेपन और पाखंड को दुनिया के सामने उजागर करता है। जिनसे हम सब परिचित तो होते हैं किंतु उन स्थितियों को दूर करने, बदलने की कोशिश नहीं करते बल्कि बहुधा उन्हीं विद्रूपताओं-विसंगतियों के बीच जीने की, उनसे समझौता करने की आदत बना लेते हैं। व्यंग्यकार अपनी रचनाओं में ऐसे पात्रों और स्थितियों की योजना करता है जो इन अवांछित स्थितियों के प्रति पाठकों को सचेत करते हैं।
महेश राजपूत का आलोच्य व्यंग्य संग्रह ‘कभी फकीर! कभी चौकीदार!’ एक डिजिटल पुस्तक है। इसको पढ़ते हुए मुझे हिंदी के दो शीर्ष व्यंगकारों हरिशंकर परसाई और शरद जोशी याद आए। परसाई जी ने सदाचार की ताबीज की भूमिका कैफियत में लिखा है- अपनी कैफियत दूं, तो हंसना-हंसाना, विनोद करना अच्छी बातें होते हुए भी, मैंने मनोरंजन के लिए कभी नहीं लिखा। मेरी रचनाएं पढ़ कर हंसी आना स्वाभाविक है। यह मेरा यथेष्ट नहीं। और चीजों की तरह मैं व्यंग्य को उपहास, मखौल न मान कर एक गंभीर चीज मानता हूं। साहित्य के मूल्य, जीवन मूल्यों से बनते हैं। वे रचनाकार के एकदम अंतस से पैदा नहीं होते। जो दावा करते हैं कि उनके अंतस से ही सब मूल्य पैदा होते हैं, वे पता नहीं किस दुनिया में रहते हैं। जीवन जैसा है, उससे बेहतर होना चाहिए। राजनीति से मुझे परहेज नहीं है। जो लेखक राजनीति से पल्ला झाड़ते हैं, वे वोट क्यों देते हैं। वोट देने से ही राजनीति शुरू होती है। बुद्धिजीवी चाहे सक्रिय राजनीति में भाग न लें, पर वह अराजनैतिक नहीं हो सकता। जो अराजनैतिक होने का दावा करते हैं, उनकी राजनीति बड़ी खतरनाक और गंदी है।
इस संग्रह को पढने से पहले, यह जान लेना जरूरी है कि इनमें से अधिकांश व्यंग्य का सन्दर्भ क्या है। 2014 में केंद्र में सरकार बदली। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार पर से जनता का भरोसा उठ चुका था। रोजाना भ्रष्टाचार के नये-नये किस्से मीडिया की सुर्खियां बन रहे थे। इसके प्रभाव ने कांग्रेस सरकार को देश का दुश्मन जैसा बना दिया था। जनता कांग्रेस सरकार से बहुत नाराज थी। इसका फायदा भाजपा ने उठाया। उसने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर दांव खेला। इसमें देश के कॉरपोरेट घरानों ने नरेंद्र मोदी का खुलकर साथ दिया। पहले विकास का ‘गुजरात मॉडल’ की हवा बनाई गई। फिर प्रचार (मार्केटिंग) के माध्यम से ऐसे किस्से गढ़े गए कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी तो भारत की तस्वीर ही बदल जाएगी। परंतु ऐसा हुआ नहीं। आम जनता के हित में कुछ करने में सरकार नाकाम रही। ऊपर से मोदी ने नोटबंदी, जीएसटी लागू करने के फैसले लिए जो जनविरोधी साबित हुए। साथ ही केंद्र ने जितने संवैधानिक संस्थान थे, उनका ऐसा दुरुपयोग किया कि जनता का उन संस्थानों से विश्वास उठ गया।
महेश राजपूत पेशे से पत्रकार हैं, हर खबर पर उनकी नजर रहती है। उन्होंने रोजाना के घटनाक्रम को ही अपनी रचना का विषय बनाया है। आज हालात ऐसे बना दिए गए हैं कि सत्ताधारी दल उसके नेता को लेकर सवाल पूछना, मंशा पर सवाल उठाना देशद्रोह की श्रेणी में डाल दिया गया है। आपने सवाल पूछा नहीं कि चापलूस अनुयायी जिन्हें भक्त कहा जा सकता है, आप पर पिल पड़ते हैं और दुखद यह है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी उनके साथ है।
 फिर परसाई याद आ रहे हैं जिन्होंने ऐसे ही वातावरण में लिखा था- 'विकलांग श्रद्धा का दौर'। उन्होंने लिखा है- श्रद्धेय बनने का मतलब है 'नान परसन'- 'अव्यक्ति' हो जाना। श्रद्धेय वह होता है जो चीजों को हो जाने दे। किसी चीज का विरोध न करे- जबकि व्यक्ति की, चरित्र की, पहचान यह है कि वह किन चीजों का विरोध करता है। ...और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातारवरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया। इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावलेपन में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया। वुद्धिजीवियों की नस्ल पर शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कही कोई श्रद्धा नहीं विश्वास नहीं।
'कभी फकीर! कभी चौकीदार!' रचना में महेश की व्यंग्य की धार देखिए। चूंकि नरेंद्र मोदी को अपनी असफलताएं छिपाने और जनता का भावनात्मक शोषण करने के लिए जुमले गढ़ने में महारत हासिल है तो उन्होंने कहा कि वह प्रधानमंत्री नहीं देश के चौकीदार हैं। इसी तरह एक बार कहा कि वह तो फकीर हैं झोला उठाकर चल देंगे। फकीर और चौकीदार परस्पर विरोधी शब्द हैं। लेखक ने इस चालाकी को समझा और फकीरी और चौकादार को लेकर यह व्यंग्य लिखा। ध्यान देने की बात है कि तब तक न तो कांग्रेस ने 'चौकीदार चोर है' का नारा बुलंद किया था और न ही देशभर में प्रधानमंत्री, उनके मंत्रियों और उनकी पार्टी के बड़े से लेकर छोटे कार्यकर्ताओं तक ने ट्वीटर पर अपने नाम के आगे 'चौकीदार' शब्द जोड़ा था।
कभी फकीर! कभी चौकीदार! में लेखक जमूरे और उस्ताद के माध्यम से व्यवस्था पर तंज कसता है। उन विसंगतियों पर चोट करता है जो देश में सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति किस तरह लफ्जों के माध्यम से जनता की भावनाओं से खेल रहा है, उन्हें बेवकूफ बना रहा है। इस व्यंग्य में उस्ताद और जमूरे के बीच जो संवाद चलता है आप पढ़िये और मजा लीजिए।
- उस्ताद जमूरे से पूछता है, ... बता चौकीदार का क्या काम होता है?
- जमूरा कहता है- यह भी कोई पूछने की बात है उस्ताद? चौकीदार का काम है चौकीदारी करना! घर की रखवाली करना...
- और अगर घर में चोरी हो जाए तो...
- तो चौकीदार को बदल देना चाहिए...
- गुड! अब बता चोरी हो गयी। चौकीदार को बदल दिया। पर चोरों का घर में आना-जाना लगा है तो क्या करना चाहिए?
- ऐसा कैसे हो सकता है उस्ताद? घर के लिए चौकीदार है तो चोर कैसे आना-जाना करेंगा?
- अबे सवाल के बदले में सवाल मत कर! जवाब दे!
- इसका तो एक ही मतलब है उस्ताद... या तो चौकीदार ड्यूटी पर सोया रहता है या फिर चोरों से मिला हुआ है...
- वैरी गुड! अब बता चौकीदार कहता है चोर ने चोरी पिछले चौकीदार के समय की पर भाग अब निकला। इसका क्या मतलब है?
- बताता हूं उस्ताद! चौकीदार की बात सच भी मान ली जाए तो भी चोर के भागने का पनिशमेंट चौकीदार को मिलना मांगता है।
- गुड! अब बता फकीर किसे कहते हैं?
- उस्ताद फकीर बहुत ऊंची चीज होती है! फकीर को किसी तरह की मोह- माया नहीं होती...
- अब बता कोई चौकीदार यह कहे कि वह भी चौकीदार है तो तू क्या कहेगा?
- ऐसा कैसे हो सकता है उस्ताद? चौकीदार भला फकीर कैसे हो सकता है?
- सवाल मैंने किया है जमूरे!
-उस्ताद! यह नहीं हो सकता। फकीर का जब माया से लेना-देना ही नहीं है तो वह उसकी चौकीदारी कैसे कर सकता है? और चौकीदार जिसका काम ही अपने मालिक के माया की रखवाली करना है, वह फकीर कैसे हो सकता है?
- गुड! यानी तेरा कहना है कि चौकीदार फकीर नहीं हो सकता और फकीर चौकीदार नहीं हो सकता...
- यही तो बोला मैं उस्ताद...
- अब बता फकीर कहे कि वह कभी भी झोला उठाके चल देगा तो क्या उस पर विश्वास किया जा सकता है?
- झोला खाली है या भरा हुआ?
- तू पिटेगा जमूरे?
- सॉरी उस्ताद! पण जो झोला उठाकर चल दे वह फकीर कैसा? और फकीर झोला उठाकर काहेकू जाना चाहेगा। चाहेगा भी तो जाएगा किधरकू?
...उसके मालिक को बोलने का कि उसको जितना जल्दी हो सके फुटास का गोली देने का, तुरंत...
पुस्तक की एक रचना का नाम है 'माफी तो आपको मांगनी ही होगी'। यह न्यूज चैनलो पर केंद्रित व्यंग्य है। इस पर चर्चा के पहले वर्तमान भारतीय मीडिया की कार्यप्रणाली पर चर्चा करना समाचीन होगा। मीडिया की जिम्मेदारी समाज को राह दिखलाने की है। लेकिन विगत कई वर्षों से इसकी भूमिका बदली नजर आ रही है। खासतौर पर न्यूज चैनलों की। भारतीय चैनलों पर किसका प्रभाव है या वे किस तरह के दबाव में है यह बड़ी बहस का मुद्दा है। परंतु निष्पक्ष होकर खबरें दिखाने, विश्लेषण करने की जगह उसने अपना दायित्व बदल लिया है। सभी चैनल किसी राजनीतिक दल के प्रवक्ता बनकर जनता को भ्रमित करने में जुटे हुए हैं, बल्कि यह भी कह सकते हैं कि वे जनता को भड़काने में जुटे हुए हैं। चाहे हिंदी का न्यूज चैनल हो अंग्रेजी या किसी क्षेत्रीय भाषा का चैनल, उनके प्राइम टाइम की बहसों को देखने पर लगता है कि हम किसी मछली बाजार में पहुंच गए हैं जहां हर तरफ शोर ही शोर है। कोई किसी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं है बस बात सुनाने के लिए चीख रहा है और एंकर सबको धमका रहा है। न्यूज चैनलों ने समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने की जगह संभवतः बांटने का काम अधिक किया है। उनकी भूमिका नागरिकों की तरफ से सत्ता से सवाल पूछने की होनी चाहिए लेकिन उन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान से समझौता कर लिया और जो सवाल सरकार से करना चाहिए वे विपक्ष से करते हैं। सरकार को देश के तमाम ज्वलंत सवालों के लिए कठघरे में खड़ा करने की जगह चुप्पी साध लेते हैं और उससे आगे बढ़कर विपक्ष पर हमलावर हो जाते हैं। आगामी समय में जब कभी न्यूज चैनलों की भूमिका पर कोई शोध आएगा कि उन्होंने समाज के लिए किस तरह की भूमिका निभाई तो बड़ा नकारात्मक और कष्टकारी होगा। संभवतः युवा पीढ़ी को सबसे ज्यादा नुकसान न्यूज चैनलों ने पहुंचाया है।
माफी तो आपको मांगनी ही होगी! में वह कैसे न्यूज चैनलों को नंगा करते हैं देखिए- देश के नंबर वन न्यूज चैनल पर गर्मागर्म डिबेट चल रही थी। ...यूं तो एंकर के सामने आठ-दस मेहमान थे पर एंकर एक मेहमान से ही रू-ब-रू था, जो किसी विपक्षी पार्टी का नुमाइंदा था। जरा संवाद पढ़िए...
एंकरः माफी तो आपको मांगनी ही होगी
मेहमानः लेकिन...
एंकरः हम आपकी कोई बात नहीं सुनेंगे। पहले आप माफी मांगें।
मेहमानः पर
एंकरः पर-वर कुछ नहीं, आप माफी मांगिये।
मेहमानः मेरी बात तो सुन...
एंकरः राष्ट्र को कुछ नहीं सुनना। आप सिर्फ माफी मांगिये।
मेहमानः किस बात...
एंकरः बात गई तेल लेने। मैंने बोल दिया तो बोल दिया। आप मुझे यह बताइये कि आप माफी मांग रहे हैं या नहीं...
एंकरः तो आप माफी नहीं मांगेंगे
मेहमानः मैंने कब कहा...
एंकरः पर माफी मांगी भी तो नहीं। देखिये, मैं यहां पूरी रिसर्च और होमवर्क के साथ आता हूं। और मैं जो तय करके आता हूं, वह करके रहता हूं। मेरा आज का एजेंडा आपसे माफी मंगवाना है, सो मंगवाकर रहूंगा।
जब जनता के दुख-दर्द को त्यागकर न्यूज चैनल सरकारी भोंपू बन जाएं। सरकार से सवाल न पूछकर उसके प्रवक्ता बन जाएं। सरकार की जगह विपक्ष को कठघरे में खड़ा करें तो निश्चित रूप से उनका सरोकार जनता के दुख दर्द तो नहीं ही होंगा और महेश राजपूत ने इसमें यही दिखाने की कोशिश की है।
बेरोजगारी भारत की एक स्थायी समस्या बन चुकी है। लोकतंत्र में जब मतदाता सरकार चुनता है तो उसकी अपेक्षा रहती है कि सरकार बुनियादी संसाधन मुहैया कराने के साथ सबको रोजगार की भी व्यवस्था करेगी। विडंबना यह है कि सत्ता में आने के लिए राजनीतिक दल जनता से बड़े-बड़े वादे करते हैं और सरकार में आने के बाद उसे तिलांजलि दे देते है। अब तो सरकार में पहुंच जाने के बाद राजनेता भी चुनावी वादों को जुमला कहने में संकोच नहीं करते। यही नहीं, असल समस्या से ध्यान भटकाने के लिए ऐसी बात कह देंगे कि जनता सिर पीटती रह जाए। प्रधानमंत्री ने सत्ता में आने के लिए बड़े-बड़े वादे किए। हर साल दो करोड़ लोगों को नौकरी देने का वादा किया। चूंकि इस समय देश की तकरीबन आधी आबादी युवा है तो उनके लिए रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा है। पिछली सरकार चूंकि रोजगार के मुद्दे पर कुछ खास कर नहीं पाई थी तो युवा वर्ग को लगा कि ये महानुभाव अगर सत्ता में आ गए तो उनकी जिंदगी संवर जाएगी। सारे बंधन तोड़कर युवाओं ने उनको वोट दिया। प्रधानमंत्री बन जाने के बाद साहब के फैसलों के कारण लाखों की संख्या में उद्योग बंद हो गए। इससे करोड़ों लोगों की नौकरियां और रोजगार चला गया। रोजगार को लेकर जनता सवाल पूछने लगी तो प्रधानमंत्री ने युवाओं को पकौड़े बेचने का सुझाव दे दिया।
लेखक ने 'बोले तो पकौड़े बेचने के फैसले ने मेरी जिंदगी बदल डाली!' में इसी विद्रूपता और युवाओं के साथ छल को चित्रित किया है। इसमें अपने संपादक के निर्देश पर पत्रकार एक पकौड़े बेचने वाले का इंटरव्यू कर रहा है-
- आप कब से पकौड़े बेचते हैं?
- 15 मई की रात एक महापुरुष सपने में आये और उन्होंने कहा, बालक, तेरे दुख भरे दिन बीत गये और अच्छे दिन आ गए हैं। कल से तू नौकरी के लिए दर-दर भटकना बंद कर दे। तुझे नौकरी मांगनी नहीं पगले, नौकरी देनी है! तू कोई अपना काम शुरू कर!
- फिर?
- फिर मैंने असमंजस में पूछा कि सर मैं क्या करूं? उन्होंने कहा- चाय-पकौड़ी का ठेला लगा ले, दिन में 200 रुपये कहीं नहीं जाएंगे। बस फिर क्या था! यह दिव्य ज्ञान मिलने के बाद मैंने अगले दिन से ही राम भरोसे रेस्तरां का बोर्ड लगाकर यह ठेला शुरू कर दिया।
- वह महापुरुष कौन थे, आपने पहचाना?
- नहीं, सपना 3डी में था और मेरे पास 3डी वाला चश्मा भी नहीं था, फोकस क्लियर नहीं था। मुझे बस उनके हर वाक्य में मितरों, मतरों सुनाई दे रहा था।
- मैंने आपका बहुत समय ले लिया। क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे?
- हम कोई नेता थोड़े न हैं, जो देश के नाम संदेश दें? न हमारे पास फालतू का समय है, न फेंकने की कला।
कितना तीखा व्यंग्य है। युवा वर्ग की निराशा को इससे समझा जा सकता है। एक नौजवान पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी के सपने देखता है। लेकिन सरकार का मुखिया उससे वह रोजगार करने के लिए कहता है जो संभवतः उसकी शिक्षा के अनुरूप नहीं है। इसके अलावा लेखक ने बात बात पर देश के नाम संदेश देने वाले नेताओं पर भी तीखा व्यंग्य किया है कि यह केवल बरगलाने की कोशिश है और कुछ नहीं।
इस संग्रह की रचनाओं में समाज के दोमुहेपन और जन सामान्य की बात बहुत ही अचूक ढंग से कही गयी है। 2014 में जो नई सरकार तमाम सपने दिखाकर सत्ता में आई कि भ्रष्टाचार खत्म कर देंगे, विदेश से काला धन लाएंगे और हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख रुपये डालेंगे। बेरोजगारी खत्म कर देंगे। लेकिन हुआ क्या? अच्छे दिन लाने का वादा कर सत्ता में आए लोगों के राज में न भ्रष्टाचार कम होता है, न गरीबी, न महंगाई की समस्या, न ही कुछ और। सामाजिक व्यवस्था और जटिल हो गई। 'अच्छे दिनों की ट्रेन अनिश्चितकाल की देरी से चल रही है! असुविधा के लिए खेद है!' में उन्होंने इसी झूठ पर प्रहार किया है। व्यंग्य की शुरुआत देखिए- अच्छे दिनों की ट्रेन का इंतजार कर रहे सभी भारतीय कृपया ध्यान दें। अच्छे दिनों की ट्रेन अनिश्चितकाल की देरी से चल रही है और 16 मई 2014 को पहुंचने वाली ट्रेन अभी हमें मिली जानकारी के अनुसार 2019 तक नहीं पहुंचने वाली। यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है।
... तो हम कह रहे थे कि ट्रेन लेट होने की जेन्युइन वजहें हैं। देखिए न, कोई भी बदलाव रातोंरात तो नहीं हो सकता। हमारे पास कोई जादू का डंडा तो है नहीं कि घुमाया और गिली-गिली या आबरा- का -डाबरा जैसा कुछ बोलकर इस देश में पिछले 600 सालों से चल रहे बुरे दिनों के राज को एक झटके में ठीक कर दें ( हां, हां, हमें याद है हमने पहले सिर्फ कांग्रेस के 60 सालों के (कु) शासन की बात की थी पर सत्ता में आने के बाद हमें अंग्रेजों के 200 सालों और मुगलों के राज की भी याद आई)! तो हम आपसे अनुरोध करेंगे कि आपने मुगलों, अंग्रेजों और कांग्रेस को 600 साल दिए तो हमें 60 साल दीजिए!
लेखक सत्ताधीशों के कथनों के माध्यम से उनकी नाकामी को तो इसमें बखूबी चित्रित करता ही है, उनकी कुटिलता और बहानेबाजी को भी नंगा कर देता है। सत्ता में आने के बाद नेता कैसे जनता को बेवकूफ समझने लगते हैं इसी लेख के अगले हिस्से में लेखक बताता है- अच्छे दिनों की ट्रेन इसमें कुछ डिब्बों की डिजाइन तैयार करने का काम हमने शुरू कर दिया है और यह अलग-अलग थीम पर हो रहा है, जैसे स्वच्छ भारत अभियान, सभी के लिए आवास, किसानों की आय दुगनी करना, बुलेट ट्रेन, न्यू इंडिया, सभी के लिए बिजली वगैरह-वगैरह जिसका फिलहाल लक्ष्य हमने 2022 तक रखा है! क्या कहा? हमारा वर्तमान कार्यकाल 2019 तक ही है, क्या मजाक कर रहे हैं साहब!  हमें विश्वास है कि आप हमें एक मौका और देंगे। इसीलिए हमारी कोई भी योजना शार्ट टर्म की है ही नहीं, हम तो लांग टर्म में ही सोचते हैं। आखिर लांग टर्म गेन के लिए शार्ट टर्म का पेन तो आपको ही सहना होगा न!... लेखक इस तरह सत्ता की चालाकियों को उजागर करता है और जनता के साथ हो रहे छल का पर्दाफाश करता है।
इसी तरह पीएम भक्ति पुरस्कार योजना के लिए प्रविष्टियां आमंत्रित, पाकिस्तान टूरिज्म डेवलेपमेंट कॉरपोरेशन आपका स्वागत करता है, पैसा वसूल फिल्लम है अजब विकास की गजब कहानी, सब विपच्छ का दोष है,  शांतता! डायलॉगबाजी चालू है!, विक्रम- बेताल 2020 में...,  काश! स्टूडियो का फ्लोर फट जाए मैं उसमें समा जाऊं!, यह मिस्ड काल युग है, 55 घंटे का सीएम आदि लेखों के माध्यम से सत्ता और व्यवस्था की चालाकियों पर चोट करते हुए उसका राज खोलते हैं। आज का जो सबसे दुखद पहलू है वह यह कि सत्ता, सत्ताधीश और नेता जनता को जुमलों के जरिये बेवकूफ बना रहे हैं और मीडिया उनका सहभागी बना हुआ है।
सुरेंद्र चौधरी ने हरिशंकर परसाई के लेखन पर विचार करते हुए लिखा- व्यंग्य जातीय इच्छा की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति है। दूसरे शब्दों में कहें तो व्यंग्य का वास्तविक उद्देश्य समाज की बुराईयों और कमजोरियों की हंसी उड़ाकर पेश करना होता है। मगर इसमें तहज़ीब का दामन मजबूती से पकड़े रहना जरूरी है। यह बात महेश राजपूत पर भी लागू होती है।
 'नोटबंदी सफल थी, सफल है, सफल रहेगी' में उनका कटाक्ष देखिए- ...बाद में हमने जो उद्देश्य बताये थे, उनमें डिजिटल इकोनॉमी को बढ़ावा देना शामिल था। पहले उसी की बात करते हैं। हमारे इस उद्देश्य की सफलता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि हमने अखबार में पढ़ा है कि लोग सुलभ शौचालयों में मूतने के लिए एक रुपये और हगने के लिए दो रुपये का भुगतान भी डिजिटल मोड से कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि लोगों के पास नकदी नहीं है, पर डिजिटल पेमेंट करने की आदत सी हो गयी है लोगों को....
अंत में मैं पुस्तक की प्रस्तावना में महेश के रचनाकर्म के बारे में डॉ. दीपक पाचपौर के शब्दों को उद्धृत करना चाहूंगा- महेश का राजनैतिक-सामाजिक दृष्टिकोण अत्यंत परिपक्व है। लोकतांत्रिक और मानवीय। यह उनके लेखन में साफ नजर आता है। जनविरोधी विचार और कृत्य अपने आप उनकी कलम के नीचे आ जाते हैं। पक्षपातरहित होकर वे सबके खिलाफ तन जाते हैं। सर्वहारा के पक्ष में वे अपनी कलम बड़ी मजबूती से अड़ा देते हैं। उनके लेखन की बानगी है कि वे किसी भी राजनीतिक विचारधारा, दल या खेमे का हिस्सा नहीं बनते। राजपथ उन्हें नहीं सुहाता। वे जनपथ के राही हैं।
(समीक्षक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
(Courtesy : Satta Vimarsh)
You can also read the article directly on: 
http://www.sattavimarsh.com/literature/review-kabhi-fakir-kabhi-chowkidar-7489 

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