-गुलजार हुसैन
प्रेमचंद का
साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के
साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह
किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं
की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की
तुलना में यह दौर अधिक भयावह है, लेकिन इसके बावजूद
साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं। साहित्यिक
कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में
बन रही हैं,
यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय
है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं, जितने प्रेमचंद युग में थे।
हां, स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब
स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे
वही 'सच'
अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही
है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा
हिंदी सिनेमा में अब अधिक हो रही है।
साथियो, कथा सम्राट प्रेमचंद की कई कृतियों पर फिल्मों नाटकों और
टेलीफिल्मों में बहुत महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय कार्य हुए हैं, लेकिन इस विषय पर कुछ कहने से पहले मैं प्रेमचंद के हिंदी फिल्मों
से हुए मोहभंग और उनके मुंबई से लौट जाने के संबंध में कहना चाहूंगा।
प्रेमचंद का मुंबई
से निराश होकर लौट जाना भारतीय साहित्यिक सिनेमा के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण
मोड़ माना जा सकता है। फिल्मों से मोहभंग हो जाने की स्थिति को केवल उनका
व्यक्तिगत प्रसंग मान के ही हल्का नहीं समझा जा सकता है। दरअसल यह प्रसंग हमें
फिल्म और साहित्य के जटिल अंतर्संबंधों की सटीक पड़ताल करने का अवसर भी प्रदान
करता है। दो विनाशकारी विश्वयुद्धों के बीच अपनी कलम से मानवता की रक्षा का बीड़ा
उठाने वाले महान लेखक प्रेमचंद ने यदि फिल्म की ओर रुख करने का मन बनाया, तो इतना तो अकाट्य सच है कि उन्हें फिल्मों में अकूत संभावनाएं दीख
पड़ी होंगी। जब प्रेमचंद ने लिखने की शुरुआत की थी तब संसार पहले महायुद्ध की चपेट
में आने वाला था और जब मौत के बाद उनकी लेखनी थम गई, तब दूसरे महायुद्ध
के बादल मंडराने लगे थे। लगभग एक दर्जन उपन्यास और सैकड़ों उल्लेखनीय कहानियों के
केंद्र में वे दुर्व्यवस्था की चक्की में पिस रही जनता की आवाज को रखते रहे।
उन्होंने पीड़ित-शोषित जनता के संघर्ष को अपना लेखकीय संघर्ष भी माना था।
हां, यह भी सही है कि प्रेमचंद फिल्मों के जरिए अपनी आर्थिक स्थिति
सुधारना चाहते चाहते थे,
लेकिन उनके मन में अपने लेखन को
प्रभावशाली ढंग से समाज के सामने रखने की इच्छा उससे अधिक थी।
निस्संदेह उन्हें
आर्थिक स्थिति की चिंता इसलिए भी थी कि उन पर दो मासिक पत्रिकाओं 'हंस'
और 'जागरण' को निकालने का भी दबाव था। प्रेमचंद इन दोनों पत्रिकाओं को घाटा
सहते हुए निकाल रहे थे। इन दोनों पत्रिकाओं को निकालने के लिए उन्होंने बहुत कष्ट
सहे थे। उन पर कर्ज का बोझ भी चढ़ गया था, लेकिन वे अपनी
साहित्यिक जिम्मेदारियों से पीछे हटना नहीं चाहते थे।
इस संबंध में
उन्होंने अपने मित्र लेखक बनारसी दास चतुर्वेदी लिखा था -'मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इस वर्ष 2 हजार रुपए का घाटा हुआ है और इसने मेरी कमर तोड़ दी है।'
इसका अंदाजा आप लगा
सकते हैं कि उस समय 2
हजार के घाटे का क्या मतलब था।
प्रेमचंद ने इन दो
पत्रिकाओं से होने वाले घाटे के बारे में अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को भी
लिखा था। इन पत्रों से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचंद अपनी आर्थिक स्थिति
भी ठीक करना चाहते थे,
ताकि यह उनकी साहित्यिक राह के रोड़े न
बन सकें। प्रेमचंद ने पत्रिकाएं निकालते रहने के लिए फिराक गोरखपुरी और कई अन्य
दोस्तों से भी कर्ज ले रखा था और सब उनसे रकम वापसी के लिए कह रहे थे। इससे इतना
तो समझा जा सकता है कि फिल्मों में वे अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए लिखना
चाहते थे,
लेकिन बहुत बाद में उन के मोहभंग वाले
प्रसंग से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह अपने महान साहित्यिक उद्देश्यों को पूरा
करने के लिए फिल्म जैसे प्रभावशाली माध्यम का इस्तेमाल करना चाहते थे, लेकिन जब उन्हें पता चला कि पूंजीवादी ताकतों के हाथ में किसी
कहानी के साथ खिलवाड़ करने की ताकत होती है, तो उन्हें बहुत
निराशा हुई । पूंजीवादी प्रभाव से फिल्मों में वल्गरिटी को भी वे नोटिस कर रहे थे
और उन्हें लगा था कि फिल्मों में किसी गंभीर लेखक के लिए कोई विशेष जगह नहीं है।
प्रेमचंद ने मुंबई
से जयशंकर प्रसाद को लिखा था, 'यहां मुंबई की
फिल्मी नगरी देखकर चित्त प्रसन्न नहीं हुआ। सब रुपए कमाने की धुन में हैं, चाहे तस्वीर कितनी गंदी और भ्रष्ट हो। सब काम को सोलहो आने व्यवसाय
की दृष्टि से देखते हैं,
जो लोग बड़े सफल समझे जाते हैं, वे भी अंग्रेजी फिल्मों के दृश्य की नकल कर वाहवाही पाते हैं।'
प्रेमचंद ने अपने
समय के बड़े आलोचक इंद्रनाथ मदान को लिखा था कि सिनेमा साहित्यिक आदमी के लिए ठीक
नहीं है। उस दौरान प्रेमचंद ने जैनेंद्र कुमार को जो लिखा था, वह उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा था, "मैं जिन इरादों से आया था, उनमें से एक भी पूरा होता नहीं दीख रहा है । यहां प्रोड्यूसर जिस
ढंग की कहानियां बनाते हैं,
उसकी लीक से जौ भर भी नहीं हट सकते।
वल्गरिटी को ये लोग एंटरटेनमेंट वैल्यू कहते हैं।" प्रेमचंद ने लिखा था कि
अद्भुत में ही इनका विश्वास है। महाराजाओं के षड्यंत्र, नकली लड़ाइयां और बोसेबाजी, यही मुंबइया
प्रोड्यूसरों के साधन हैं। उन्होंने आगे लिखा है, "मैंने सामाजिक कहानियां
लिखी हैं,
जिन्हें शिक्षित समाज भी देखना चाहे, लेकिन उन पर फिल्म बनाने में इन लोगों को संदेह होता है कि कहीं
फिल्म न चले तो क्या होगा।"
दोस्तो, सोचिए। प्रेमचंद आखिर इतना निराश क्यों हो गए ? निस्संदेह जिन मुद्दों से प्रेमचंद जूझ रहे थे, आज का गंभीर लेखक भी जूझ रहा है, जो फिल्मों से जुड़ा
है या जुड़ना चाहता है,
उसके सामने ऐसी समस्याएं हैं। दरअसल
प्रेमचंद के फिल्मी दुनिया से लौटने के प्रसंग को इसलिए मैं महत्वपूर्ण कहना चाहता
हूं क्योंकि यह नई पीढ़ी के लिए प्रासंगिक है। मैं उन परिस्थितियों को समझना चाहता
हूं,
जिसके तहत इतने बड़े लेखक का एकदम से, ...हठात मोहभंग हो जाता है।
आप फिल्मी इतिहास
उठाकर देख लीजिए कि समय- समय पर साहित्य के और साहित्यकार के सहारे ही फिल्मों की
सार्थकता सिद्ध हुई है। तो विश्व में जब भारतीय सिनेमा की सार्थकता और महत्व को
दर्शाने के लिए साहित्यकार और साहित्यिक कृतियों का सहारा लिया जाता रहा है, तो भला भारतीय सिनेमा और साहित्य के बीच एक बेहतर पुल अब तक क्यों
नहीं बन पाया?
मैं यह बात जोर
देकर कहना चाहता हूं कि प्रेमचंद का फिल्मी दुनिया से निराश होकर लौट जाने को
पलायन हरगिज नहीं समझा जाना चाहिए। यह एक महान लेखक की नाराजगी थी, जिसके कारण यदि
नुकसान हुआ तो केवल हिंदी फिल्मों का हुआ। मुझे लगता है कि हिंदी फिल्मकारों की
वर्तमान पीढ़ी को प्रेमचंद के मोहभंग वाले प्रसंग से कुछ सीखना चाहिए और साहित्य और
फिल्म के बीच एक मजबूत पुल बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
अब मैं प्रेमचंद की
कृतियों पर बनी फिल्मों के महत्व और कलात्मक या आर्थिक सफलता-असफलता पर अपने विचार
रखता हूं। प्रेमचंद के महत्वपूर्ण उपन्यास 'सेवासदन' पर 1934
में 'बाजारे हुस्न' नाम से एक फिल्म बनी थी। प्रेमचंद ने जब यह फिल्म देखी तो वे
सन्तुष्ट नहीं हुए। उन्हें लगा कि वे जो अपने उपन्यास के माध्यम से कहना चाहते हैं, फिल्म में वह तथ्य उस तरह से नहीं उभर पाया है।
दरअसल 'सेवासदन'
उपन्यास भारतीय स्त्री की पराधीनता की
समस्या पर लिखा गया था। इसमें प्रेमचंद ने पुरानी परंपराओं को तोड़ते हुए उस समय की
स्त्री-पराधीनता के कड़वे यथार्थ को चित्रित किया है। यह उपन्यास स्त्री जीवन के
संघर्षों की जटिलताओं को रेखांकित करता है, लेकिन जब इस पर
फिल्म बनती है तो वह उन जटिल बुनावट और ढोंगियों, पाखंडियों पर
धारदार प्रहार को सही तरीके से रखने में असफल हो जाती है। सेवासदन पर बनी फिल्म भी
नाच- गाने और सस्ते मनोरंजन वाली मामूली फिल्म बनकर रह गई। शुरू में प्रेमचंद इस
फिल्म को लेकर उत्साहित थे और उन्होंने इसको लेकर मुंबई (तब बंबई) में एक भाषण भी
दिया था। उन्हें शुरू में लगा था कि सेवासदन पर यदि फिल्म बनेगी तो लोगों पर इसका
अच्छा प्रभाव पड़ेगा,
लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इस फिल्म को
बनाने वाले नानूभाई वकील पहले से ही घटिया और सस्ते मनोरंजन वाली फिल्में बनाते
रहे थे और सेवासदन जैसे गंभीर उपन्यास पर वे अच्छी फिल्म नहीं बना पाए। दरअसल
प्रेमचंद के गंभीर और यथार्थवादी उपन्यासों पर फिल्म बनाना न उस समय उतना आसान था
और न अब है। उनके उपन्यास समाज की कड़वी सच्चाई को हूबहू प्रस्तुत करते रहे हैं और
कई फिल्म विश्लेषकों का मानना है कि उनकी यथार्थवादी कथाएं बहुत सिनेमैटिक नहीं
हैं। अनेक हिट फिल्मों के फार्मूले सुखांत, हास्य प्रधान या नाच-गाने से भरे ड्रामे रहे हैं और दूसरी ओर
प्रेमचंद की कहानियों-उपन्यासों में ऐसे हल्के मुद्दे न के बराबर रहे हैं।
यहां एक और तथ्य का
उल्लेख किया जाना जरूरी है। उन्हीं दिनों तमिल भाषा में सेवासदन उपन्यास पर फिल्म
बनी थी और इस फिल्म को बहुत स्तरीय फिल्म कहा गया था। के. सुब्रह्मण्यम के
निर्देशन में बनी इस फिल्म की खूब सराहना हुई थी और इसे मूल कहानी के साथ न्याय
करने वाली फिल्म कहा गया था।
प्रेमचंद के सबसे
चर्चित और प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' पर भी हिंदी फिल्म बनी, लेकिन वह उपन्यास
की श्रेष्ठता और और कलात्मकता को स्पर्श भी नहीं कर सकी। त्रिलोक जेतली के
निर्देशन में बनी फिल्म 'गोदान'
में राजकुमार और महमूद जैसे चर्चित
अभिनेताओं ने काम किया था,
लेकिन फिल्म चल नहीं पाई।
'गोदान' में खेतिहर और गरीब किसानों की समस्याओं को सामने रखा गया है। होरी, धनिया और गोबर जैसे पात्र आज भी हमारे गांवों- कस्बों में बिखरे
हैं। लेकिन सवाल यहां यह है कि इस उपन्यास पर एक अच्छी फिल्म क्यों नहीं बन सकी?
हां, कुछ वर्ष पहले गीतकार-फिल्मकार गुलजार ने दूरदर्शन के लिए 'गोदान'
पर जो धारावाहिक बनाया था, उसे निश्चित रूप से उल्लेखनीय कहा जा सकता है। होरी की भूमिका में
पंकज कपूर बहुत जंचे थे। 'गोदान'
टीवी श्रृंखला की खूब प्रशंसा हुई थी।
गुलजार ने दूरदर्शन के लिए 'तहरीर' नाम से जो धारावाहिक श्रृंखला बनाई थी उसमें प्रेमचंद की कई
कहानियां भी शामिल थीं। 'तहरीर'
की कई कहानियों के निर्देशन में
प्रेमचंद की शैली वाली कसावट की कमी भी महसूस हुई। 'ईदगाह' कहानी के अंत में प्रेमचंद जिस तरह पाठकों को चौंका कर रुला देते
हैं,
वैसा कमाल धारावाहिक नहीं कर सका।
कहानी के अंत में जब हामिद अपनी दादी को चिमटा सौंपता है, तो दादी एकदम से भावुक हो जाती है, लेकिन तहरीर के
धारावाहिक में ऐसा प्रभाव निर्देशक नहीं छोड़ पाते। इसके अलावा इससे पहले 'कर्मभूमि'
उपन्यास पर बने टीवी धारावाहिक को
लोगों ने खूब पसंद किया था।
बांग्ला फिल्मों के
सर्वश्रेष्ठ निर्देशक सत्यजीत रे ने हिंदी में प्रेमचंद की चर्चित कहानियों पर
उल्लेखनीय फिल्में बनाईं। प्रेमचंद की कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी' पर सत्यजीत रे की बनाई फिल्म को खूब सराहना मिली। इसकी कहानी के
साथ रे ने न्याय किया है,
पर इसके बावजूद उन्होंने कहानी के अंत
में बदलाव करने का जोखिम उठाया था। सत्यजीत रे के निर्देशन में बनी टेलीफिल्म 'सदगति'
की भी खूब चर्चा हुई।
1934 में जब प्रेमचंद मुंबई पहुंचकर अजंता सिनेटोन के लिए पटकथाएं लिख
रहे थे,
तब उनकी एक महत्वपूर्ण कहानी 'मजदूर'
पर इसी नाम से एक फिल्म बनी थी। इस
फिल्म की कहानी मजदूरों के संघर्ष और पूंजीपतियों के जुल्म को दर्शाती थी। इस
फिल्म की महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें कपड़ा मिल के मजदूरों की भी शूटिंग की गई
थी। प्रेमचंद भी अक्सर स्टूडियो आया जाया करते थे, लेकिन इसी दौरान एक
ऐसी घटना हो गई,
जिसका प्रभाव इस फिल्म के रिलीज पर
पड़ा। सेंसर बोर्ड के एक सदस्य ऐसे भी थे जो पूंजीपतियों और मिल मालिकों के
एसोसिएशन से भी जुड़े थे। वे इस फिल्म से तिलमिला गए और इसे पूंजीपति विरोधी करार
देकर इसे पास नहीं किया। हालांकि बाद में यह फिल्म पंजाब, दिल्ली और लाहौर आदि शहरों में रिलीज हुई, लेकिन कई विवादों में घिरी रही।
मोहन भवनानी के
निर्देशन में बनी 'मजदूर'
फिल्म के दौरान ही पहली बार प्रेमचंद
को फिल्मी दुनिया की चमक-दमक के पीछे छुपी हुई चालाकी से भी सामना हुआ। प्रेमचंद
ने इसी दौरान जाना कि फिल्मी जगत में लेखक कितना महत्वहीन प्राणी बनकर रह गया है।
उन्होंने देखा कि एक निर्देशक बिना लेखक से पूछे ही कहानी में मनमाने बदलाव कर
सकता है। इन सबके बावजूद इस फिल्म में प्रेमचंद अपनी बात कहने में सफल रहे
और फिल्म में उनके लेखकीय प्रभाव को नोटिस किया गया। पूंजीवादियों की पोल खोलती इस फिल्म में प्रेमचंद ने एक छोटी सी
भूमिका भी की थी।
निस्संदेह प्रेमचंद
भारतीय साहित्य के महान और महत्वपूर्ण रत्न हैं, पर सवाल यह भी है
कि क्यों आखिर इतने बड़े साहित्यकार की कहानी और उपन्यासों पर कालजयी फिल्में नहीं
बन पाईं?
कुछ तथ्य हैं जो इस
मुद्दे को समझने में हमारी मदद कर सकते हैं। प्रेमचंद जब फिल्मों में लिखने के लिए
मुंबई आये थे तो बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुए महज दो वर्ष ही हुए थे। इस संदर्भ
को लेकर इतना जरूर कहा जा सकता है कि बोलती फिल्मों की शुरुआत के वर्षों में
निर्देशक का अधिक ध्यान संवाद अदायगी पर ही केंद्रित था। यह हो सकता है कि फिल्मों
में बोलते पत्र को प्रभावशाली ढंग से या नाटकीय ढंग से दिखाने के चक्कर में कथा
सार को कम महत्व दिया गया हो। इसके अलावा जो दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है, वह यह है कि प्रेमचंद का साहित्य यथार्थ के ठोस धरातल पर टिका है। प्रेम की भावुकता और काल्पनिक नाटकीय
तत्व उनकी कहानियों के केंद्र में नहीं हैं। उनकी कथाओं के केंद्र में खेतिहर, गरीब किसान,
स्त्री और दलित रहे हैं, ऐसे में परंपरावादी और पुरुषवादी तबके के लिए इस तरह की फिल्में
रुचिकर न रहीं हों और इसी धारा में बहकर ज्यादातर फिल्मकार सस्ते मनोरंजन वाली
फिल्म पर ज्यादा ध्यान देते रहे हों।
बहरहाल, प्रेमचंद की कथाओं पर अब तो जरूर बेहतरीन फिल्में बननी चाहिए, क्योंकि कई निर्देशक यथार्थवादी फिल्मों में अपना लोहा मनवा चुके हैं।
अंत में इतना जरूर कहना चाहूंगा कि प्रेमचंद का साहित्य उनकी कृतियों पर बनी फिल्म
के हिट या सफल होने का मोहताज तो हरगिज नहीं है।
(नोट:
मित्र गुलज़ार हुसैन ने मुंबई के एसएनडीटी कॉलेज
में प्रेमचंद जयंती पर दिया गया भाषण विशेष आग्रह पर ब्लॉग के लिए लिपिबद्ध किया
है।)
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