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Showing posts from June, 2018

मूलाधार और अधिरचना में जाति-समस्या

(मज़दूर क्रांति के ध्येय को समर्पित एक बुजुर्ग साथी द्वारा तैयार करवाया गया पर्चा, बहस के लिए) भारत में जाति की समस्या कई दशकों से व्यापक चर्चा का विषय रही है। इस चर्चा में वामपंथी आंदोलन का भी हस्तक्षेप रहा है, खास कर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का। वामपंथी आन्दोलन में इस समस्या को लेकर एक लम्बे अरसे से विचार-मंथन चल रहा है। एक सैद्धान्तिक आन्दोलन होने के चलते जब कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन ने इसमें हस्तक्षेप किया और इस विषय पर विचार-मंथन शुरू किया तब यह स्वाभाविक ही था कि विषय पर वह व्यापकता और गहराई में जाकर विचार-विमर्श करें तथा इसका सांगोपांग अध्ययन करें और समाधान प्रस्तुत करें। जाति-व्यवस्था की उपस्थिति और समस्या के अन्तर्वस्तु एवं स्वरूप पर वामपंथी आन्दोलन में काफी हद तक एकता है। आन्दोलन एकमत है कि जाति-व्यवस्था भारतीय समाज का यथार्थ है। भारतीय इतिहास के खास कर ज्ञात इतिहास से लेकर भक्ति आन्दलोन तक के विचारकों तथा फुले, अम्बेडकर, पेरियार, लोहिया जैसे पुरोधाओं ने जाति-समस्या पर महत्वपूर्ण विमर्श किया और उसके उन्मूलन के लिए व्यावहारिक आन्दचोलनों को जन्म दिया...

शांतता! डायलॉगबाजी चालू आहे

"मैं अकेला नहीं है रे, अपुन का कंट्री का बड़ा-बड़ा लीडर लोक कू डायलॉग पसंद है।" पक्या उस अखबार के टुकड़े को, जिसमें बॉईल अंडे लाये गए थे, एक तरफ फेंकते हुए बोला। वह अपने पंटर अल्बर्ट के साथ आंटी के अड्डे पर बैठा पैग लगा रहा था। बैकग्राउंड में चिकनी चमेली टाइप के गाने चल रहे थे। अल्बर्ट जिसे चढ़ने लगी थी, बोला, "उसमें नया क्या है बॉस? अपुन बी तो डायलॉग का दीवाना है। अमिताभ बच्चन की हर फिल्म का हर डायलॉग अपुनको बायहार्ट याद है।" पक्या झल्लाते हुए बोला, "मैं फिल्मों के डायलॉग की बात नहीं किया रे...मैं बोलना चाहता था सोसाइटी में डायलॉग मस्ट है।" अल्बर्ट अपनी ही धुन में था। वह बोला, "बॉस, अपुन का सिदधी विनायक सोसाइटी का एनुअल फंक्शन में कितना लोक डायलॉग मारता है...." पक्या उसे काटते हुए बोला, "अरे मैं तेरा सोसाइटी का नहीं, सोसाइटी यानी समाज का बात कर रहेला था।"         अल्बर्ट, "ओह! सॉरी बॉस...मैं समझा नहीं था। पण बॉस, अगर तुमको बुरा न लगे तो एक बात बोले?" पक्या : बोल। अल्बर्ट: स्साला अपुन का समाज-विमाज में डायलॉग हो...

विक्रम बेताल 2020 में...

वर्ष 2020 की बात है। विक्रम बेताल को काँधे पर लिए अँधेरी रात में जंगल से जा रहे थे। सफ़र लम्बा था, सो बेताल ने एक कहानी सुनानी शुरू की: "पिछले साल का ही किस्सा है, राजन! एक देश में आम चुनाव हुए थे। एक तरफ महालोकप्रिय महाबली राजा नरेन्द्र और उनके बाहुबली सेनापति अमित थे। दूसरी तरफ कई बौने राजकुमारों जैसे राहुल, अखिलेश तथा तेजस्वी आदि थे। मायावती, ममता समेत कम्युनिस्ट, जिन्हें कोई पूछता नहीं था, भी विपक्ष के खेमे में थे। राजा नरेन्द्र के विरोध में होने के बावजूद सारे विपक्षी साथ में थे, ऐसा भी नहीं था क्योंकि अधिकांश की महत्वाकांक्षा खुद राजा बनने की थी।   ऐसे में तमाम टीवी एंकर और अखबारों के संपादक, राजनीतिक पंडित मुकाबले को एकतरफा मानकर ही चल रहे थे। ओपिनियन पोल भी यही कह रहे थे कि राजा नरेन्द्र और सेनापति अमित की पार्टी को हराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था। इनके पांच साल के शासन का थोड़ा बैकग्राउंड भी बता दूं। कोई बुरा काम नहीं किया था इन लोगों ने, बस नोटबैन और जीएसटी जैसे फैसलों से रोज़गार और कारोबार ठप्प कर दिया था। पेट्रोल-डीज़ल-रसोई गैस की बढती कीमतों को और जानलेवा महंगाई ...