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विक्रम बेताल 2020 में...


वर्ष 2020 की बात है। विक्रम बेताल को काँधे पर लिए अँधेरी रात में जंगल से जा रहे थे। सफ़र लम्बा था, सो बेताल ने एक कहानी सुनानी शुरू की:
"पिछले साल का ही किस्सा है, राजन! एक देश में आम चुनाव हुए थे। एक तरफ महालोकप्रिय महाबली राजा नरेन्द्र और उनके बाहुबली सेनापति अमित थे। दूसरी तरफ कई बौने राजकुमारों जैसे राहुल, अखिलेश तथा तेजस्वी आदि थे। मायावती, ममता समेत कम्युनिस्ट, जिन्हें कोई पूछता नहीं था, भी विपक्ष के खेमे में थे। राजा नरेन्द्र के विरोध में होने के बावजूद सारे विपक्षी साथ में थे, ऐसा भी नहीं था क्योंकि अधिकांश की महत्वाकांक्षा खुद राजा बनने की थी।  ऐसे में तमाम टीवी एंकर और अखबारों के संपादक, राजनीतिक पंडित मुकाबले को एकतरफा मानकर ही चल रहे थे। ओपिनियन पोल भी यही कह रहे थे कि राजा नरेन्द्र और सेनापति अमित की पार्टी को हराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था।
इनके पांच साल के शासन का थोड़ा बैकग्राउंड भी बता दूं। कोई बुरा काम नहीं किया था इन लोगों ने, बस नोटबैन और जीएसटी जैसे फैसलों से रोज़गार और कारोबार ठप्प कर दिया था। पेट्रोल-डीज़ल-रसोई गैस की बढती कीमतों को और जानलेवा महंगाई को रोक नहीं पाए थे। मंदिर-गाय की राजनीति के चलते देश का सांप्रदायिक माहौल थोड़ा तनावपूर्ण हो गया था और गौरक्षकों ने कुछेक जानें ले ली थीं। विदेशों से काला धन लाने, भ्रष्टाचार को समाप्त करने, हर साल दो करोड़ लोगों को रोज़गार देने, सबका साथ, सबका विकास और अच्छे दिन के चुनावी वायदे और नारे पूरे नहीं कर पाए थे। पूंजीवादियों के आगे समर्पण कर दिया था। पर बाकी सब ठीक था। यानी ऐसी कोई वजह नहीं थी कि वह लोग चुनाव हार जाते पर आश्चर्य समूची सरकारी मशीनरी, धनबल और कुशल चुनाव प्रबंधन डिग्रीधारी सेनापति होने के बावजूद उनकी पार्टी चुनाव हार गयी। अब तुम्हीं बताओ राजन, ऐसा कैसे और क्यों हुआ? अगर इस सवाल का जवाब तुमने जानकर भी नहीं दिया तो मैं तुम्हारी खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।"
विक्रम ने जवाब दिया, "लोकतंत्र में जनता का विश्वास जीतना मुश्किल नहीं है, उसे बनाये रखना मुश्किल है। कोई भी शासक जब जनता के मिले विश्वास का फायदा उठाता है, मनमानी करता है तो जनता के पास भी विकल्प है कि वह शासक के पैरों से सत्ता की कालीन खींच ले। दूसरी बात, सत्तारूढ़ पार्टी इस गुमान में रही कि जनता के पास कोई और विकल्प नहीं है पर महाबली और बाहुबली यह भूल गए कि एक बार जनता ने शासक को बदलने का संकल्प ले लिया तो फिर वह विकल्प की परवाह नहीं करती क्योंकि संकल्प का कोई विकल्प नहीं होता।"
विक्रम जैसे ही जवाब देकर चुप हुआ, बेताल ने कहा, "तुमने सही कहा राजन, पर तुम भूल गए कि तुम्हें बोलना नहीं था। तुम बोले कि मैं उड़ा!"
...और बेताल उड़कर वापस अपने पेड़ पर लटक गया।     

कोई नहीं जी! #16  -महेश राजपूत

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