एम. हामिद अंसारी
लेखक चूंकि लोगों के नज़रिए को प्रभावित करते हैं
और उनके विचारों को आकार देने में मदद करते हैं, इसलिए लेखकों की एक सामाजिक
जिम्मेदारी है. पाठक वर्ग उनके लेखन से ही उनके सामाजिक उद्देश्य, विवेक की गहराई
और भावनात्मक ईमानदारी को परखता है. इसीलिए उनका कार्य समकालीन सांस्कृतिक
आचार-विचार और राष्ट्रीय पहचान को प्रतिबिम्बित करता है और करना चाहिए.
इस तरह यह महत्वपूर्ण सवाल हमारे समक्ष आता है:
भारतीय राष्ट्रीय पहचान क्या है?
इस सवाल का जवाब देने के दो तरीके हो सकते हैं:
पहला निगमनात्मक होगा, तथ्यों अथवा अनुभव
से स्वतंत्र: दूसरा विवेचनात्मक होगा, तथ्यों और अनुभव पर आधारित. पहला स्वीकृत
परंपरा की अचूकता, समानता, एकरूपता, अखंडता की वकालत करता है. दूसरा ज़मीनी सच्चाई
पर आधारित विभिन्नता, विविधता, जटिलता को पहचानता है. यह स्वयंसिद्ध सत्य है कि
सभी नज़रियों को प्रत्यक्ष तथ्यों की कसौटी पर परखना होता है. तो भारत के सामाजिक
परिदृश्य की असल हकीकत क्या है?
भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण संकेत देता है कि
हमारी धरती पर शारीरिक बनावट, वेशभूषा, भाषा, पूजा के तरीकों, पेशे, खाने की आदतों
और रिश्तों के सन्दर्भ में विविधता लिए 4,635 समुदाय हैं. भारत का भाषाई सर्वेक्षण
संकेत देता है कि संविधान के आठवें शेड्यूल में की 22 भाषाओँ के अलावा देश में 100
और भाषाएं और हज़ारों बोलियाँ हैं.
नतीजतन, इतनी अलग सामाजिक और सांस्कृतिक
विशेषताओं वाले लोगों के साथ आने के कारण भारत की पहचान बहुलतावादी और विविध है.
यही बहुलता संविधान में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के ज़रिये अभिव्यक्त
भारतीय पहचान बनती है. यह कोई मेल्टिंग पॉट नहीं है क्योंकि हर तत्त्व अपनी अलग
पहचान बनाये रखता है. शायद यह एक सलाद बाउल है. जवाहरलाल नेहरु ने कहा था कि यह
पांडुलिपि है जिस पर बाद की पीढ़ियों की
छाप पहचाने न जाने वाले अंदाज़ में मिल गयी है.
इसी वजह से ही, भारतीय संस्कृति को एक स्थिर घटना
नहीं माना जा सकता, जो अपनी पहचान किसी एक अपरिवर्तनीय स्रोत में खोजती हो. वास्तव
में यह काफीक्रियाशील है और हर नयी बात को सूक्षमता और रचनात्मक तरीके से परखती
है.
यही सच है, क्या हम इसे एकरूप कर सकते हैं? क्या
हम स्वांगीकरण की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं? लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी
तत्व को कैसे दूसरे तत्व में मिलाया जा सकता है? क्या हम ऐसे भारत की कल्पना कर
सकते हैं जो गैर-लोकतान्त्रिक, गैरबहुलतावादी और गैर-धर्मनिरपेक्ष है?
तो फिर इस विविधता को एक काल्पनिक पहचान में
मिलाने करने की कोशिश क्यों की जा रही है? क्या इसका उद्देश्य विविधता को मिटाना,
उसे अधीन बनाना और उस पर प्रभुत्व कायम करना है और ऐसी काल्पनिक एकरूपता से बदलना
है जो इतिहास के ऐसे संस्करण पर आधारित है जो न तो भारत के अतीत के प्रमाणिक
रिकॉर्ड और न ही इसकी वर्तमान की समृद्ध विविधता से मेल खाता है?
वैकल्पिक रूप से हमारा रवैया उदार, बहुलतावाद और
धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों पर आधारित हो सकता है, जिसके तीन तत्त्व हों:
विविधता के साथ सक्रिय वचनबद्धता और समाज के सभी
तबकों, खासकर छात्रों को हमारे ढांचे के अनूठेपन और इसके फायदों के बारे में
बताना.
मात्र सहिष्णुता से आगे जाकर, असहमतियों और
भिन्नता को सक्रिय रूप से समझने की चाहत रखना और सामुदायिक असाम्यता को राष्ट्रीय
सुरक्षा के लिए खतरे के रूप में मानना, इससे ऐसे ही निबटना जैसे दूसरे ऐसे खतरों
से निबटा जाता है.
लगातार अंतर-सामुदायिक, अंतर-धार्मिक और
अंतर-सांस्कृतिक संवाद कायम रखना बोलने और सुनने की ऐसी प्रक्रिया जो समान समझ और
वास्तविक असहमतियों की पहचान करती हो.
इस तरह, इतिहास संघर्ष स्थल बन चुका है, यह अपनी
परिधि में उन सबको, खासकर लेखकों को, लेता
है जो मानवीय अनुभवों को दर्ज करते हैं और इनकी व्याख्या करते हैं नागरिकों के रूप
में वह इससे बेखबर नहीं रह सकते जो व्यवस्था में घट रहा है. अपनी चुनी कला के
प्रति समर्पित रहते हुए, उनकी सामाजिक जिम्मेदारी की ज़रुरत है कि वह लोगों को अपनी
कला से रास्ता दिखाएँ और अज्ञान, अंधविश्वास तथा अतार्किक पूर्वाग्रहों के ज़हरीले
कोहरे से बाहर निकालें और सुनिश्चित करें कि हमारी धर्मनिरपेक्ष संस्कृति और उदार
लोकतंत्र सुरक्षित रहे.
हम मुश्किल समय में जी रहे हैं. भारतीय संस्कृति
के अब तक के स्वीकृत आदर्शों को रीपॅकेज किया जा रहा है और तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है. उदार राष्ट्रवाद के
मूल्यों को अनुदार सिद्धांतों और गतिविधियों से बदलने की कोशिश की जा रही है जो
भारतीय संविधान की दी नागरिक स्वतंत्रताओं को नकारात्मक तरीके से प्रभावित कर रही
हैं. सभी नागरिक, खास कर वह जो अपने कार्य से जनता की सोच बदल सकते हैं, को इस
चुनौती का सामना करना होगा.
भारत में धार्मिक और दार्शनिक असहमति की और
सत्यता की बहु परम्पराओं को सामने लाने की प्राचीन परंपरा है. भारतीय तर्क करने
में गर्व महसूस करते हैं. बार-बार हमारे लेखकों ने प्रतिरोध के समूहगान लिखे हैं;
कईयों ने फैज़ अहमद फैज़ की कविता बोल में किये गए आह्वान के शब्दों को दोहराया है.
(नोट: भारत के पूर्व उप राष्ट्रपति ने यह भाषण प्रगतिशील लेखक संघ के
'राष्ट्रवाद और संस्कृति' विषय पर 28-29 अक्तूबर को चंडीगढ़ में आयोजित दो-दिवसीय
राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए दिया था.)
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