आम तौर पर मुझे जो फिल्म देखनी होती है, उसकी
समीक्षा नहीं पढ़ता और कल सुबह भी अखबारों में या नेट पर 'तुम्हारी सुल्लू' की
समीक्षा नहीं पढ़ी। वास्तव में खुद को बड़ी मुश्किल से रोका। फिल्म देखने के
बाद सोचा अच्छा किया।
मुंबई के सुदूर
उपनगर विरार में रहने वाली सुलोचना उर्फ सुल्लू से बिना उसके बारे में जाने मिलना
सुखद अनुभव रहा। एक निम्न-मध्यम वर्गीय शादीशुदा औरत, एक बच्चे की मां जो कुछ करना
चाहती है, क्या? उसे पता नहीं, पर कुछ तो करना चाहती है जो सिर्फ पति, बच्चे और घर
सँभालने से परे उसके अपने अस्तित्व को तलाशने में मदद करेगा। उसे लगता भी है कि वह
कर भी सकती है। बल्कि उसे पूरा-पूरा विश्वास है कि वह कर सकती है और वह कहती भी
है, "मैं कर सकती है!" मोहल्ले में मुंह से पकड़े चम्मच में नीम्बू रखकर
चलने की प्रतियोगिताएँ जीतने वाली सुल्लू एक रेडियो स्टेशन का एक कांटेस्ट जीतती
है और वहां रेडियो जॉकी के लिए इंटरव्यू का पोस्टर देखकर रेडियो स्टेशन वालों के
पीछे पड़ जाती है कि उसे एक चांस दिया जाए। वहां भी उसका सूत्र वाक्य यही है, 'मैं
कर सकती है।' आखिर उसे वह काम मिल भी जाता है। काम मिलने पर भी उसकी रेडियो स्टेशन की मालकिन के सामने यह स्वीकृति
'मैं ट्वेल्थ फेल है' गज़ब है (यह संवाद मुझे इसलिए भी छू गया कि मैं एफवायबीकॉम
फेल हूँ और पत्रकारिता में पहली बड़ी नौकरी मैंने यह बताकर ही हासिल की थी)। वह जो
भी करती है दिल से करती है और यही सुल्लू की खूबी है। सुल्लू का एक घरेलु महिला से
रेडियो जॉकी बनने का ट्रांसफॉर्मेशन स्मूथ है, गड़बड़ उसके बाद शुरू होती है, मेरे
कहने का मतलब फिल्म के साथ।
इंटरवल तक लगता
ही नहीं हम फिल्म देख रहे है, हम सुल्लू की सादगी और कुछ करने की उसकी तड़प तथा
अपनी ईमानदारी और जिद के बूते हासिल उसकी कामयाबी में पूरी तरह खोये रहते हैं।
इंटरवल के बाद लेकिन सुल्लू के परिवार में जो 'कनफ्लिक्ट' है मैन्युफैक्चर्ड लगता
है. पति अशोक की नौकरी में नए बॉस के आने से उपजी समस्या, स्कूल में बेटे की
समस्या। यह सब सुल्लू को उसी दोराहे पर लाकर खड़ा कर देता है कि वह अपनी
'जिम्मेदारियां' संभाले या अपने 'कुछ' करने के सपने, जो लगभग साकार हो चुका है, को
जीना जारी रखे।
मर्द में
'असुरक्षा' वाला एंगल दशकों पहले 'अभिमान' में बेहद ख़ूबसूरती से पेश किया जा चुका
है, हमें उससे आगे बढ़ना चाहिए। मेरे ख्याल से अब हमें इस मामले में भी अपनी सोच
को बदलना चाहिए कि औरत को कुछ करने के लिए किसी मर्द की इजाजत या सहमति, चाहे वह
उसका पति ही क्यों न हो, की ज़रुरत है। हालांकि फिल्म में सुलू के पति का कुछ हद तक किरदार सुलझा हुआ है और वह पत्नी के फैसलों का विरोध नहीं करता पर उसमें कहीं न कहीं यह भाव ज़रूर है कि पत्नी को जो करना चाहिए, पूछकर करना चाहिए। फिल्म में एक दृश्य है जिसमें सुल्लू
सुपरमैन की तरह उड़ती है, समय आ गया है औरत को अपने पंख खोलकर उड़ना चाहिए और इसके
लिए उसके परिवार (पिता, भाई, पति, पुत्र
समेत) की इजाजत हो या न हो। इसके अलावा सुल्लू जब रेडियो पर जो लेट नाईट
शो संचालित करती है, मुख्य रूप से 'एगनी आंट' की तरह का शो है तो उसे और
एक्स्प्लोर करना चाहिए था, वह ज्यादा दिलचस्प होता। उसे निर्देशक (सुरेश त्रिवेणी) ने बस निबटा दिया
है। खैर, इस सबके बावजूद 'तुम्हारी सुल्लू' एक बार ज़रूर देखने लायक है, कारण,
ऑफकोर्स, विद्या बालन है हालांकि उसके साथ-साथ पति अशोक के रूप में मानव कौल,
रेडियो स्टेशन की बॉस के रूप में नेहा धूपिया समेत लगभग सभी कलाकारों का अभिनय
शानदार है और संवाद, खासकर इंटरवल तक, बेहद चुटीले हैं। मुंह लगाने वाला संवाद बेहद मजेदार है। इंटरवल से पहले कई सिचुएशन बढ़िया हैं।
-महेश राजपूत
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