वैसे तो मैं भी चोरी
करना पाप मानता हूँ पर चूंकि यह जानने की उत्सुकता हमेशा मन में रही है कि एक भक्त
के दिमाग में क्या चलता है, इसलिए मौका मिला तो मैं खुद को रोक नहीं पाया और एक
भक्त (जो एक टीवी न्यूज़ चैनल में काम करता
है) की डायरी चुरा ली। यहाँ पेश है उसकी अप्रैल महीने में की गयी कुछ एंट्रीज़,
विशेष 'बैठे-ठाले' के पाठकों के लिए:
01 अप्रैल
आज एक अजीब किस्सा
हो गया। मैंने जब ऑफिस में प्रवेश किया तो मेरे कुछ साथी जो किसी बात पर 'हो-हो' कर
हंस रहे थे, मुझे देखते ही चुप हो गए। मैं समझ गया वह मेरे बारे में ही कुछ बात कर
रहे होंगे और हंस रहे होंगे। फिर याद आया कि आज अप्रैल फूल डे है और मेरे ऑफिस में
कुछ कुलीग ऐसे 'देश-द्रोही' हैं जिनकी राय में 'भक्त' और 'मूर्ख' में कोई अंतर
नहीं है इसलिए मेरे पीछे मुझ पर हंस रहे होंगे। शिट! मैं भी क्या-क्या सोच लेता
हूँ। कभी मुझे किसी ने भक्त कहा तो नहीं है और न ही मैं उनके सामने पीएम की तारीफ़
करता हूँ, फिर भला वह क्यों मुझे भक्त मानेंगे? मैंने बड़ी मुश्किल से नकारात्मक
विचार अपने मन से निकाले और अपने डेस्क पर जाकर काम करने लगा।
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12 अप्रैल
यह उन्नाव और कठुआ
के मामलों पर बड़ा बवाल हो गया है। उन्नाव में एक माननीय विधायक पर बलात्कार का
आरोप! न्याय की गुहार लगाने पर पीडिता के पिता को ही सलाखों के पीछे डाल दिया! फिर
हिरासत में मौत! उधर कठुआ में एक आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या! दोनों
घटनाएं शर्मनाक हैं! बच्ची के साथ घटी घटना की निंदा तो हर किसी को करनी चाहिए पर
बच्ची के मुस्लिम होने और आरोपियों के हिन्दू होने को क्यों उछाला जा रहा है? ऑफिस
में इस मुद्दे पर बहुत बहस हो रही है। मैं तो चुप ही रहता हूँ। मैं मानता हूँ जो
हुआ गलत हुआ। पर इस पहलु को क्यों हाईलाइट किया जाए कि जो हुआ एक देवस्थान में
हुआ? मैं मानता हूँ आरोपियों के समर्थन में हमारी पार्टी के मंत्रियों का रैली में
शामिल होना गलत है। तिरंगे के साथ प्रदर्शन का तो कतई बचाव नहीं किया जा सकता।
वकीलों का चार्जशीट फाइल होने देने में अड़ंगे डालना भी गलत है पर मैं यह भी मानता
इस संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। पीएम बोलें तो स्थिति स्पष्ट हो!
पीएम बोल क्यों नहीं रहे हैं? मीडिया मज़ाक उड़ा रहा है उनका! मेरे से बर्दाश्त नहीं
हो रहा! क्या करूं?
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14 अप्रैल
पिछले कुछ दिनों से
मन खराब रहा। सुप्रीम कोर्ट के एससी/एसटी एक्ट के बारे में एक फैसले को लेकर दो
अप्रैल को दलितों ने भारत बंद किया था। देश के कुछ हिस्सों में हिंसा हुई। हिंसा
बहुत बुरी बात है! नौ लोगों के मारे जाने की भी खबर है। अफ़सोस तो होता है। हमारे
पीएम दिन में बीस-बीस घंटे काम करते हैं देश के विकास के लिए और इन लोगों को कोई
काम ही नहीं है! आखिर इन लोगों को शिकायत क्या है? एक कानून में थोड़ा सा बदलाव ही
तो किया गया है! उस पर इतना बवाल! आरक्षण पहले से समस्या बना हुआ है! हम मेरिट के
पेट्रोल के बूते देश की गाड़ी टॉप गियर में चलाना चाहते हैं और वह गाड़ी को रिज़र्व
में ही रखना चाहते हैं। हम आंबेडकर का
कितना सम्मान करते हैं। जगह-जगह स्थापित उनकी प्रतिमाओं की सुरक्षा के लिए हम
पिंजरे तक बनाते हैं (उस पर भी बवाल होता है), प्रतिमाओं का रंग-रोगन करते हैं तो
उससे भी उनके अनुयायियों को प्रॉब्लम होती है। अरे भाई, उन्हें भगवा कपडे पहनाये
तो कौन सी आफत आ गयी? उनके शरीर पर नीले रंग का एक ही सूट देख-देख कर क्या आप उकता
नहीं गए हैं?
अब देखिये न, आज ही देश
भर में हमने आंबेडकर जयंती मनाई। सरकार कितना खर्च करती है ऐसे आयोजनों पर। मीडिया
में विज्ञापन देने से लेकर जगह-जगह कार्यक्रमों का आयोजन। पीएम से लेकर हमारी
सरकारों के मुख्यमंत्री, मंत्री कार्यक्रमों में शामिल होते हैं। आंबेडकर की
प्रतिमाएं, स्मारक बनाने समेत विभिन्न योजनाओं की घोषणाएं करते हैं (खाली घोषणाएं
ही नहीं करते उनमें से कुछ योजनाओं पर अमल भी किया जाता है)। और क्या करें? कितना
करें?
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30 अप्रैल
बहुत चाहा कि बिप्लब
देव के बारे में न लिखूं पर यह बंदा तो हद ही कर रहा है। दफ्तर में सब मुझे देखकर
उनके किसी न किसी बयान का ज़िक्र कर घेरने की कोशिश करते हैं। मैं कहाँ तक उन्हें
डिफेंड करूं? कम ऑन! महाभारत के समय में इंटरनेट? भारत के कोने-कोने में बिजली तो
अभी पहुंची है, इंटरनेट कहाँ से होगी? काहे से चलती होगी? मज़ाक बना दिया है। "नौकरी के लिए नेताओं के पीछे मत भागो, पान की
दूकान लगाओ! गाय पालो!"
बस अब मूत में मछलियाँ पालने की सलाह देना बाकी
है! अभी उस दिन मैं ऑफिस पहुंचा तो टीवी पर उन्हीं की न्यूज़ चल रही थी। एक साथी ने
कहा, "मानना पड़ेगा, बंदा प्राइम मिनिस्टर मटेरियल है!" दूसरे ने कहा,
"बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुभानअल्लाह!" तीसरे ने कहा,
"अरे जब इनके बॉस गणेश के ज़माने में प्लास्टिक सर्जरी होने की बात कहते हैं,
महाभारत काल में जेनेरिक साइंस होने की बात कहते हैं, तो इनका मज़ाक क्यों उड़ा रहे
हो? बेचारे को इतना हक़ तो बनता ही है!" मैं तो शर्म से पानी-पानी हो गया!
मुझे उस समय लगा काश! स्टूडियो का फ्लोर फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं!
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पर जाहिर है
स्टूडियो का फ्लोर नहीं फटा और यह भक्त उस रोज़ डायरी लिख पाया। मुझे तो उससे
सहानुभूति है, आपको?
कोई नहीं जी! #14
महेश राजपूत
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