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तुमको हमारी नज़र लग जाए!


नज़र लगने का 'कांसेप्ट' कभी मेरी समझ में नहीं आया! ऑफिस में पढ़े-लिखे सहयोगी भी अक्सर छींक आने से लेकर बुखार हो जाने पर कह देते हैं, "लगता है किसीकी नज़र लग गयी!" पर यह नज़र लगना होता क्या है? असल में इसकी जड़ में 'हैव्स" की 'हैव्स नॉट' के प्रति हीन भावना, असुरक्षा की भावना है। दरअसल आपके पास जो भी होता है, जो अपनी समझ के अनुसार आपने चाहे अपनी काबिलियत के बल पर हासिल किया हो या ऐसे ही मिल गया हो, आपको लगता है कि वह लोग जिनके पास वह नहीं है, आपसे जलते हैं। मन ही मन वह चाहते हैं कि आपसे यह छिन जाए। हालाँकि यह भी सच है कि किसीके चाहने भर से किसीका कुछ होता-जाता नहीं है। बद्दुआ एक कमज़ोर व्यक्ति का लड़ाई हार जाने पर आखिरी हथियार है। वह यही सोचकर सब्र कर लेता है, "मुझ पर अन्याय करने वाले का मैं कुछ नहीं बिगाड़ सका तो क्या, भगवान्/खुदा/गॉड या कहें कुदरत उसे सबक सिखाएगी।" ऐसा कुछ नहीं होता। पर फिर भी आश्चर्यजनक रूप से अगर लोग "गरीब की हाय" या "किसीकी बद्दुआ" से डरते हैं तो इसके पीछे उनका अपराध बोध होता है कि उन्होंने सामने वाले के साथ कुछ गलत किया है, उसका शोषण किया है, उससे बेईमानी की है, उसकी कमजोरी का फायदा उठाया है और वह चूंकि धर्मभीरु होते हैं इसलिए डरते हैं। ऐसे में यदि उनके साथ कुछ भी अनहोनी होती है, अप्रिय होता है, उसका भले कोई सम्बन्ध हो या नहीं, वह सीधे उसे उस व्यक्ति/उन व्यक्तियों की बद्दुआ से जोड़ लेते हैं जिसके प्रति उन्होंने अन्याय किया है। हालांकि इसके बाद ऐसा नहीं होता कि वह सुधर जाते हैं, या किसीके प्रति किये गलत को सही करते हैं बल्कि इसकी काट के रूप में वह कुछ धार्मिक कार्य कर, मामूली दान-चंदा देकर और पवित्र मानी जाने वाली अस्वच्छ नदियों में डुबकी लगा कर अपने 'पापों' को धोने की कोशिश करते हैं। यह अलग बात है कि 'पाप' कभी धुलते नहीं हैं, अभी ऐसा कोई वाशिंग पाउडर या साबुन नहीं बना जो किसीके 'पाप' धो सके।
खैर बात नज़र लगने की हो रही थी। लोग इतना डरते हैं कि खाना तक छुपाकर खाते हैं। वह यह मानकर चलते हैं कि ऐसे लोग जिन्हें खाना नसीब नहीं है या उनके जैसा बढ़िया भोजन नसीब नहीं है, वह उन्हें ईर्ष्या भरी नज़र से देखेगा और उन्हें नज़र लग जायेगी। बच्चों को काला टीका लगाने के पीछे भी यही भावना है! लोग मानकर चलते हैं कि वह नसीबवान हैं कि उनके बेटा या सुंदर बेटी है, उन्हें बदनसीब दुनिया (खासकर बिना बच्चों वालों या कुरूप बच्चों वाले, हालांकि कोई कुरूप या सुन्दर होता नहीं है, यह सब भी हमारी नजर का लोचा है) की बुरी नज़रों से बचाना होगा। कभी-कभी तो लगता है कि यह नज़र लगने के कांसेप्ट को प्रमोट शनिवार को नीम्बू-मिर्ची का धंधा करने वालों के हित में किया हुआ है। सब नसीबवानों के घरों, दूकानों से लेकर पचास हज़ार की स्कूटी जैसे वाहनों पर भी बदनसीबों की नज़र न लगने के लिए नीम्बू-मिर्च लटके देखे हैं
यानी यह मामला 'नसीबवान' और 'बदनसीबों' के बीच का है, पर अगेन नसीब, लक, किस्मत जैसी कोई चीज़ नहीं होती। यह सारे शब्द शोषकों ने बनाए हुए हैं शोषितों को लूटने के लिए, ठगने के लिए, उन पर शासन करने के लिए और अधिकांश शोषित अपने शोषकों के इस जाल में फंस भी गए हैं। इसीलिए अपनी हर समस्या के लिए वह अपनी 'फूटी किस्मत' को दोष देते हैं और शोषक अपनी लूट की कमाई का श्रेय अपने 'किस्मत के धनी' होने को देते हैं। यहाँ हमारे पीएम के एक कथन का उदाहरण देना आउट ऑफ़ लाइन नहीं होगा, जब उन्होंने कहा था, "मेरे नसीब से पेट्रोल के दाम सस्ते हुए हैं।" अब जब पेट्रोल के भाव पिछले पन्द्रह दिनों से लगाता चढ़ रहे हैं तो पीएम चुप हैं। कहेंगे भी क्या? यह तो कह नहीं सकते कि भाव जनता की फूटी किस्मत के कारण चढ़ रहे हैं.
विषयांतर तो नहीं हो रहा? चलिए ख़त्म ही कर देता हूँ। शीर्षक में इस्तेमाल गीत की मूल पंक्ति है 'तुमको हमारी उमर लग जाए...' अब अगर बोलने से किसीको हमारी उमर या नज़र लग जाती तो मैं यहाँ सभी 'हैव नॉट्स' की तरफ से सारे 'हैव्स' को कहना चाहूंगा, "तुमको हमारी नज़र लग जाए!"

#कुछ भी - महेश राजपूत        
      

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