प्रस्तावना लेखन हर-हमेशा से ही आग से खेलना रहा है। आप अभिव्यक्ति के लिए जिस भी विधा का चुनाव करें- वस्तुतः खतरों को ही आमंत्रित करते रहते हैं। अगर आपकी कलम व्यवस्था को समर्पित है , तो आप चिकनी-चुपड़ी रोटी का आनंद लेते हुए भी खतरे को आमंत्रण दे चुके होते हैं , क्योंकि एक दौर के खत्म हो जाने के बाद ऐसा बखत जरूर आता है , चाहे आपके रहते में आए या बाद में , जब कभी आप समीक्षण की जद में आते हैं , आप खुद का नाम मिट्टी में मिला हुआ पाते हैं। दूसरा रास्ता है जनपक्ष का। व्यवस्था के खिलाफ कलमगीरी का। यह तरीका सृजन के शुरूआती हर्फ से ही आपको एक दहकते फर्नेस में धकेल देता है। ज्यादातर विधाओं में शब्दजाल इस कदर सुनहरे होते हैं कि पाठक उसकी कुंदनी चमक में उलझकर रह जाते हैं और सृजनहार सीधी दुश्मनी पाले बिगर साफ बचकर साफ निकल जाता है। व्यंग्य में ऐसा नहीं चलता। यह नंगी हथेली पर अंगार रखने का पराक्रम है। आप को किसी को राखड़ करने के पहले स्वयं को भस्मीभूत करना होता है। एक समर्थ व्यंग्यकार दुश्मनों के बीच ही पलता है , विरोध में पनपता है। अभिमन्यु की तरह वह खुद को चक्रव्यूह के बीच सायास ले जाता है। वह ...