प्रस्तावना
लेखन हर-हमेशा से ही आग से खेलना रहा है। आप अभिव्यक्ति के लिए जिस भी विधा का चुनाव करें- वस्तुतः खतरों को ही आमंत्रित करते रहते हैं। अगर आपकी कलम व्यवस्था को समर्पित है, तो आप चिकनी-चुपड़ी रोटी का आनंद लेते हुए भी खतरे को आमंत्रण दे चुके होते हैं, क्योंकि एक दौर के खत्म हो जाने के बाद ऐसा बखत जरूर आता है, चाहे आपके रहते में आए या बाद में, जब कभी आप समीक्षण की जद में आते हैं, आप खुद का नाम मिट्टी में मिला हुआ पाते हैं। दूसरा रास्ता है जनपक्ष का। व्यवस्था के खिलाफ कलमगीरी का। यह तरीका सृजन के शुरूआती हर्फ से ही आपको एक दहकते फर्नेस में धकेल देता है। ज्यादातर विधाओं में शब्दजाल इस कदर सुनहरे होते हैं कि पाठक उसकी कुंदनी चमक में उलझकर रह जाते हैं और सृजनहार सीधी दुश्मनी पाले बिगर साफ बचकर साफ निकल जाता है।
व्यंग्य में ऐसा नहीं चलता। यह नंगी हथेली पर अंगार रखने का पराक्रम है। आप को किसी को राखड़ करने के पहले स्वयं को भस्मीभूत करना होता है। एक समर्थ व्यंग्यकार दुश्मनों के बीच ही पलता है, विरोध में पनपता है। अभिमन्यु की तरह वह खुद को चक्रव्यूह के बीच सायास ले जाता है। वह परवाह नहीं करता कि उसे बाहर निकलने का मार्ग और तरीका ज्ञात नहीं, क्योंकि वह लौटने के लिए आया ही नहीं होता। विरोधियों की तलवारों के बीच ही वह अपनी साधना-स्थली का निर्माण करता है।
महेश राजपूत इसी तासीर के व्यंग्यकार हैं। उनका लेखन रोजमर्रा की घटनाओं के बीच से रास्ता बनाता हुआ अपने क्षितिज को विस्तारित करता जाता है। पत्रकारिता से महेश केवल जीवन निर्वाह नहीं करते, बल्कि उसी कछार से अपने लेखन की उपजाऊ मिट्टी भी उठा लाते हैं। उनकी विशेषता यह है कि ताज़ातरीन घटनाक्रम को ही वे ज्यादातर अपनी विषयवस्तु बनाते हैं। रोज़ के अखबार के कॉलमों के बीच की संकरी-सी जगह में फंसे बीजों को वे सहेजकर चुन लाते हैं। अपने विन्यास की माटी में रोपते हैं, विचारों के खाद-पानी से पोसते हैं और देखते ही देखते उन बीजों को समग्र दर्शन का वृक्ष बनाते हैं।
यों तो अभिव्यक्ति के खतरे हर रचनाकार के सिर पर मंडराते रहते हैं, और किसी भी व्यंग्यकार के नसीब में तो ये कुछ ज्यादा ही होते हैं, पर महेश के व्यंग्य को ध्यान व धैर्य से पढ़ें तो आप पाएंगे कि वे खतरों को बाकायदा आमंत्रित करते हैं। ललकारते हैं। उड़ती-उड़ती बातें करना, हवा-हवाई अभिव्यक्ति या दुलारभरे हाथों का स्पर्श करने में उनका यकीन नहीं है। वे ज़माने की तिरछी चाल को बड़ी कठोरता से डील करते हैं। किसी की नंगई को उघाड़ने में उन्हें वक्त नहीं लगता। ऐसे वक्त में जब साहित्य की बारीकियां व उसकी नफ़ासत को समझने वाले कम रह गये हैं, यह खतरा पहले से कई गुने बढ़कर है। आपको खारिज करने या आवाज़ को दाबने वाले तत्व जैसे लामबन्द व ताकतवर हो गए हैं, वे आपको निष्क्रिय करने में सक्षम हैं। महेश बेपरवाह हैं।
महेश की एक बात निराली है। विक्रमादित्य के दरबार में न्यायदान में चूक हो सकती है और कोई अपराधी बचकर निकल सकता है, पर महेश के व्यंग्य-घाट पर धोबी-सा न्याय होता है। उनके द्वारा घर-घर से एकत्र किये गये मैले-गंदले कपड़ों की गठरियां खुलती हैं, और बगैर यह देखे कि कौन-सा कपड़ा किस घर का है, सभी को एक-सी निर्ममता से पटक-पटककर धोया जाता है। उनका उद्देश्य यही होता है कि मैल छूटे और समाज के तन पर उजले वस्त्र दीखें।
महेश का यह धोबी कर्म लंबे समय से जारी है। वे जानते हैं कि हमारे समाज पर विद्रूपताओं, विडंबनाओं, विसंगतियों की जो मैली परतें जमी हुई हैं, वे हल्के हाथों से थपथपाने से जाने वाली नहीं। इसके लिए व्यंग्य की थापी ही काम आएगी। जमकर पटकते हैं वे, इस बात की चिंता किये बगैर कि इसकी आवाज़ से मैल फैलाने वाले उनके खिलाफ हो जायेंगे।
महेश का राजनैतिक-सामाजिक दृष्टिकोण अत्यंत परिपक्व है। लोकतांत्रिक और मानवीय। यह उनके लेखन में साफ नज़र आता है। जनविरोधी विचार और कृत्य अपने आप उनकी कलम के नीचे आ जाते हैं। पक्षपातरहित होकर वे सबके खिलाफ तन जाते हैं। सर्वहारा के पक्ष में वे अपनी कलम बड़ी मजबूती से अड़ा देते हैं। उनके लेखन की बानगी है कि वे किसी भी राजनैतिक विचारधारा, दल या खेमे का हिस्सा नहीं बनते। सीकरी की दौड़ में अपनी पनिहा नहीं घिसते। राजपथ उन्हें नहीं सुहाता। वे जनपथ के राही हैं।
कथावस्तु व प्रसंगानुकूल उनकी भाषा प्रवाहमयी तो है ही, प्रहारक भी है जो लक्ष्य का कुशलता से संधान करती है।
मुझ जैसे अनेक लोगों के लिए उनके व्यंग्य को पहले ब्लॉग में, फिर फेसबुक पर टुकड़ों में पढ़ना रचनात्मक अनुभव तो रहता ही है, वह हमें एक अनवरत लड़ाई के लिए सतत जागृत भी रखता है। समाज को प्रगतिशील, सर्वस्पर्शी और संविधानसम्मत बनाने के लिए बिगर डगमग हुए लिखे गये उनके व्यंग्य लेखों को प्रस्तावना लिखने के नाम से ही सही, समग्र रूप से पढ़ना मेरे अपने वैचारिक धरातल को उच्चतर करना साबित हुआ है। मेरा विश्वास है कि यह व्यंग्य संग्रह महेश के सामाजिक सरोकारों और संस्कारों को समेकित रूप से समझने में मदद करेगा। एक दुर्गम काल में जब सारे दर्शन उलझे हों, मान्यताएं बिखर रही हों और सांस्कृतिक आघात गहनतर हों, महेश को पढ़ना अपने मानवतावादी नजरिये को विकसित करने और विश्वासों को बल देने जैसा है। वे हमें एक लंबे चलने वाले राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष में उतरने की प्रेरणा देते हैं। वैचारिक रूप से सशक्त बनाते हैं। यह महेश का बड़ा अवदान है।
शुभकामनाएं।
2 अक्टूबर, 2018 -डॉ. दीपक पाचपोर
(Note : This write-up was written as foreword for recently-released e-book 'Kabhi Fakir! Kabhi Chowkidar!', a collection of political satires and which is available on on www.notnul.com)
दीपक जी की अर्थपूर्ण प्रस्तावना व्यंग्य-संग्रह को पूर्णता दे रही है। बधाइयाँ! 💐💐
ReplyDeleteशुक्रिया, विजयजी।
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