(ठिठुरती रात थी। फासीवाद ने लोकतंत्र के दरवाजे पर दस्तक दी।)
लोकतंत्र : (अंदर से) कौन है?
फासीवाद : मैं फासीवाद।
लोकतंत्र : क्या चाहिए?
फासीवाद : बहुत ठंड है, दो घड़ी तुम्हारे घर बिताना चाहता हूं।
लोकतंत्र : बस, दो घड़ी?
फासीवाद : हां, यार। क्या सारी बातें अंदर बैठे-बैठे करोगे?
(लोकतंत्र ने दरवाजा खोल दिया। फासीवाद अंदर जाकर कार्पोरेट के नरम लेकिन गरम सोफे पर बैठ गया।)
फासीवाद : (सेटल होने के बाद) बहुत हालत खराब है भाई। थोड़ी दया करो।
(लोकतंत्र पसीजने लगा। बहुत समय नहीं हुआ जब साम्राज्यवाद को ‘तड़ीपार‘ करने के बाद फासीवाद को भी घरनिकाला दिया गया था। फासीवाद के शरीर पर न के बराबर कपड़े थे जबकि लोकतंत्र समाजवाद की जैकेट, सर्वधर्म समभाव का मफलर और न्याय की टोपी आदि पहने था। सब पर प्रायोजक पूंजीवादी कंपनियों के लेबल लगे हुए थे।)
लोकतंत्र : क्या चाहिए?
फासीवाद : मफलर दे देते तो मेहरबानी होती
(लोकतंत्र ने दे दिया। बाद में धीरे-धीरे फासीवाद ने लोकतंत्र को इमोशनल ब्लैकमेल कर जैकेट और टोपी भी ले ली। अब लोकतंत्र खुद ठिठुरने लगा। पर करता क्या उसने फासीवाद को घर में प्रवेश कराकर खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली थी। अचानक फासीवाद ने नई फरमाइश की।)
फासीवाद : बाहर मेरी (कु)प्रचार की रम रह गई है, जरा ले आओगे। दोनों मिलकर पिएंगे।
(लोकतंत्र उठा और बाहर गया। पर, यह क्या जैसे ही उसने दरवाजा पार किया, फासीवाद ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। अब लोकतंत्र दरवाजा खटखटाने लगा। पर फासीवाद को क्या पागल कुत्ते ने काटा था जो दरवाजा खोलता। नतीजतन, अब लोकतंत्र बाहर ठिठुर रहा है और फासीवाद अंदर ठंडी में भी गर्मी के अहसास के मजे ले रहा है।)
#कोई नहीं जी! -महेश राजपूत
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