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नरक में मोहलत (कहानी)



 

-प्रणव प्रियदर्शी
घर से निकलते समय ही अनिता ने कहा था, ‘बात अगर सिर्फ हम दोनों की होती तो चिंता नहीं थी। एक शाम खाकर भी काम चल जाता। लेकिन अब तो यह भी है। इसके लिए तो सोचना ही पड़ेगा।’ उसका इशारा उस बच्चीकी ओर था जिसे अभी आठ महीने भी पूरे नहीं हुए हैं। वह घुटनों के बल चलते, मुस्कुराते, न समझ में आने लायक कुछ शब्द बोलते उसी की ओर बढ़ी चली आ रही थी। अनिता के स्वर में झलकती चिंता को एक तरफ करके अशोक ने बच्ची को उठा लिया और उसका मुंह चूमते हुए पत्नी अनिता से कहा, ‘बात तुम्हारी सही है। अब इसकी खुशी से ज्यादा बड़ा तो नहीं हो सकता न अपना ईगो। फिक्कर नॉट। इस्तीफा वगैरह कुछ नहीं होगा। जो भी रास्ता निकलेगा, उसे मंजूर कर लूंगा, ऐसा भी क्या है।’
बच्ची को गोद से उतार, पत्नी के गाल थपथपाता हुआ वह दरवाजे से निकल पड़ा ऑफिस के लिए। इरादा बिल्कुल वही था जैसा उसने अनिता से कहा था। लेकिन अपने मिजाज का क्या करे। एक बार जब दिमाग भन्ना जाता है तो कुछ आगा-पीछा सोचने के काबिल कहां रहने देता है उसे। 
मामला दरअसल वेतन वृद्धि का था। अखबार का मुंबई संस्करण शुरू करते हुए सीएमडी साहब ने, जो इस ग्रुप के मालिक ही नहीं, एक बड़े कारोबारी और सत्ताधारी पार्टी से जुड़े दबंग नेता भी हैं, सभी कर्मचारियों को पर्सनली भरोसा दिलाते हुए कहा था, ‘आप सब पूरे मन से काम करिए, छह महीने के अंदर सैलरी में डेढ़ गुना बढ़ोतरी तय है।’
उस छह महीने को एक साल से ज्यादा हो चुके हैं। डेढ़ गुना तो दूर कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है किसी की सैलरी में। जबकि स्टाफ ने अपना काम अच्छे से किया। बारिश के दौरान जब लोकल बंद थी, तब भी सारे स्टाफ पटरी पर चलते हुए भी ऑफिस पहुंचे थे। एक दिन तो शिवसेना ने मुंबई बंद आयोजित की थी। राह चलते पत्थर पड़ने का खतरा मोल लेकर भी नब्बे फीसदी स्टाफ ऑफिस पहुंच गया था। सिर्फ रिपोर्टर्स और सब एडिटर्स नहीं, कंप्यूटर ऑपरेटर से लेकर पेजिनेशन आर्टिस्ट तक, सभी पहुंचे थे। नया अखबार है, इसे जमाना है। यह भावना सभी स्टाफ के मन में आ गई थी। इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ था संपादक प्रमोद जी का। रिस्क लेकर ताकतवर लोगों के खिलाफ खबरें छापने का उनका जज्बा ऐसा था कि उनके आसपास मौजूद कोई भी शख्स उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। उन्हीं की बदौलत अखबार से जुड़े हर व्यक्ति को ऐसा लगता था जैसे वह एक बड़ा काम कर रहा है।
सबको धक्का तब लगा, जब पिछले महीने अचानक एक दिन पता चला कि प्रमोद जी ने इस्तीफा दे दिया है। खुद सीएमडी साहब ने ऑफिस आकर स्टाफ मीटिंग में सबको यह सूचना दी कि ‘प्रमोदजी के साथ कुछ पर्सनल ईशूज हैं। वे अब कन्टिन्यू नहीं कर पाएंगे। उन्हें अखबार की चिंता थी, लेकिन मैंने उन्हें आश्वस्त किया। अशोक जी हैं, आप सब हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि हम सब मिलकर इसे वैसे ही चलाएंगे जैसे अब तक चलाते रहे हैं।’
अशोक भी सोच में पड़ गया। ऐसा कौन सा पर्सनल ईशू आ गया प्रमोद जी की लाइफ में अचानक जिसके बारे में उन्होंने कल तक उससे भी कुछ शेयर नहीं किया। सवाल सबके मन में थे, पर वहां किसी ने कुछ नहीं कहा। अशोक को मालूम था कि चाय-सिगरेट की दुकान पर बारी-बारी पहुंचने वाले छोटे-छोटे ग्रुप में चर्चा यही हो रही होगी। पर उसने सोचा कि जब तक पक्के तौर पर कुछ मालूम न हो जाए, तब तक गॉसिप को बढ़ावा देना ठीक नहीं। सो उसने किसी से इस बारे में कोई बात नहीं की। 
अखबार के प्रिंट लाइन में अब संपादक के रूप में सीएमडी का नाम जाने लगा था। रोज के कामकाज में अशोक का फैसला अंतिम हो गया था। हां, गैर पत्रकारीय कामों की जिम्मेदारी दीक्षित जी पर थी जो सीएमडी के विश्वस्त माने जाते थे। प्रमोद जी और अशोक ही उन्हें दीक्षित जी कहते थे, बाकी सबके लिए वह मैनेजर साहब थे। तात्कालिक तौर पर तो मामला संभल गया था, रोज का काम सुचारू रूप से चल रहा था, पर अशोक के मन में कुलबुलाते सवाल उसे चैन नहीं लेने दे रहे थे। अगले हफ्ते साप्ताहिक छुट्टी के दिन वह प्रमोद जी से मिलने चला ही गया। उन्होंने बताया कि मामला सचमुच पर्सनल ही है, लेकिन किसी बीमारी वगैरह की कोई बात नहीं है। उन्होंने कहा, ‘पर्सनली मैं वहां बेचैन फील कर रहा था। छह महीने में सैलरी बढ़ाने के कंपनी के वादे में मैं भी शामिल था। साल भर से ज्यादा हो गए थे। अखबार का सर्कुलेशन तो ठीकठाक बढ़ गया, लेकिन सैलरी बढ़ाने की कोई सुगबुगाहट ही नहीं थी। कुछ समय पहले मैंने सीएमडी साहब से ही बात छेड़ी। उनके रुख से साफ हो गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला। वे ग्रुप से जुड़ी समस्याएं बताने लगे। उन समस्याओं को हल करवाने में मेरे संपर्कों की मदद चाहते थे। मैं तैयार हो जाता तो शायद वह भी सैलरी बढ़ाने का मेरा आग्रह स्वीकार कर लेते। लेकिन मैंने आज तक ऐसा किया नहीं कभी। मन नहीं माना। किसी तरह बात टालकर मैं वहां से आ गया। पर उसके बाद वहां से मन उचट गया। लगा कि मैं न मैनेजमेंट की अपेक्षाओं पर खरा उतर पा रहाऔर न स्टाफ की उम्मीद पूरी करवा पा रहा हूं। ऐसे में वहां पड़े रहने का कोई तुक समझ नहीं आ रहा था। डिप्रेशन सा रहने लगा। आखिरकार फैसला कर लिया कि मेरा रास्ते से हट जाना ही ठीक है।’
‘पर अगर यह बात थी तो आपने हम लोगों को बताया...’
बीच में ही काटा प्रमोद जी ने, ‘नहीं अखबार को खड़ा करने में दिन-रात एक किया है सबने। मैं उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता था। ये सब अंदर की बातें थीं। इन्हें मुद्दा बनाकर किसी का फायदा नहीं होना था। सीएमडी जो चाहते थे, वह कोई इतनी अजीब बात भी नहीं। आजकल हर जगह मैनेजमेंट यही चाहता है। यह मेरी ही कमी है कि मैं उस रोल के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाता। गनीमत है कि बच्चे सेट्ल हो गए हैं। तो नौकरी की वैसी जरूरत नहीं रही।’
अशोक उनसे विदा लेकर तो आ गया, पर जिस बेचैनी को दूर करने के मकसद से गया था, वह और बढ़ गई। लौटते हुए वह सोच रहा था, आपके बच्चे तो सेट्ल हो गए हैं प्रमोदजी, मेरी बच्ची तो अभी पैदा ही हुई है। मैं क्या करूं? मेरी नौकरी की जरूरत अभी लंबे समय तक बनी रहने वाली है। मैं तो आपकी तरह हट भी नहीं सकता रास्ते से।’
दो-चार दिन वह पहले की ही तरह काम करता रहा। पर अंदर खदबदाहट चल ही रही थी। सैलरी बढ़ना तो उसके लिए भी जरूरी था। बढ़ती हुई महंगाई जीना मुश्किल किए जा रही थी। बाकी लोगों की सैलरी तो उससे भी कम है। उन्हें कितनी दिक्कत हो रही होगी!
आखिर एक दिन उसने दीक्षित जी से ही बात छेड़ी। सीएमडी साहब उस दिन आए नहीं थे। ‘मौसम अच्छा हो रहा है दीक्षित जी, चलिए जरा धुआं उड़ाकर आया जाए।’ समझ तो गए ही थे दीक्षित कि बंदे को कुछ प्राइवेट बात करनी होगी, पर मुस्कुराते हुए उठ खड़े हुए, ‘अरे आप जर्नलिस्ट लोगों को जब न्यूज से मुंह उठाने की फुरसत हो जाए तभी समझिए मौसम अच्छा हो गया। हमारे लिए तो आपकी कंपनी ही बड़ी बात है। कुछ न कुछ जानने सुनने को मिल जाएगा। चलिए।’
‘आनंद अल्पाहार’ में आकर बैठे दोनों। अशोक ने दो चाय का ऑर्डर देते हुए दीक्षित जी की तरफ देखा। वह बोले, ‘कॉफी मेरे लिए, बस और कुछ नहीं।’
‘एक चाय. एक कॉफी’ अशोक ने ऑर्डर दुरुस्त किया। दो-चार मिनट इधर उधर की बात करने के बाद अशोक पॉइंट पर आया, ‘दीक्षित जी, घर चलाना मुश्किल हो रहा है। जॉइनिंग के छह महीने के अंदर सैलरी डेढ़ गुना करने की बात थी। इसीलिए पिछली सैलरी से भी कम पर हम सबने जॉइन किया था। साल भर से ज्यादा हो गया। प्रमोद जी थे तो उनसे कह लिया करते थे। वे कहते थे कि जल्दी ही बढ़ेगा। पर अभी तक तो बढ़ा नहीं। अब तो आप ही हैं यहां सबसे बड़े। जरा सीएमडी साहब से बात कीजिए ना। उन्हें पता तो चले कि सबका बुरा हाल है।’
दीक्षित पुराने घाघ थे। बोले, ‘”ठीक है। मैं पूछता हूं सीएमडी साहब से मौका देखकर। वे जरूर सोच रहे होंगे कुछ न कुछ।’
अशोक ने कहा, ‘सोच तो रहे होंगे। पर सोचने से कुछ थोड़े ही होता है दीक्षित जी। बढ़ा दें तो कुछ बात बने।’
 अबकी दीक्षित ने थोड़ा तेवर बदला, ‘वैसे आप पत्रकारों से कुछ छिपा थोड़े ही रहता है अशोक जी।आपको तो मालूम ही है आजकल सारे अखबारों का बुरा हाल है। लोग जो पिछली सैलरी से भी कम पर जॉइन करने को तैयार हो गए थे, उसकी वजह तो ये थी कि ‘लोक प्रहरी’ के अचानक बंद होने के चलते सब पहले से ही बेरोजगार थे। उसके बाद भी दो अखबार- मराठी का ‘सकाल वृत्त’ और गुजराती का ‘समकालीन अभियान’ -बंद हो गया है। लेकिन अपने अखबार को वैसा कोई खतरा नहीं है। सीएमडी साहब की एक बात बड़ी अच्छी है कि पहले तो किसी चीज में हाथ डालते नहीं हैं, लेकिन अगर एक बार हाथ डाल दिया तो फिर पीछे नहीं हटते, चाहे जो हो जाए। भले तीन ही एडिशन है अपने अखबार का, लेकिन बंद कोई नहीं होगा। मुंबई एडिशन आने के बाद लोड थोड़ा बढ़ गया तो कई लोग कह रहे थे कि सूरत और मुंबई एडिशन चलाइए, सिलवासा वाला बंद कर दीजिए। पर सीएमडी साहब ने ऐसा झाड़ा सामने वाले को कि खबरदार जो बंद करने की बात कही। मैं कोई प्रॉजेक्ट बंद करने के लिए शुरू नहीं करता हूं।’
चाय खत्म कर अशोक उठ गया। वह नहीं चाहता था मुंह से कोई कड़वी बात निकल जाए। लेकिन सीएमडी साहब का यह स्तुतिगान भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। दीक्षित ने भी कॉफी का आखिरी घूंट लिया और उठ खड़े हुए। आइए सिगरेट लेते हैं। कहते हुए अशोक आगे बढ़ा और काउंटर पर पेमेंट करते हुए बाहर आ गया। दीक्षित अपनी ब्रैंड की सिगरेट जेब में ही रखते थे। अशोक ने एक गोल्ड फ्लेक वहीं पास की दुकान से ली और दोनों साथ खड़े होकर कश मारने लगे।
दीक्षित की बातों से उसे सीएमडी साहब के रुख का अंदाजा हो गया था। डेढ़ गुना सैलरी बढ़ोतरी तो बहुत दूर की बात थी। अब चिंता यह थी कि उसकी बात पर सीएमडी साहब पता नहीं कैसे रिएक्ट करेंगे।.इसी उधेड़बुन में उस रात अशोक ने कुछ बातें अनिता से शेयर कर लीं। हालांकि ज्यादा कुछ नहीं बताया। बस प्रमोद जी के इस्तीफे और सैलरी बढ़ाने पर कंपनी की ना नुकर की बात ही कही, वह भी संक्षेप में। अनिता ने शांति से सब सुना। आखिर में इतना ही बोली, ‘कोई नहीं, सब ठीक हो जाएगा। तुम टेंशन मत लो। सो जाओ।’ उसने अपना सिर अशोक के सीने में घुसाया और खुद भी आंखें बंद कर लीं। सच यह था कि आंखें बंद किए दोनों काफी देर तक जागते रहे, अपने जानते दूसरे को इसका अहसास दिए बगैर।
अनिता की परवरिश छोटे शहरों की थी। शादी के बाद पहली बार ही वह मुंबई आई थी दो साल पहले। उसे पत्रकारिता की दुनिया की कोई समझ भी नहीं थी। लेकिन मर्दों का मर्दानापन उसने बचपन से देखा था। उसे पता था कि पति कोई बात पत्नी से साझा तभी करता है जब उसे मामला हाथ से बाहर जाता हुआ लगने लगता है। रात तो उसने खुद को काबू में रखा था, लेकिन सुबह उठने के बाद से मन में खलबली मची हुई थी। आखिर चाय पीते हुए उसने अपनी तरफ से ही बात छेड़ी, चेहरे पर जहां तक हो सके निश्चिंतता का भाव बनाए रखते हुए, ‘रात में क्या कह रहे थे तुम? क्या ऑफिस में कोई टेंशन है?’ अशोक को तुरंत अहसास हो गया अपनी गलती का। बेकार बता दिया इस बेचारी को। पर अब क्या हो सकता था? उसने भी वैसी ही बेतकल्लुफी के स्वर में कहा, ‘कुछ खास नहीं यार। कंपनी साली पैसा बचाने के चक्कर में है और यहां अपना बुरा हाल है। छह महीने में सैलरी बढ़ाने वाले थे, साल भर से ज्यादा हो गया और नाम ही नहीं ले रहे हैं इंक्रिमेंट का।’
‘प्रमोद जी ने इसी वजह से रिजाइन कर दिया?’
‘हां, लेकिन उनका क्या है! बच्चे सेट्ल हो चुके हैं, वे छोड़ सकते हैं नौकरी। सब थोड़े ही छोड़ सकते हैं?’
अनिता उसकी इस बेतकल्लुफी से प्रभावित नहीं हुई। उसने पूछा, ‘क्या तुमने बात की है ऑफिस में सैलरी बढ़ाने की?’
अशोक का चेहरा सिटपिटा गया, जैसे चोरी पकड़ी गई हो, हल्का सा हकलाते हुए बोला, ‘ह हां... दीक्षित जी से कहा तो है। क्या करें, सैलरी बढ़े बगैर गुजारा भी तो नहीं है।’
‘हम्म’, अनिता गंभीर हो गई थी। लेकिन और कुछ नहीं बोली वह।
उसके बाद के दो-तीन घंटे दोनों में कोई खास बातचीत नहीं हुई। अनिता किचेन और बच्ची में लगी रही, अशोक ने खुद को अखबार और टीवी में व्यस्त रखा। हां खाना खाने और तैयार होने के बाद वह जब ऑफिस के लिए निकलने लगा तो अब तक दबाकर रखी सारी घबराहट अनिता के चेहरे पर आ गई। 
घबराहट भरा वह चेहरा रास्ते भर अशोक का पीछा करता आया था। वह आंखों से हटता तो प्यारी मुस्कान लिए उसकी तरफ बढ़ती बच्ची आ जाती। अशोक ने तय कर लिया कि सैलरी बढ़े या न बढ़े उसे मुद्दा नहीं बनाएगा। थोड़ी मुश्किल से ही सही पर इस सैलरी में भी जिंदगी चल तो रही है। नौकरी छूटी तब तो खाने के लाले पड़ जाएंगे।
खैर ऑफिस आकर काम में डूबा तो सब कुछ भूल गया। लेकिन तभी तक, जब तक कि दीक्षित उसकी सीट के सामने आकर खड़े न हो गए, ‘अरे दीक्षित जी...’। 
‘अशोक जी, जरा मेरे साथ आइए, कुछ बात करनी है।’
न्यूज रूम वैसे करीब-करीब खाली ही था, ज्यादातर रिपोर्टर्स अभी आए नहीं थे। फिर भी दीक्षित जी उसे थोड़ा अलग ले गए और बोले, ‘मैं सीएमडी साहब से मिला, लेकिन अपनी बात करता उससे पहले ही उन्होंने नया फरमान सुना दिया, खास आपके लिए।’
‘क्या?’
‘वह कह रहे थे कि अपने यहां इतने बड़े-बड़े पत्रकार हैं, लेकिन कोई कंपनी के बारे में नहीं सोचता। देखो, प्रमोद जी भी सर्कुलेशन बढ़ाने में लगे रहे, कभी यह नहीं सोचा कि उससे तो कागज का खर्चा और बढ़ जाता है। कंपनी को तो ऐड चाहिए। कहां से पूरा होगा इतना सारा खर्च! फिर कहा, अशोक से कहना एकददम स्ट्रिक्ट हो जाए अब। उसी रिपोर्टर की खबरें छपेंगी जो ऐड भी लाया करेगा। सबके लिए महीने का कुछ न कुछ कोटा फिक्स कर दे। अशोक खुद समझता है कि किस रिपोर्टर की कितनी औकात है। उसी हिसाब से तय कर दे। बाद में मैं उससे फीडबैक ले लूंगा।’
हम्म... अशोक ने लंबी सांस ली, ‘उन्होंने ऐसा कहा आपसे?’
‘हां जी, आज वह भी पता नहीं कैसे जल्दी आ गए। मैंने देखा कि अभी केबिन में अकेले हैं तो चला गया। पर यह सब सुनकर मेरी तो हिम्मत ही नहीं हुई सैलरी वाली बात कहने की।’
‘ठीक है, मैं उनसे बात कर लूंगा।’
इतना कहकर अशोक अपनी सीट पर आकर बैठ गया। जो स्टोरी वह देख रहा था, उसी को फिर से उठा लिया, लेकिन अब उस पर ध्यान लगाना मुश्किल था। वह सोचने लगा, अभी क्राइम रिपोर्टर प्रवीण आएगा, बीएमसी बीट देख रहा सुरेंद्र आएगा। वह प्रवीण से क्या कहेगा कि सारे थानों से हर महीने पैसे वसूल करो, सुरेंद्र से कहेगा कि बीएमसी में कॉरपोरेटर्स से हर महीने कुछ न कुछ विज्ञापन मंगवाओ। सब जानते हैं कि कई रिपोर्टर्स ऐसा करते हैं, लेकिन अशोक तो इन सबके खिलाफ रहा है। उसी वजह से रिपोर्टर्स पर उसका नैतिक दबाव भी रहता है। किसी रिपोर्टर की कॉपी में कोई भी गड़बड़ी दिखती है तो वह उसे बेखटके ठीक करता है, उन सबसे कहता है कि किसी की अनावश्यक तारीफ नहीं होनी चाहिए कॉपी में। सब इसीलिए तो उसके आगे जुबान नहीं खोलते क्योंकि उन्हें पता है अशोक जी उस तरह के पत्रकार नहीं हैं। अब वह खुद इन सबसे वसूली करने को कहेगा तो उसकी क्या इज्जत रह जाएगी फील्ड में। कौन मानेगा कि वह सिर्फ सीएमडी साहब के कहने पर, कंपनी के लिए ऐसा कर रहा है। सब यही मानेंगे कि उसके हिस्से का कट इसमें शामिल है...।
अशोक इससे आगे नहीं सोच सका। उसने सामने पड़ा पैड अपनी तरफ खींचा और उस पर लिखने लग गया. 
महोदय....
पांच मिनट में रेजिगनेशन लेटर लिखकर उसने मोड़ा और ड्रॉअर से लिफाफा निकाल कर उसमें डाल दिया। कंप्यूटर में किसी से कंपोज कराना फिजूल था। उसने ऑफिस बॉय नीलेश को बुलाकर कहा, यह लिफाफा सीएमडी साहब को दे दो। बोलना अशोक जी ने दिया है।
नीलेश लिफाफा लेकर चला गया। और अब अशोक के हाथ-पांव फूले हुए हैं। यह उसने क्या कर दिया? घर जाकर अनिता से क्या कहेगा? कहां मिलेगी दूसरी नौकरी? और न मिली तो घर कैसे चलेगा?
तमाम सवाल थे जिनका कोई जवाब नहीं था। सवाल ही सवाल थे। जवाब के रूप में भी सवाल ही सामने आ रहे थे। यह न करता तो और क्या करता? रिपोर्टर्स से विज्ञापन मंगवाता? छी छी..
अजीब सी बेबसी महसूस हो रही थी उसे। दम घुटता सा लग रहा था। सो वह ऑफिस से निकल पड़ा। बाहर धूप थी, पर खुला तो था। थोड़ी दूर चलकर सिगरेट की दुकान पर गया और एक गोल्ड फ्लेक लेकर फूंकने लगा। धुएं के आकार के साथ ख्याल भी रूप बदलने लगे। दीक्षित वैसे बात तो गलत नहीं कह रहा था। अगर बेरोजगारी नहीं होती तो पिछली सैलरी से कम पर कौन तैयार होता करने को। सब यही सोचकर तो तैयार हुए कि चलो कुछ तो मिल रहा है अभी। जब अखबार बंद हो जाए तो काम मांगने वाले ज्यादा हो जाते हैं, कीमत हमारी कम हो ही जानी है। आज एक दो नए अखबार शुरू होने की खबर आ जाए तो अपने स्टाफ को रोकने के लिए यही लोग सैलरी बढ़ाने को तैयार हो जाएंगे।
उसे याद आया, लोकप्रहरी में भी दो-दो तीन-तीन साल से कई पत्रकार टेंपरेरी तौर पर काम कर रहे थे। न तो उन्हें अयोग्य बताकर काम से निकाला जा रहा था और न ही परमानेंट करने के योग्य माना जा रहा था। तभी नव राष्ट्र का मुंबई संस्करण शुरू हुआ। उनमें से कई उस अखबार में बेहतर सैलरी में चले गए। जो बचे उन्हें तत्काल परमानेंट कर दिया गया।
पर यह सब सोच कर क्या फायदा। अभी तो जो नौकरी थी, वह भी गई। सिगरेट खत्म हो चुकी थी। वह वापस ऑफिस की ओर लौटा। बाहर निकलने से थोड़ी ताजगी जरूर आ गई थी, तनाव के बावजूद। ऑफिस पहुंचा तो नीलेश जैसे उसी का इंतजार कर रहा था। तेजी से उसकी तरफ आया, ‘अरे साहब कहां चले गए थे आप? दो बार सीएमडी साहब पूछ चुके हैं आपको।’
ठीक है, कहते हुए वह सीएमडी साहब के केबिन की ओर बढ़ा। नॉक करके दरवाजा हल्का सा खोलते हुए उसने झांका तो सीएमडी साहब ने आंखों से इशारा किया अंदर आने को, ‘बैठो’ गंभीर आवाज में बोले। अशोक कुर्सी खींच कर बैठ गया। सीएमडी साहब ने रिमोट लेकर पहले दरवाजे को लॉक किया, फिर बोले, ‘यह क्या है?’
‘मेरा इस्तीफा’
क्यों?
‘कोई खास कारण नहीं है बताने को। बस ऐसा नहीं लग रहा कि अब यहां काम कर सकता हूं।’ कुछ मिनट पहले की उसकी दुविधा छू मंतर हो चुकी थी। अंदर एक अलग तरह का आत्मविश्वास पता नहीं कहां से आ गया था जो उसकी आवाज में भी झलक रहा था।
‘क्या कहीं से कोई ऑफर है?’
‘अरे नहीं सर। अभी कहां से ऑफर आएगा, जो अखबार थे वे भी बंद हो रहे हैं।’
‘फिर क्या प्रॉब्लम है?’
अंदर से कुढ़न तो बहुत हो रही थी अशोक को, ऐसे नाटक कर रहा है जैसे इसे कुछ पता ही नहीं। लेकिन चलो नाटक तो नाटक ही सही। बोला, ‘जी, कोई प्रॉब्लम नहीं है। बस मेरा इस्तीफा स्वीकार कर लीजिए और राम-राम।’
अब सीएमडी साहब का धैर्य जवाब दे गया, ये क्या नाटक लगा रखा है? पहले प्रमोद जी छोड़ गए और अब तुम रिजाइन कर रहे हो? तुम क्या समझते हो तुम छोड़ दोगे तो मेरा अखबार बंद हो जाएगा?
अशोक उसी शांत भाव से अपने स्वर में और मिठास घोलते हुए बोला, ‘ऐसी कोई गलतफहमी नहीं है मुझे। मैं तो चीज ही क्या हूं, बड़े-बड़े संपादक अपनी पूरी टीम के साथ अखबार छो़ड़ जाते हैं और अखबार एक दिन के लिए बंद नहीं होता। आपका अखबार भी उसी ठाठ से निकलता रहेगा। एक मेरे जाने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, निश्चिंत रहें।‘
सीएमडी साहब ने इसे व्यंग्य समझा, बोले, ’देखो अशोक तुम अपनी औकात कुछ ज्यादा ही नाप रहे हो। तुम कुछ नहीं हो। तुम्हारे जैसे दर्जनों पत्रकार इस शहर में बेरोजगार घूम रहे हैं। तुम जाओगे और तुमसे आधी तनख्वाह में काम करने वाला दूसरा तुमसे ज्यादा एक्सपीरिएंस वाला बंदा मुझे मिल जाएगा।’
‘जी, सही कह रहे हैं आप, बिल्कुल मिल जाएगा।’
अब सीएमडी साहब का पारा सातवें आसमान पर जा चुका था। धमकाने वाले अंदाज में बोले, ‘तुम मुझे जानते नहीं हो अशोक। मैं नैशनल लेवल की पॉलिटिक्स करता हूं और इतनी ताकत रखता हूं कि किसी के भी घर में घुसकर उसकी जिंदगी बर्बाद कर दूं।’
इस बार अशोक को नसों में खून की रफ्तार बढ़ती महसूस हुई, पर उसने चेहरे का भाव नहीं बदलने दिया, ‘आप कर सकते हैं।’
पता नहीं कैसे सीएमडी साहब के तेवर ढीले पड़ गए, ‘आखिर चाहते क्या हो तुम?’
‘कुछ नहीं, बस इस्तीफा स्वीकार कर लीजिए और बात खत्म।’
‘नहीं दिक्कत क्या है आपकी? आप साफ-साफ खुलकर कहिए। दीक्षित ने आपसे कुछ कहा है?’ सीएमडी साहब के इस नरम रूप ने उसे भी अपना रुख बदलने की राह दे दी, ‘जी हां, आप ही का संदेश दिया उन्होंने मुझे।’
‘नहीं, साफ-साफ कहिए उसने क्या कहा आपसे?’
‘यही कहा कि मैं सारे रिपोर्टर्स से कहूं कि वे नियमित ऐड लाएं और यह कि जो ऐड लाएगा उसी की रिपोर्ट छपेगी?’
‘देखिए अशोक जी, मैं आपकी स्थिति समझता हूं, लेकिन आप ही बताइए कि बगैर ऐड के कोई अखबार चल सकता है क्या? ऐड का कोई बंदोबस्त तो करना ही पड़ेगा ना?’
‘सही कह रहे हैं आप। ऐड की जरूरत तो होती ही है अखबार में। लेकिन उसके लिए दूसरे लोग होते हैं। कुछ पत्रकार भी ऐसा करने लगे हैं, लेकिन माफी चाहता हूं मेरी वैसी ट्रेनिंग नहीं है, न वैसा स्किल है मेरा। मैं न्यूज का आदमी हूं। ऐड की डीलिंग मुझसे नहीं हो पाएगी। इसीलिए कहता हूं, मुझे विदा कीजिए और मेरी जगह किसी और को रखिए जो बेहतर ढंग से यह काम कर सकता है।’
नहीं अशोक जी, आप नाराज न हों। आपको कोई यह काम करने को नहीं कहेगा। आप न्यूज के आदमी हैं, न्यूज ही देखेंगे। अगर कोई रिपोर्टर आपसे ऐड की बात करे, या यह कहे कि मैं ऐड लाता हूं इसलिए मेरी रिपोर्ट छापिए तो आप लात मारकर उसे भगा दीजिए। आपको ऐड की चिंता करने की जरूरत नहीं है। लेकिन मैं तो कर सकता हूं ना। मान लीजिए मेरे पास कोई कंटेंट आता है और मैं आपसे कहूं कि अशोक जी, मुझे फलां पेज पर इतनी जगह चाहिए तो आप मेरे लिए तो वह जगह निकाल सकेंगे ना?’
अशोक बोला, ‘इसमें पूछने की बात क्या है? पूरा अखबार आपका है।’
फिर तय रहा, आपके काम में कोई दखल नहीं देगा। आप जैसे काम करते थे कीजिए, बस मुझे जब जितनी जगह की जरूरत होगी, आपको बताऊंगा, आप वह जगह मेरे नाम पर छोड़ दीजिएगा। वहां मेरा तय किया हुआ कंटेंट जाएगा। बाकी आपका रिश्ता जिसके साथ जैसा है वैसे रहेगा। डन?’
‘जी ठीक है।’
सीएमडी साहब सीट से खड़े हुए, ‘ओके फिर खुश होकर जाइए और मस्ती से काम कीजिए। हां जाते-जाते दीक्षित को अंदर भेज दीजिएगा।’
अशोक केबिन से निकला तो हल्की सी राहत जरूर महसूस कर रहा था, लेकिन ज्यादा कुछ सोचने को था नहीं उसके पास सिवा इसके कि आज का पूरा काम अभी बाकी ही है। उसमें लग गया और दिन कैसे बीता पता ही नहीं चला।
ऑफिस से घर तक रास्ते में मिले-जुले ख्याल आते रहे। दरवाजे पर पहुंचकर कॉलबेल  दबाई। अनिता ने दरवाजा खोला तो उसकी आंखों में तैर रहा सवाल न अप्रत्याशित था और न ही अनजाना। वह बगैर कुछ बोले सोफे पर बैठ गया और अनिता पानी लाने किचेन में चली गई। पानी लाकर उसने टेबल पर रखा और सोफे पर उसकी बगल में बैठ गई। पूछा कुछ नहीं पर निगाहें अशोक के चेहरे पर थीं। अशोक बोला, ‘उस नरक में कुछ और दिन की मोहलत मिल गई। सड़क पर नहीं आएंगे हम। नौकरी बची हुई है।’

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By Harishankar Parsai There is a photograph of Premchand in front of me, he has posed with his wife. Atop his head sits a cap made of some coarse cloth. He is clad in a kurta and dhoti. His temples are sunken, his cheek-bones jut out, but his lush moustache lends a full look to his face. He is wearing canvas shoes and its laces are tied haphazardly. When used carelessly, the metal lace-ends come off and it   becomes difficult to insert the laces in the lace-holes. Then, laces are tied any which way. The right shoe is okay but there is a large hole in the left shoe, out of which a toe has emerged. My sight is transfixed on this shoe. If this is his attire while posing for a photograph, how must he be dressing otherwise? I wonder. No, this is not a man who has a range of clothes, he does not possess the knack of changing clothes. The image in the photograph depicts how he really is. I look towards his face. Are you aware, my literary forbear, that your shoe is

"Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" bags 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival, Delhi

Sindhi movie "Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" (PHHYA) bagged 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival held this week at New Delhi by Sindhi Academy, Delhi Government. According to sources related to PHHYA, the movie which created history by premiering in Dubai in 2014, got awards for Best film (popular), Best director (Ramesh Nankani), Best Actor (Jeetu Vazirani) and Best Music Director (Hitesh Udhani). Award for best music was shared by Kamlesh Vaidya and Vijay Rupani (Vardaan)    The festival held on 27th and 28th May at Sirifort Stadium, New Delhi, screened 4 movies; PHHYA, Nai Shuruaat, Vardhaan and Trapadd Teshion Tey. Nai Shuruaat, a movie based on thalasemmia, bagged awards in category of Best film (critics) and Best cinematography (Unnidivakaran D Vinod). While Vardaan, with a message to save girl child, got award for Best female actor (Komal Chandnani) also.