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ये विचार लेखक के अपने नहीं हैं!


कभी-कभी लगता है कि हम 'पल्ला झाड़ू' युग में जी रहे हैं, जहाँ सब समस्या या विवाद तो 'क्रियेट' करना जानते हैं, करते भी हैं पर फंसने पर उसे 'ओन' करना नहीं जानते। कोई भी, कोई भी यानी कोई भी अपने कहे-किये की जिम्मेवारी नहीं लेना चाहता। ज़रा सा विवाद हुआ कि वह उस विवादस्पद बयान/कार्य से पल्ला झाड़ लेता है यह कहकर कि ऐसा उसने कहा ही नहीं, उसकी बात को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया, उसका यह मतलब नहीं था या कि यह उसके निजी विचार थे/नहीं थे। आखरी बहाना इस पर निर्भर करता है कि उसकी जान किस सूरत में बच सकती है।
बरसों पहले टीवी पर एक धारावाहिक में 'डिस्क्लेमर' देखा था, यह धारावाहिक ऐसा कोई दावा नहीं करता कि यह इतिहास दर्शा रहा है, धारावाहिक के सभी पात्र काल्पनिक हैं और इसका उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन करना है वगैरह वगैरह।।। बाद में तो डिस्क्लेमर फैशन ही बन गया। फलां धारावाहिक का उद्देश्य बाल विवाह को बढ़ावा देना नहीं है, फलां धारावाहिक का उद्देश्य नारियों पर अत्याचार को बढ़ावा देना नहीं है, फलां धारावाहिक का उद्देश्य बच्चों के शोषण को बढ़ावा देना नहीं है, फलां धारावाहिक का उद्देश्य किसी धर्म विशेष के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है। डिस्क्लेमर दे दिया, जिम्मेवारी ख़तम। फिर भले वही करो, जो डिस्क्लेमर में न करने का दावा किया है। इतिहास, मिथक, कल्पना का घालमेल करो, २००-३०० साल पहले मर गए बेचारे व्यक्ति के बारे में मत सोचो कि उसके दिल पर पर क्या गुज़रती होगी जब लोगों का मनोरंजन करने के नाम पर आप अपनी घटिया कल्पनाओं को घुसेड़ते हैं।
खैर यह हुई टीवी की बात जिसे कहा ही बुद्धू बक्सा जाता है, मीडिया की बात करें, कैसी-कैसी चीज़ों का (लिंग वर्धक दवाइयों से लेकर एड्स और कैंसर जैसी बीमारियों का चुटकियों में इलाज करने वाले बाबाओं तक) विज्ञापन नहीं देते पर एक डिस्क्लेमर लगा देते हैं पाठकों/दर्शकों से अनुरोध है कि विज्ञापन पढ़कर/देखकर उत्पाद खरीदने का फैसला न करें, ऐसा करने की सूरत में कोई नुक्सान हुआ तो उसके लिए चैनल/अखबार जिम्मेवार नहीं होगा। इसी तरह का खेल सेलिब्रिटीज खेलते हैं। करोड़ों रुपये लेकर ब्रांड एंडोर्स करते हैं पर कुछ गड़बड़ होने पर सबसे पहले पल्ला झाड़ लेते हैं। कहते हैं कि वे तो कलाकार/मॉडल हैं, बस प्रचार करते हैं, वे थोड़े ही उत्पाद की गुणवत्ता या सेवा की डिलीवरी के लिए जिम्मेदार हैं। पर भाई मेरे जब आप किसीके ब्रांड का प्रचार करते हो तो वहां आप किसी काल्पनिक कथानक के 'किरदार' थोड़े ही होते हो, आप आप होते हो और लाखों लोग आपका चेहरा देखकर, आपकी बातें सुनकर बेवकूफ बनते हैं। ब्रांड की नहीं अपनी रेपुटेशन का तो ख्याल करो!    
विज्ञापनों की बात छोड़िये कई अखबार अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर लेखकों के (खासकर लेख अगर सत्ताविरोधी हो तो) लेख के नीचे लिख देते हैं "व्यूज आर पर्सनल" (विचार लेखक के अपने हैं)। अरे भाई, जाहिर हैं विचार लेखक के अपने हैं, चोरी के नहीं पर आप उसे अपने अखबार में छाप रहे हो, तो उन्हें 'ओन' तो करो कि मुश्किल में पड़ने पर आप अपने बच निकलने का रास्ता रख रहे हो?
मीडिया भी खैर क्या करे? वह तो माध्यम है दूसरों के विचार या बयानों को लोगों तक पहुँचाने का, उन नेताओं का क्या करें, जिनकी ज़बान फिसली नहीं और पकड़े नहीं गए कि दस बहाने गिनाना शुरू कर देते हैं। पहले उनका प्रिय बहाना था कि उनके बयानों को तोड़ मरोड़ कर छापा गया है, अब चूंकि लगभग सारे कार्यक्रमों की वीडियो रिकॉर्डिंग होती है तो वह कहते हैं कि उनका बयान एडिट कर सन्दर्भ से काटकर दिया गया। ऐसा भी नहीं कह सकते और मुकर भी नहीं सकते तो कह देते हैं कि यह विचार उनके अपने हैं और उन्होंने सरकार के प्रतिनिधि (यदि वे मंत्री हैं तो) के रूप में या पार्टी नेता के रूप में नहीं दिए। साथ में अगर दबाव बहुत ज्यादा है यानी उन्होंने कोई बेहद आपतिजनक या बेवकूफाना टिप्पणी कर दी है तो अफ़सोस जताने की रस्म अदा कर देते हैं। मामला ख़त्म हो जाता है।
यहाँ स्टिंग ऑपरेशनों की बात नहीं की जा रही है, जिसमें सबसे पहला बचाव टेप की विश्वसनीयता पर सवाल  उठाना होता है और फिर टेप को फॉरेंसिक जांच के लिए भेज दिया जाता है। जाहिर है फॉरेंसिक जांच की रिपोर्ट तब तक नहीं आती जब तक उस मुद्दे को बहुत गहरे दफ़न नहीं कर दिया जाता। वैसे भी नेता मानते हैं जनता तो गजनी है, जिसकी याद्दाश्त की अवधि बहुत छोटी है। रहा सवाल मीडिया का तो उसे वैसे भी हर पल नया मसाला चाहिए, हू इज ब्लडी इंटरेस्टेड इन ओल्ड मैटर्स?


(डिस्क्लेमर: यह विचार इस लेखक के अपने नहीं हैं, कहीं से मारे हुए हैं पर एक घिसे हुए पत्रकार की तरह वह अपना 'सोर्स' तब तक नहीं बताएगा जब तक उसकी जान पर नहीं बन आएगी।)            

कोई नहीं जी! - ३/महेश राजपूत

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