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एक अनूठे परिवार की कहानी: शॉपलिफ्टर्स

कल जापानी फिल्म "शॉपलिफ्टर्स" देखी। देख कर स्तब्ध रह गया! दुनिया के सबसे अमीर माने जाने वाले देशों में से एक जापान की राजधानी टोक्यो के आऊटस्कर्ट्स पर एक झोपड़े में रहने वाले बेहद गरीब परिवार की कहानी।
पहले दृश्य में बाप-बेटे को एक स्टोर से अपनी रोज़मर्रा ज़रूरतों के सामान की चोरी करते दिखाया गया है। दूसरे दृश्य में वह एक छोटी बच्ची को अपने घर के बाहर भूख से तड़पते और ठिठुरती रात में ठंड से कांपते देखते हैं और उसे 'घर' ले आते हैं। घर का गुज़ारा चलता है युवक की बूढ़ी मां की मामूली पेंशन, उसकी कंस्ट्रक्शन साईट पर अपनी अस्थायी नौकरी, जो बाद में एक दुर्घटना में पैर फ्रैक्चर हो जाने पर चली जाती है और पत्नी की एक लॉन्ड्री में अस्थायी नौकरी से। घर में एक सदस्य और है, बूढ़ी औरत की पोती (सौतेले बेटे की बेटी) जो एक ऐसे 'क्लब' में काम करती है जहां पुरुष यौन सुख के लिये आते हैं। परिवार की नई सदस्य को वापस उसके घर छोड़ आने का फैसला किया जाता है। बच्ची को खिला-पिलाकर सुलाने के बाद पति-पत्नी निकलते हैं। बच्ची को ठंड के कारण घर के बाहर छोड़ नहीं सकते थे। फैसला होता है बच्ची को दरवाजे पर रखकर घंटी बजाकर भाग लेंगे। घर के अंदर से दंपत्ति में झगड़े की आवाज़ें आ रही हैं। औरत (संभवत: पति से पिटते हुए) कह रही है कि वह खुद बच्ची को जन्म देना नहीं चाहती थी। यह लोग बच्ची को घर ले चलने का फैसला करते हैं। रिस्क देखिये, पकड़े जाने पर उन पर किडनैपिंग का चार्ज (जो बाद में लगता भी है) लग सकता है। खैर, बच्ची अब उनके घर की सदस्य बन जाती है। बच्ची को भी बाप शॉप लिफ्टिंग के कार्य में शामिल करता है (आप कहेंगे कि वह कैसा पिता है जो बच्चों को शॉप लिफ्टिंग सिखाता है? बाद के एक दृश्य में एक पुलिस अधिकारी पूछताछ के दौरान उससे यही सवाल करता है कि उसने बच्चों को चोरी करना क्यों सिखाया, वह कहता है, "मुझे और कुछ नहीं आता।")। इधर बेटा बच्ची को मिल रहे महत्व के कारण ईर्ष्या करता है तो पिता उससे कहता है कि कार्य को हमेशा बांटना होता है और यह भी कि बच्ची कोई परायी नहीं उसकी बहन है। इस दौरान साईट पर पैर तुड़ा बैठने के कारण उसकी नौकरी चली जाती है और पत्नी की नौकरी भी। लान्ड्री का बॉस ज़्यादा दिहाड़ी पाने वाली दो महिला कर्मियों जो सहेलियां भी हैं, को आपस में तय करने का 'मौका' देता है कि कौन जायेगी व कौन रहेगी? नायिका की सहेली घर में बच्ची रखने का राज़ सार्वजनिक करने की धमकी देती है और नायिका नौकरी छोड़ देती है। जबकि गरीबी इतनी है कि मां (बूढ़ी औरत) के गुज़र जाने पर पैसे न होने के कारण वह लोग रात में झोपड़े के बाहर गड्ढा खोदकर दफना देते हैं बिना किसी कर्मकांड के। एक स्टोर से सामान चुराते समय संभवत: छोटी बहन को बचाने के लिये लड़का सुरक्षा कर्मियों का ध्यान बंटाने के लिये फलों की एक थैली लेकर भागता है, सुरक्षाकर्मी उसके पीछे पड़ते हैं और एक फ्लाई ओवर पर दोनों तरफ से घिरने पर वह छलांग लगा देता है। उसके हॉस्पीटल केस बनने के कारण परिवार पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। इसके आगे की कहानी नहीं बताऊंगा क्योंकि उसका मतलब मज़ा खराब करना होगा।
फिल्म के कथानक के मूल में जो सवाल हैं, वह हैं हम अपना परिवार खुद चुन क्यों नहीं सकते? क्या खून के रिश्ते ही रिश्ते होते हैं? या फिर इंसान होने के नाते इंसानियत, करुणा और प्रेम से चुने रिश्ते क्या रिश्ते नहीं होते? क्या जन्म देने से ही कोई मां या बाप बन जाता है?
वैसे फिल्म धीमी भी है और शांत भी पर यह धीमापन और शांति सतह पर ही है अंदर-अंदर तो हर दृश्य, हर फ्रेम में भावनाएं जैसे खौल रही हैं। फिल्म बिना कुछ कहे जापान जैसी पूंजीवादी अर्थ व्यवस्थाओं पर भी टिप्पणी है कि समृद्धि की चकाचौंध में गरीबी और गरीबों का जीवन कैसे अदृश्य सा हो जाता है जैसे उनका कोई अस्तित्व ही न हो। फिल्म देखियेगा ज़रूर। सिनेमाघर में न देख पाएं तो नेटफ्लिक्स पर देखियेगा।

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