एडिटर्स गिल्ड को एक बयान जारी करना पड़ा है कि कश्मीर में मीडिया (स्थानीय मीडिया समेत) को काम करने दिया जाए। पांच दिन से कश्मीर देश से कटा हुआ है। कश्मीर में वास्तविक स्थिति की खबर ना बाहर आ रही है और ना कश्मीर में बाहर से खबर अंदर जाने दी जा रही है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया और कुछेक संस्थानों (समाचार पोर्टलों समेत) से प्रतिरोध/विरोध की खबरें आ रही हैं, सरकारी तत्व और बीजेपी उन्हें अफवाह और कुप्रचार करार दे रहे हैं। कुछ सकारात्मक खबरें आ रही हैं तो विरोधी कह रहे हैं कि यह खबरें सरकार प्लांट करवा रही है, जोकि पूरी तरह गलत भी नहीं है। दरअसल, युद्ध के समय भी मीडिया (अंतरराष्ट्रीय मीडिया समेत) को एक्सेस दिया जाता है, ऑफिशियल ब्रीफिंग होती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपकी छवि खराब ना हो, इसलिए। क्या कश्मीर में कोई युद्ध चल रहा है? नहीं! फिर यह सरकार ऐसा क्यों कर रही है? क्योंकि उसे पता है कि मीडिया के एक बड़े हिस्से को मैनेज किया जा सकता है। पुलवामा हमले और बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद वह ऐसा सफल प्रयोग कर चुकी है। कथित मुख्यधारा के मीडिया के एक बड़े हिस्से को सरकार ने कैरेट एंड स्टिक नीति अपनाते हुए साध लिया था। अंतरराष्ट्रीय मीडिया या डिजिटल मीडिया की सरकार और बीजेपी को कोई खास परवाह नहीं है क्योंकि एक तो जनता के बड़े वर्ग तक उसकी पहुंच नहीं है, दूसरे उन पर देश विरोधी कुप्रचार करने का आरोप लगाकर खारिज किया जा सकता है पर सवाल यह है कि मीडिया क्यों अपनी साख मिट्टी में मिला रहा है? सरकारें आती जाती रहती हैं, साख एक बार खत्म हुई तो हमेशा के लिए खत्म हो जाती है। फिर जिस तरह एक बार भेड़िए के मुंह खून लग जाए तो वह किसीको नहीं छोड़ता, उसी तर्ज पर आज कश्मीर में तो कल देश भर में मीडिया को काम नहीं करने दिया जाएगा। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के अस्पताल के दौरे से पहले पत्रकारों को एक कमरे में बंद कर देना, वित्त मंत्रालय में पत्रकारों के बिना अधिकारियों से अपोइंटमेंट के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना, इसी मंत्रालय के प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल पूछने पर पाबंदी लगाना और ‘बैटमैन‘ के पिता का पत्रकारों को औकात याद दिलाना कुछ उदाहरण हैं। उससे पहले पुलवामा हमले और बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद प्रेस ब्रीफिंग के दौरान सवाल पूछने से मना किया गया था। किसीने विरोध नहीं किया। सवाल पूछने नहीं देना तो प्रेस विज्ञप्ति जारी करो, प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों बुलाते हो भाई? यह इस सरकार का काम करने का स्टाइल है। प्रधानमंत्री ने पांच साल के कार्यकाल में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। केवल स्क्रिप्टेड इंटरव्यू दिए, आपने चूं नहीं की, अब भुगतो। एबीपी समेत विभिन्न संस्थानों से पत्रकार निकाले जाने का मामला हो या एन डी टी वी के मालिकों के पीछे हाथ धोकर पड़ने का, कोई आवाज़ नहीं उठती। हर कोई यह सोचकर चुप है कि उसका नंबर नहीं आएगा, पर सच यही है कि यही हालात रहे तो सबका नंबर आयेगा। आज नहीं तो कल। पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों को सरंक्षण देने वाले कानून समाप्त किए ही जा रहे हैं। विज्ञापन रोककर मालिकों (राफेल मामले में) को परेशान किया जा रहा है। क्या मिलकर लड़ने के अलावा कोई विकल्प है? सोचो? मालिक भी सोचें कि पत्रकारों, कर्मचारियों का शोषण करने, सरकारों से मिलने वाले लालच या डर से अपने पत्रकारों की आज़ादी छीनने और अपने अधिकार गिरवी रखने में फायदा है या मिलकर लड़ने में? शुरुआत यह स्टैंड लेने से हो सकती है, जब तक कश्मीर में अवाम का दमन चक्र नहीं रुकता और मीडिया को पूरी एक्सेस नहीं मिलती, सारी सरकारी खबरों का बॉयकॉट किया जाएगा।
(यह पोस्ट लिखते लिखते खबर आई कि कश्मीर टाईम्स ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की है, अन्य मीडिया संस्थानों को इस लड़ाई में शामिल होना चाहिए।)
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