हमारी तहकीकात की प्रमुख बातें:
सेंसरशिप और समाचारों पर नियंत्रण
हालांकि कोई अधिकारिक सेंसरशिप या बैन लागू नहीं है पर संचार चैनलों की कमी और आवाजाही पर प्रतिबंधों के कारण पत्रकारों को समाचार जुटाने के निम्नलिखित क़दमों में समस्या आ रही है:
- इन्टरनेट और फ़ोन बंद होने के कारण घटनाओं के बारे में जानकारी मिलने या संपर्कों और स्रोतों से जानकारी मिलने में
- कहीं आ-जा न पाने के कारण, कुछ इलाकों में प्रवेश पर पाबंदियों से, समाचार जुटाना बाधित हो रहा है
- खुद या गवाहों से पुष्टि करने से रोके जाने, आधिकारिक स्रोतों से जानकारी की पुष्टि करने से मना करने के कारण समाचारों की विश्वसनीयता से समझौते के खतरे हैं
- संपादकों से ईमेल अथवा फ़ोन पर तथ्यों की पुष्टि के बारे में पूछे गए सवालों के जवाब न दे पाने के कारण या ख़बरों में सुधार न कर पाने के कारण ख़बरें छप नहीं पा रही हैं। केवल एक खबर मीडिया केंद्र में जाकर अपलोड करना काफी नहीं है यदि आप सवालों के जवाब देने के लिए उपलब्ध नहीं हैं।
- तनाव और संघर्ष के समय में खबर में सुधार न कर पाने की स्थिति खतरनाक हो सकती है, चूंकि शब्दों का चयन स्थानीय सन्दर्भ में संवेदनशील मामला होता है और सम्बंधित पत्रकार को जोखिम में भी डाल सकता है।
- स्पष्ट 'अनौपचारिक' निर्देश है कि किस तरह की सामग्री की अनुमति है
- उच्च स्तरीय पुलिस अधिकारियों ने मीडिया घरानों में जाकर मीडियाकर्मियों को जाकर कथित रूप से बताया कि इन विषयों से बचें: विरोध प्रदर्शन, पथराव, पाबंदियां
- टीम ने सुना कि बीजेपी सदस्य मीडिया कार्यालयों में रोज़ 7-8 ख़बरें लेकर पहुँचा रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि उन्हें प्रकाशित किया जाए। ऐसे "प्रस्ताव" को टालना मुश्किल है क्योंकि वैसे भी प्रकाशन योग्य सामग्री की बेहद कमी है
- स्पष्ट पकिस्तान-विरोधी रवैया है अर्थात मुखपृष्ठ पर इमरान खान की ख़बरें न दें, यहाँ तक कि खेल पृष्ठ पर मिस्बाह उल हक़ की तस्वीर छपने पर एक अखबार के कार्यालय में पुलिस आ धमकी।
कश्मीर में प्रमुख अख़बारों में सम्पादकीय आवाज़ की अनुपस्थिति अपने आप में मीडिया की स्थिति पर एक टिप्पणी है। सम्पादकीय और वैचारिकी आलेख इधर इन विषयों पर हैं: "भोजन के रूप में विटामिन के उपयोग, लाभ और 10 भोज्य स्रोत", "जंक फ़ूड त्यागना चाहते हैं?", "गर्मियों में आपको कैफीन लेना चाहिए? जवाब आपको हैरान कर देगा", "फल उत्पादन", ग्रहों की सोच" और "हमारे समुद्र और हम"। उर्दू अख़बार समाचारों के मामले में बेहतर हैं लेकिन वर्तमान संकट पर सम्पादकीय आलेखों से बच रहे हैं और सम्पादकीय के रूप में "घर की सफाई कैसे हो?" और "जोड़ों का दर्द" जैसे आलेख दे रहे हैं।
हिरासत और गिरफ्तारी की धमकी
हालांकि आने वाले तूफ़ान की आहट जुलाई के अंत में दर्शनीय सैन्य तैनाती के रूप में मिलने लगी थी, ऑनलाइन प्रकाशन द कश्मीरियत के संपादक क़ाज़ी शिबली को सैन्य तैनाती के बारे में ट्वीट को लेकर और जम्मू एवं कश्मीर के कोने-कोने में अतिरिक्त अर्धसैनिक बलों की तैनाती के बारे में एक अधिकारिक आदेश प्रकाशित करने को लेकर दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग में हिरासत में लिया गया।
घाटी के सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले अंग्रेजी दैनिक ग्रेटर कश्मीर के रिपोर्टर इरफ़ान मालिक को 14 अगस्त को हिरासत में लिया गया। उनके परिजनों ने बताया कि सुरक्षा कर्मी दक्षिण कश्मीर के त्राल में दीवार फांदकर उनके घर में घुसे और उन्हें ले गए और स्थानीय पुलिस थाने की कोठरी में हिरासत में रखा। किसी और तरह के संचार के अभाव में उनका परिवार श्रीनगर में कश्मीर प्रेस क्लब गया और सरकारी अधिकारियों से भी मिला। इस प्रचार से थोड़ा शोर मचा और मलिक को 17 अगस्त को छोड़ दिया गया। उन्हें हिरासत में लेने का कारण अज्ञात ही है।
श्रीनगर और जिलों में भी कई पत्रकारों को थोड़े-थोड़े अरसे के लिए हिरासत में लिया गया है, पुलिस थानों पर बुलाया गया है और/अथवा पुलिस या जांच एजंसियों के लोगों की तरफ से मिल कर अपने स्रोत बताने के लिए दबाव डाला गया है। लेकिन वह लोग खुलकर अपने अनुभव बताना या मामले को बढ़ाना नहीं चाहते क्योंकि प्रतिशोधात्मक कार्रवाई हो सकती है।
बुरहान वाणी पर कवर स्टोरी के लिए कश्मीर नैरेटर, के सहायक संपादक आसिफ सुलतान को अगस्त 2018 में हिरासत में लिया गया था और गैरकानूनी गतिविधि प्रतिरोधक क़ानून (यूएपीए) के तहत आरोप लगाए गए थे, वह अब भी जेल में हैं।
धमकी भरे माहौल ने पीड़ा और तनाव बढाया है। विभिन्न तरह की धमकियों के कारण डर का माहौल है। पत्रकारों को पुलिस थानों पर बुलाया गया है अथवा सीआईडी के लोग उनसे जाकर मिले हैं उनके स्रोत की जानकारी के लिए। पब्लिक सेफ्टी एक्ट, यूएपीए अथवा अन्य आतंक विरोधी प्रावधानों के तहत हिरासत में लिए जाने का डर अकारण नहीं है। इससे उच्च स्तरीय सेल्फ सेंसरशिप हो रही है। संचारबंदी ने असुरक्षा की भावना को बढ़ाया ही है। एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, "यदि हमें उठा लिया गया या गायब कर लिया गया तो किसीको पता भी नहीं चलेगा। हम एक-दूसरे से कह रहे हैं। यह खबर मत करो, सुरक्षित रहो। जब ज़िन्दगी दांव पर लगी हो, साख पीछे छूट ही जाती है।"
अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को घाटी में सीधी पहुँच की अनुमति नहीं है पर कुछ स्थानीय वरिष्ठ पत्रकारों की सहायता से वह ख़बरें सामने ला रहे हैं। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को ख़बरें देने वाले स्थानीय पत्रकारों पर बहुत दबाव हैं। कुल मिलकर, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया 5 अगस्त के बाद की स्थिति की अपेक्षाकृत साफ़ तस्वीर प्रस्तुत करने में सक्षम रहा है। इसके परिणाम स्वरुप लेकिन उन पत्रकारों को निशाना बनाया जा रहा है जो अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों अथवा अपेक्षाकृत स्वतंत्र राष्ट्रीय प्रकाशनों और चैनलों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े हैं। सात पत्रकारों की एक "सूची" कथित रूप से बनायी गयी है। यह हैं: फ़याज़ बुखारी (रायटर), रियाज़ मसरूर (बीबीसी), परवेज़ बुखारी (एएफपी), एजाज़ हुसैन (एपी), नज़ीर मसूदी (एनडीटीवी) , बशरत पीर (एनवायटी) और मिर्ज़ा वहीद, निवासी लेखक यूके।
इसे प्रताड़ना का तरीका ही कहा जाएगा कि इनमें से तीन (फ़याज़ बुखारी, नज़ीर मसूदी और एजाज़ हुसैन), जो उन करीब 70 पत्रकारों में हैं जिन्हें सरकारी मकान मिले हुए हैं, से मौखिक रूप से घर खाली करने को कहा गया। इन्होंने लिखित नोटिस मांगे तो नहीं दिया गया।
(जारी)
नोट : रिपोर्ट पत्रकारों लक्ष्मी मूर्ति और गीता शेषु ने लिखी है जो नेटवर्क ऑफ वीमेन इन मीडिया, इंडिया की सदस्य हैं और फ्री स्पीच कलेक्टिव की संपादक हैं। दोनों 30 अगस्त से 3 सितंबर तक कश्मीर में थीं और चार सितंबर यह रिपोर्ट जारी की गई। दोनों संस्थाएं नॉन फंडेड और वालंटियर ड्रिवन हैं। )
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