Skip to main content

कश्मीर पर पक्षपाती हिंदी पत्रकारिता को चुनौती देती एक छोटी सामूहिक पहल ‘कश्मीर खबर’



अंग्रेजी मीडिया पर एक सरसरी नज़र से ही पता चल जाता है कि जहां कश्मीर को लेकर कुछ मीडिया घराने सत्ता-परस्त है , वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो हाशिये पर पड़े वर्गों की बात करते हैं। लेकिन, स्थिति हिंदी में और बुरी है जहां सत्ता-परस्त बयान एक तरह से डीफाल्ट सेटिंग बन चुका है। चाहे अनुच्छेद 370 हटाने पर जश्न मनाना हो या नागरिकों पर दमन को छिपाना या फिर कश्मीरियों की आवाज़ों को दबाना, हिंदी पत्रकारिता ने ईमानदार रिपोर्टिंग का चोला कब का उतार फेंका है।
ऐसे हालात में, हिंदी मीडिया को चुनौती देने की दिशा में एक फेसबुक पेज कश्मीर ख़बर एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम है। कुछ लोग 5 अगस्त के अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले के बाद एक साथ आए और कश्मीर ख़बर पेज बनाया गया, जिसका उद्देश्य उनके अपने शब्दों में था: “कश्मीर-विरोधी दुष्प्रचार के प्रत्युत्तर में ऐसे लेखों का हिंदी में अनुवाद करना जो कश्मीर की वास्तविकता और इतिहास को प्रस्तुत करते हो।“
पेश है संस्थापकों से किया गया विस्तृत साक्षात्कार :
हिंदी में कश्मीर ख़बर पेज शुरू करने का खयाल कैसे आया? क्या इसलिए कि हिंदी मीडिया अक्सर सरकार के पक्ष में और कश्मीर विरोधी समाचारों को प्रमुखता देता रहा है और दे रहा है?
5 अगस्त को भारत सरकार के फैसले ने कश्मीर पर कब्ज़े को कानूनी जामा पहना दिया। आर्थिक विकास, महिला सशक्तीकरण और यहाँ तक की उत्पीड़ित जातियों का उत्थान जैसे कई झूठे दावों से इस कदम को सही ठहराने की कोशिश की गई। राज्यसत्ता द्वारा गढ़ी हुई झूठी जानकारी के पहाड़ और साथ में संपूर्ण संचारबदी ने हमें इस संकट के जवाब में कुछ करने को मजबूर किया।
जब हमने यह कार्य शुरू किया था, हमारा उद्देश्य कश्मीर की सच्चाई और इतिहास दिखाने वाले लेख और ख़बरों का अनुवाद कर हिंदी में पेश करना था ताकि कश्मीरविरोधी दुष्प्रचार अभियान का प्रत्युत्तर दिया जा सकें। कश्मीर पर विश्वसनीय जानकारी और सामग्री मुख्य रूप से अंग्रेजी में ही उपलब्ध है, जो देश के अधिकांश लोगों की पहुंच से बाहर है। हमने व्हाट्सएप और दूसरे सोशल मीडिया मंचों से अपनी सामग्री का वितरण शुरू किया क्योंकि यही माध्यम हैं जिनके ज़रिए शासक ज़हरीली झूठी ख़बरें फैलाते हैं। हमें उम्मीद थी कि छोटे स्तर पर ही सही, पर इससे सत्ता द्वारा निर्मित झूठ की मशीनरी को चुनौती दी जा सकेगी और कश्मीर पर तथ्यआधारित संवाद के लिए गुंजाइश बनाई जा सकेगी। और इससे भी बढ़कर हम चाहते थे कि कब्ज़े और घेराबंदी के खिलाफ स्पष्ट रूप से रही कश्मीरी आवाज़ों को लोगों तक पहुंचाया जाए।
शुरुआती हफ्तों में समाचार केवल कुछ अंतरराष्ट्रीय मीडिया हाऊस की तरफ से ही रहे थे और भारतीय मडिया ज़मीनी हालात पर पूरी तरह खाामोश था, और केवल सत्तारूढ़ पार्टी उसके पिट्ठुओं के बयान चलाये जा रहे थे। इसलिए हमारे अनुवादों का फोकस कश्मीर पर उपलब्ध हर विश्वसनीय खबर तथा खुद कश्मीरियों की आवाजें और साक्ष्य थीं जो किसी तरह वहां से निकलकर बाहर रही थी। पहला महीना हमने दिनरात हर खबर का अनुवाद करने की कोशिश की और उसे फेसबुक, व्हाटसएप अन्य वैकल्पिक मीडिया पोर्टल के ज़रिये लोगों तक पहुंचाया क्योंकि हम चाहते थे कि हमारे पाठक ज़मीनी तथ्यों और ख़बरों से वाकिफ हों।
यह सही है कि हिंदी मीडिया, जो अधिकतर प्रभुत्वशाली जाति-हितों से नियंत्रित है, से कश्मीर गायब है। कश्मीर को मिली मामूली कवरेज भी या तो एक भारतीय का अल्पज्ञान से उपजा नज़रिया है, या फिरप्रगतिशील’ दिखने के लिए हड़बड़ी में की गयी खानापूर्ती सा। कश्मीरी लोगों से बरती जा रही यह अकल्पनीय क्रूरता दशकों से चली रही है और हर भारतीय नागरिक के नाम पर की जा रही है, उसे इसका इल्म हो या नहीं। सत्ता के आगे नतमस्तक हो जाने ने हमारी राय में भारत में पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों और मूल्यों को मिटाकर रख दिया है।
आपकी इस पेज से क्या अपेक्षाएं हैं?
यह काम शुरू करने का विचार उस संकट के समय में सहज स्वाभाविक प्रतिक्रिया था, जिसके भयावह नतीजे तेजी से सामने आने लगे थे। यह बहुत सुनियोजित नहीं था। हम ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचना चाहते हैं और चाहते हैं कि हमारी पठनीयता महानगरों के दायरे से बाहर भी हो। हमारा यह छोटा प्रयास अगर भारत में संघर्षशील, हाशिये पर धकेले गये समूहोंआंदोलनों को कश्मीर के लोगों से जोड़ पाने में थोड़ी भी मदद करें, तो इससे बेहतर कुछ नहीं।
हम अब एक वेबसाईट बनाने की प्रक्रिया में हैं जो हिंदी में कश्मीर पर जानकारी के स्रोत के रूप में काम करेगी और कार्यकर्ताओं, पत्रकारों आम पाठकों के लिए उपयोगी हो।
कश्मीर ख़बर टीम काम कैसे करती है? हम देख रहे हैं कि लिंक शेयर किये जाते हैं, लेखों के अनुवाद के साथ इंफोग्राफिक्स/चित्र होते हैं। क्या आप थोड़ा विस्तार से बता सकते हैं कि आपकी जानकारी के स्रोत क्या हैं?
हमारे कार्य के दो पहलू हैं:
पहला, हम विश्वसनीय समाचार नेटवर्क ढूँढ़ते हैं और किसी लेख की विषयवास्तु, तात्कालिक महत्त्व और प्रासंगिकता के आधार पर अनुवाद के लिए चुनते हैं। हममें से कोई इसका अनुवाद करता है और दूसरा वालंटियर उसकी प्रूफरीडिंग संपादन करता है। उसके बाद या तो लेखक या फिर मीडिया हाऊस से अनुमति ली जाती है, और अंंत में लेख किसी ऐसे हिंदी पोर्टल को भेजा जाता है जो उसे प्रकाशित करने के लिए तैयार हो। हम तस्वीरों के साथ लगे कैप्शन का भी अनुवाद करते हैं ताकि कम से कम हमारी तरफ से किसी मुद्दे का गलत प्रतिनिधित्व किया जाए। हम यह अनुवाद दुसरे वेबसाईट पर प्रकाशित इसलिए करते हैं ताकि यह लेख ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचें। हमारे व्हाट्सएप सर्कल से वह संभव नहीं था। यहां हमारे लिये यह ज़रूरी  है कि हम जनचौक, मीडिया विजिल, मार्जीन, जनज्वार वेबसाइट और समयांतर पत्रिका का शुक्रिया अदा करें क्योंकि उन्होंने लगातार हमारा सहयोग किया है और हमारे अनुवाद प्रकाशित किये हैं।


दूसरा, हम कश्मीरियों के बयानों, गवाहियों और ज़मीनी स्रोतों से पुष्ट की गयी जानकारी जुटाते रहे है, जो कई बार समाचार पोर्टलों पर भी जगह नहीं पाते। फिर हम इनके आधार पर उचित फोटोग्राफिक्स/फोटोचित्र बनाते हैं और फेसबुक व्हाट्सएप के ज़रिये प्रसारित करते हैं। हालांकि फेसबुक राजनीतिक दृष्टिकोण से संवेदनशील सामग्री सेंसर कर रहा है और हमारी पहुंच सीमित करने की कोशिश कर रहा है।
इस दौरान शुरुआती समय में हमने कुछ रेडियो बुलेटिन भी चलाये थे ऐसे लोगों तक पहुंचने के लिए जो पढ़ नहीं सकते। पर संसाधनों की कमी के कारण इसे हम जारी नहीं रख सके। हमारे इंफोग्राफिक हों जहां हम आंकड़ों पर आधारित जानकारी देते हों या फोटोग्राफिक्स जहां हर तस्वीर सावधानीपूर्वक चयनित होती है, हम एक निरंतरता और सटीकता बनाये रखने का प्रयास करते हैं। कुछ ग्राफिक्स के लिए तथ्यजम्मू कश्मीर कोलीशन ऑफ सिविल सोसायटीऔरऐसोसिएशन ऑफ पेरेंट्स ऑफ डिस्अपीयर्ड पर्संसकी तरफ से तैयाार रिपोर्टों से लेते हैं, और कुछ के लिए अन्य भारतीय सामाजिक कार्यकर्ताओं की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्टों से जुटाये गये हैं। हम हमेशा अपनी जानकारी के स्रोत के बारे में बताते हैं क्योंकि हम फेक न्यूज और ट्रोल्स के अस्तित्व से अंजान नहीं हैं।
अब तक हमने 150 से अधिक लेख और रिपोर्टों का अनुवाद किया है और लगभग 75 ग्राफिक्स तैयार किये हैं।
आपने कहा था कि आप अपनी पहचान और प्रोफाईल नहीं बताना चाहते पर क्या यह संभव है कि आप हमें अपने बारे में कुछ और बताएं? क्या कोई संस्थापक सदस्य कश्मीरी है? क्या कोई कश्मीरी आपके प्रयास में योगदान कर रहे हैं?
हम कुछ लोग हैं जो अलगअलग कार्यक्षेत्रों से हैं और पांच अगस्त के बाद एक साथ आये। हम में बस एक बात समान थीकश्मीरी लोगों के राजनीतिक अधिकारों को कुचलने की भारतीय राज्यसत्ता के ताज़ा कदम का विरोध। 
जैसेजैसे समय बीतता गया, बात फैली और कई दुसरे शहरों से भी लोग हमसे जुड़े और अपने अन्य कार्यों से जितना समय निकालकर दे सकते थे, हमें देने लगे। वास्तव में, हममें से कुछ कभी एक दूसरे से मिले भी नहीं हैं। भय के माहौल को देखते हुए कई लोगों ने अज्ञात रहकर ही अपना योगदान देने की पेशकश की इसलिए हम अपनी पहचान गुप्त रखने पर ज़ोर दे रहे हैं। इसके अलावा यह हर तरह से एक सामूहिक प्रयास है। लोगों की किसी भी संभव तरीके से मदद करने की तैयारी दिल छूने वाली थी। उदाहरण के लिए, हमसे दुसरे शहर से एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ने संपर्क किया,जो हिंदी में टाईप नहीं कर सकते पर योगदान देने के लिए इस कदर इच्छुक थे कि वह हाथ से लिखकर अनुवाद करते, फिर लिखे हुए पृष्ठों की तस्वीर खींच कर हमें भेजते, जिसे हम टाइप करते।
हमारा मीडिया में पहले कोई कार्य का अनुभव नहीं है और हम करतेकरते ही सीख रहे हैं। दूसरी बात जो स्पष्ट करनी चाहिए वह यह कि यह काम पूरी तरह से वालंटरी (स्वैच्छिक) है और इसका कोई भुगतान नहीं होता। हम तो किसी से पैसे लेते हैं किसी ने हमेंकाम पर लगायाहै जैसा कि कुछ लोगों ने समझा।
हमारा कोई भी सदस्य कश्मीरी नहीं है औरवो इसलिए कि हम मानते हैं यह कश्मीरियों की ज़िम्मेदारी नहीं है कि कश्मीर के मसले पर वह भारतीयों को क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षित करें। यह भारतीयों का ही कार्य ज़िम्मेदारी है, और बहुत पहले से किया जाना चाहिये था। हालांकि, हमारे काम में कश्मीरियों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति है, वह इस तरह कि हमारा फोकस खुद कश्मीरियों के लेखों का अनुवाद करने पर है। हम कई कश्मीरी पत्रकारों और लेखकों के संपर्क में हैं जो हमें अपने लेखों का अनुवाद करने की अनुमति देते हैं, और कुछ ने हमें जानकारी मार्गदर्शन भी दिया हैं। एक मामले में एक इंफोग्राफिक का सुझाव और डाटा एक कश्मीरी पत्रकार ने ही दिया और उन्होंने खुद ही सामग्री का हिंदी अनुवाद भी किया। हमने जिन भी कश्मीरियों से बात की लगभग सभी ने अपने लेख के अनुवाद के लिए खुशीखुशी अनुमति दी, इस उम्मीद में कि यह कश्मीर के सवाल पर भारत में फैले अज्ञानता को कुछ तो दूर करने में सहायक होगा।
हम कश्मीरियों की तरफ से बात नहीं करना चाहते। कश्मीर लोग बहादुरी से और पूरी ताकत से अपनी बात पिछले कई दशकों से खुद कह रहे हैं।
आपके अनुसार राष्ट्रीय (हिंदी) मीडिया में कश्मीर को कवर करने के तरीके में बदलाव के लिए और क्या किया जाना चाहिए?
उन्हें सिर्फ एक बात करनी होगी। सच का सम्मान करें और सच बोलना सीखें।
कश्मीर पर कवरेज में कश्मीरी आवाज़ों को प्रमुखता दी जानी चाहिए और तथ्य, मांगें और ज़मीनी सच्चाईयों को बिना राज्यसत्ता के डर या किसी पूर्वाग्रह के पेश किया जाना चाहिए। उन्हें कश्मीरियों कोराष्ट्रऔर राष्ट्रवाद के चश्मे से देखना बंद करना होगा क्योंकि यह उन्हें कश्मीर की सच्चाई देखने, समझने और प्रस्तुत करने से रोकता है। यह तब तक नहीं हो सकता जब तक मीडिया कश्मीरी लोगों के इतिहास और राजनीतिक मांगों के बारे में खुद को शिक्षित नहीं करता। उन्हें ब्राह्म्णवादी राष्ट्र की तरफ से दिमागों में भरी गई हिंसा को निकालना होगा। इसी तरह कश्मीर को केवल भारतीय संविधान के बरक्स देखना भी संकुचित और गलत नज़रिया होगा। यह कश्मीर या अन्य राष्ट्रीयताओं की मांगों और इतिहास से न्याय करना नहीं होगा। कश्मीरियों को पूर्वनिर्धारित चौखटे में धकेलना सही नहीं होगा और उनके आत्मनिर्णय के अधिकार का सम्मान करना होगा।
इसके अलावा आप हमारे पाठकों के साथ कुछ और साझा करना चाहेंगे?
हम चाहेंगे कि अधिकाधिक लोग कश्मीरी राजनीतिक मांगों के प्रसार में आगे आएं और अपनी भाषाओं, बोलियों और अभिव्यक्तियों में राज्यसत्ता प्रायोजित दुष्प्रचार का मुकाबला करें। यदि हम यह करने में उनकी कुछ मदद कर पाये तो हम इसे अपने लिए सम्मान की बात समझेंगे।
हम चाहते हैं कि हमारे पाठक कश्मीर को अपनी रोज़मर्रा की चर्चाओं का विषय बनाएं और इसे केवल सोशल मीडिया डिबेट या पैनल डिस्कशन तक सीमित रखें। भारतीयों को अपने विवेक से कई सवाल करने चाहिएं। हमें पता होना चाहिए कि वर्तमान शासन के तहत कश्मीर पर और भी अधिक हिंसा थोपी जाएगी और आने वाले वर्षों में क्षेत्र में अत्याचार के नयेनये तौर तरीके अपनाये जाएंगे। वैसे भी हम देख रहे हैं कि कश्मीर लोगों की स्मृतियों से निकलता जा रहा है। शुरू के सदमे के बाद अब अत्याचार सामान्य माना जाने लगा है। हम चाहते हैं कि कश्मीर को सामूहिक स्मृति में बनाये रखा जाए। आखिरकार, पढ़ना और स्मृति में ज़िंदा रखना प्रतिरोध के ही कार्य हैं।
आत्मनिर्णय और सम्मान के लिए कश्मीरी संघर्ष भारत में वर्ग, जाति, लिंग, क्षेत्रीय और भाषाई पहचानो से जुड़े कई अन्य सघर्षों से जुड़ा है और दक्षिणी एशिया में शांति बनाये रखने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

 (टू सर्कल्स डॉट नेट से साभार)

पेज का लिंक : https://www.facebook.com/search/top/?q=kashmir%20khabar%20&epa=SEARCH_BOX














 













 

Comments

Popular posts from this blog

प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा

-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं।  साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम

Premchand’s Torn Shoes

By Harishankar Parsai There is a photograph of Premchand in front of me, he has posed with his wife. Atop his head sits a cap made of some coarse cloth. He is clad in a kurta and dhoti. His temples are sunken, his cheek-bones jut out, but his lush moustache lends a full look to his face. He is wearing canvas shoes and its laces are tied haphazardly. When used carelessly, the metal lace-ends come off and it   becomes difficult to insert the laces in the lace-holes. Then, laces are tied any which way. The right shoe is okay but there is a large hole in the left shoe, out of which a toe has emerged. My sight is transfixed on this shoe. If this is his attire while posing for a photograph, how must he be dressing otherwise? I wonder. No, this is not a man who has a range of clothes, he does not possess the knack of changing clothes. The image in the photograph depicts how he really is. I look towards his face. Are you aware, my literary forbear, that your shoe is

"Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" bags 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival, Delhi

Sindhi movie "Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" (PHHYA) bagged 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival held this week at New Delhi by Sindhi Academy, Delhi Government. According to sources related to PHHYA, the movie which created history by premiering in Dubai in 2014, got awards for Best film (popular), Best director (Ramesh Nankani), Best Actor (Jeetu Vazirani) and Best Music Director (Hitesh Udhani). Award for best music was shared by Kamlesh Vaidya and Vijay Rupani (Vardaan)    The festival held on 27th and 28th May at Sirifort Stadium, New Delhi, screened 4 movies; PHHYA, Nai Shuruaat, Vardhaan and Trapadd Teshion Tey. Nai Shuruaat, a movie based on thalasemmia, bagged awards in category of Best film (critics) and Best cinematography (Unnidivakaran D Vinod). While Vardaan, with a message to save girl child, got award for Best female actor (Komal Chandnani) also.