"हम
पब्लिक ओपीनियन के खिलाफ नहीं जा सकते। अखबार का सर्कुलेशन गिरकर जो अब है उसका 25
फीसदी हो जाएगा और आर्थिक नुकसान हम सह नहीं पाएंगे।" डॉक्टर अशोक गुप्ता
के लेख को छापने से मना करते हुए कहता है 'जनवार्ता' का संपादक। सामने
डॉक्टर भी है और अखबार का मुद्रक प्रकाशक भी और स्थानीय नगरपालिका का अध्यक्ष भी, जो
डॉक्टर का छोटा भाई है पर लेख छापे जाने के खिलाफ है क्योंकि उससे चांदीपुर कस्बे
की बदनामी होगी।
मामला यह है कि डॉक्टर ने कस्बे के
प्रमुख आकर्षण यानी प्रसिद्ध मंदिर के चरणामृत में बैक्टीरिया पाये जाने की
पुष्टि की है और अगर यह बात तुरंत जनता की जानकारी में नहीं लाई गई और प्रशासन ने मंदिर को जलापूर्ति वाली
पाइपलाइन ठीक नहीं की तो प्रदूषित
जल से लोगों में फैल रही पीलिया की बीमारी महामारी का रूप ले सकती है। लेकिन मंदिर निर्माण करने वाले, जो सेठ भी हैं और
प्रभावशाली हैं, यह नहीं मानते। उनका मानना है कि चरणामृत दूषित हो ही नहीं
सकता क्योंकि उसमें गंगाजल और तुलसी के पत्ते मिले हैं। यह सब लोग मिलकर
'नास्तिक' डॉक्टर पर लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने और कस्बे की बदनामी कर
समृद्धि को नुकसान पहुंचाने के आरोप लगाते हैं और उसे समाज का दुश्मन;
'गणशत्रु' घोषित कर देते हैं।
यह सत्यजीत रे की फिल्म 'गणशत्रु' की कहानी
है। फिल्म इब्सेन के नाटक 'एन एनिमी ऑफ द पीपल' पर बनाई गई है और रे ने
उसका खूबसूरती से भारतीयकरण किया है। विज्ञान बनाम आस्था की बहस कथानक के केंद्र में
है लेकिन समाज में मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिए, इस पर भी बिना किसी
भाषणबाज़ी के रौशनी डाली गई है। मीडिया का काम पब्लिक सेंटीमेंट के साथ
बहना नहीं है, तथ्य सामने रखकर लोेगों को सही राय बनाने में मदद करना है। फिल्म में
एक और पत्रकार का किरदार है, 'जनवार्ता' का सहायक
संपादक। डॉक्टर का लेख अखबार में न छापने के संपादक के फैसले के कारण नौकरी छोड़
देता है और फ्रीलांसर बन जाता है ताकि डॉक्टर की बात को कोलकाता के अखबारों
के माध्यम से लोगों तक पहुंचा सके। अगर फिल्म नहीं देखी है तो देखियेगा ज़रूर, यूट्यूब पर सब
टाइटल के साथ उपलब्ध है।
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