(कार्टून : सुहैल नक्शबंदी के आर्काइव से, सौजन्य : एफएससी)
(एनडब्ल्यूएमआई-एफएससी रिपोर्ट)
कश्मीर में इन्टरनेट शटडाउन
कश्मीर के लिए इन्टरनेट शटडाउन कोई अनोखी बात
नहीं है और 2012 से 180 बार इसका अनुभव कर चुका है। 4 अगस्त 2019
को मोबाइल और ब्रॉडबैंड इन्टरनेट सेवाओं पर प्रतिबन्ध इस साल के सात महीनों में
55वां था।
पर यह पहली बार है कि मोबाइल, ब्रॉडबैंड
इन्टरनेट सेवाएं, लैंडलाइन और केबल टीवी सब एक साथ बंद किये गए, नतीजतन कश्मीर के
अन्दर और बाहर संचार के हर प्रकार को काट दिया गया।
2012 से इन्टरनेट शटडाउन का हिसाब रख रहे
सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेण्टर (एसएफएलसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार मोबाइल इन्टरनेट
सेवाओं पर सबसे बड़ी अवधि का बैन 2016 में 08 जुलाई 2016 को बुरहान वाणी के मारे
जाने के बाद विरोध प्रदर्शनों के समय रहा. तब मोबाइल इन्टरनेट सेवाएं 133 दिन बंद
रहीं। एसएफएलसी ट्रैकर के अनुसार, "पोस्टपेड
नम्बरों पर इन्टरनेट सेवाएं 19 नवम्बर 2016 को बहाल की गयीं, लेकिन प्रीपेड
उपयोगकर्ताओं की मोबाइल सेवाएं जनवरी 2017 में ही बहाल की जा सकीं, अर्थात
उन्होंने लगभग छह महीने इन्टरनेट शटडाउन का सामना किया।
संचार सेवाओं पर ख़ास बंद संबंधी कोई आधिकारिक
आदेश नहीं है और यदि है भी तो इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। सार्वजनिक
जगहों पर चार लोगों से अधिक के जमा होने पर प्रतिबन्ध लगाने वाली अपराध प्रक्रिया
संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 लागू होने के बाद प्रभावी, डिजिटल और ऑनलाइन संचार
के लिए इस प्रावधान के विस्तार की आलोचना भी की गई है और कानूनी रूप से इसे चुनौती
भी दी गयी है पर कोई लाभ नहीं हुआ। 2015 में गुजरात उच्च न्यायालय ने गौरव
सुरेशभाई व्यास बनाम गुजरात राज्य के मामले में सीआरपीसी 144 के इस्तेमाल को
बरकरार रखा। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69ए वेब
साईट को ब्लॉक करने देती है पर सभी तरह के इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन पर सम्पूर्ण
बैन इंडियन टेलीग्राफ एक्ट में अगस्त 2017 संशोधन के ज़रिये प्रभावी किया जा सका।
लेकिन संचारबंदी के लागू करने से सम्बंधित
प्रक्रिया में को पारदर्शिता नहीं है, किसी समिति की समीक्षा प्रक्रिया की तो बात
ही छोड़ दीजिये। इसीलिए अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद
संचारबंदी के लिए प्रशासनिक कारण शुरूआती "सतर्कता उपायों' से लेकर क़ानून और
व्यवस्था बनाए रखने से लेकर अब 'आतंकी गतिविधि' और 'आतंकियों के बीच संचार रोकना'
हो गए हैं।
यदि कोई कनेक्टिविटी है भी तो जासूसी और
निगरानी का स्तर आश्चर्यजनक है। सोशल मीडिया नेटवर्क नियमित रूप से खुफिया
निगरानी में हैं और यह छिपाने की कोई कोशिश तक नहीं की जाती। जिला
दंडाधिकारी आम तौर पर व्हाट्सएप समूहों के प्रशासकों को निर्देश जारी करते हैं कि
वह अपने समूहों और सदस्यों का विवरण जमा करवाएं।
23 अगस्त को कठुआ के जिला दंडाधिकारी ने एक
प्रेस विज्ञप्ति जारी कर प्रशासकों से कहा कि वह केवल 21 अक्टूबर 2019 तक 'केवल
एडमिन ही सन्देश भेज सकते हैं' स्टेटस लागू करें। एडमिन को यह भी
निर्देश दिया गया है कि संवेदनशील या कानून व्यवस्था की समस्या पैदा करने वाली
किसी भी पोस्ट या अफवाह' की जानकारी निकटस्थ पुलिस चौकी को दें।
अपडेट: 17 अगस्त को जम्मू के पांच जिलों - जम्मू, साम्बा, कठुआ, उधमपुर और रीसी -
में 2जी सेवाएं बहाल की गयीं पर पूँछ, राजौरी, किश्तवर, डोडा और रम्बा के सीमाई के
क्षेत्रों में निलंबित रहीं। लदाख में, चूंकि यह प्रीपेड और पोस्टपेड
कनेक्टिविटी के सन्दर्भ में डिजिटल इंडिया की परिधि में है, क्षेत्र के कुछ इलाकों में लैंडलाइन बहाल कए गए। कारगिल में इन्टरनेट सेवायें अनुच्छेद 370
हटाने को लेकर हुए विरोधों के बाद 9 अगस्त, 2019 को निलंबित की गयीं।
कश्मीर घाटी में, 17 टेलीफोन एक्सचेंज के तहर
लैंडलाइन और 35 पुलिस थाना क्षेत्रों के तहत 2जी सेवाएं बहाल की गयीं। प्रशासन ने दावा किया कि लैंडलाइन सेवाएं
मध्य कश्मीर के बडगाम, सोनामार्ग और मनिगम तथा उत्तरी कश्मीर के गुरेज़, तंगमार्ग,
उरी, करण, करनाह और तंगधार व दक्षिणी कश्मीर के काजीगुंड और पहलगाम में बहाल की
गयीं।
हालांकि यह सरकारी आंकड़े हैं। ज़मीनी हकीकत एकदम जुदा तस्वीर पेश करती है
और लोग कहते हैं कि लैंडलाइन या तो अभी बहाल किये जाने है या फिर कनेक्टिविटी
कमज़ोर है, लाइन होल्डिंग अनियमित और स्पष्टता बेहद कम।
प्रकाशन और वेबसाइट बंद होने से रोज़गार
हानि, वेतन कटौती और फ्रीलान्सर्स के लिए
समस्या
कश्मीर में मीडिया जो हालांकि जीवंत,
विविधिता लिए है और हाल के समय में यहाँ कई अखबार, पत्रिकाएं और डिजिटल प्लेटफार्म
शुरू हुए हैं, पर तीन दशकों के तनावपूर्ण माहौल में और आर्थिक व्यवहार्यता के अभाव
में संघर्ष करता रहा है। हालिया संकट ने इस विकट स्थिति को और विकट
किया है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 414 सूचीबद्ध अखबार
हैं जिनमें से 242 जम्मू में हैं और 172 कश्मीर में। 172 में से 60
उर्दू हैं और 40 अंग्रेजी। 100 दैनिक हैं और बाकी पाक्षिक और
साप्ताहिक. जम्मू कश्मीर का सूचना एवं जन संपर्क विभाग (डीआईपीआर) के पास सालाना
40 करोड़ के विज्ञापन बजट का नियंत्रण है।
केंद्रीय डायरेक्टरेट ऑफ़ एडवरटाइजिंग एंड
विजुअल पब्लिसिटी (डीएवीपी) से विज्ञापन 2010 से आने बंद हैं और अखबार डीआईपीआर पर
बुरी तरह निर्भर हैं। जब डीआईपीआर ने फरवरी में दो प्रमुख
अंग्रेजी दैनिकों के विज्ञापन निलंबित किये तो मीडिया बिरादरी ने अपना आक्रोश कोरे
मुखपृष्ठ छाप कर व्यक्त किया।
मीडिया जो कई स्वतंत्र अख़बारों को पहले से
सरकारी विज्ञापनों के प्रतिबन्ध के कारण वित्तीय रूप से संकट में था, अब लॉकडाउन
के कारण निजी कारोबारियों से राजस्व न आने के कारण और संकट और गहरा गया है।
कई अख़बारों को लगभग 75 फ़ीसदी स्टाफ निकालना
पड़ा है। वरिष्ठ पदों पर बैठे लोगों को वेतन में 30 फ़ीसदी कटौती झेलनी पड़ रही है।
भले ही कुछ राष्ट्रीय अखबार और पत्रिकाओं के
प्रबंधन कश्मीर से योगदान करने वालों के कम हुए योगदान को समझ सकते हैं, पर डर है
कि यह स्थिति ज्यादा समय नहीं चल सकती और उन लोगों के अनुबंध टूट सकते हैं।
एक पत्रकार ने कहा, "आज 3 सितम्बर है और
मुझे वेतन नहीं मिला। पता नहीं मिलेगा भी या नहीं।"
कई पत्रकार स्वतंत्र पत्रकार यानी फ्रीलांसर
हैं जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की वेबसाइट और प्रकाशनों के लिए लिखते
हैं। एक ने बताया, "आखिरकार 20 अगस्त को
मैंने अपना मेल देख सका और मैंने देखा कि मुझे इस दौरान 12 असाइनमेंट मिले थे। मैं एक का भी जवाब नहीं दे पाया।"
महिला पत्रकार बैरिकेड से जूझ रही हैं
सड़कों पर बढ़ी सैन्य उपस्थिति और शटडाउन ने
कश्मीर में महिलाओं को असंख्य तरीकों से प्रभावित किया है। महिला
पत्रकारों के लिए जानकारी जुटाना और अपनी ख़बरें व तस्वीरें प्रकाशनों को भिजवाना
एक बड़ी चुनौती है। वास्तव में, मीडिया फैसिलिटेशन सेण्टर बनने
के बाद भी ख़बरें भेजने में आ रही दिक्कतों के कारण उन्हें प्रशासन से एक कंप्यूटर अपने
इस्तेमाल के लिए माँगना पड़ा।
घाटी में कार्य करने की कोशिश करती महिला
पत्रकार आवाजाही पर कड़े प्रतिबंधों और सैन्यीकृत सड़कों से निबटने में बड़ी
चुनौतियों का सामना कर रही हैं। अधिकांश के पास निजी परिवहन साधन नहीं है,
जिससे उनका कहीं आना-जाना और मुश्किल साबित हो रहा है। सुरक्षित रहने
के लिए परिवारों का दबाव भी उन्हें खुद को जोखिम की संभावनाओं वाली परिस्थितियों
में डालने से रोक रहा है। महिला छाया पत्रकार, अनुच्छेद 370 हटाये
जाने से हुए प्रलयकारी परिवर्तन के बाद की घटनाओं का दर्शनीय रिकॉर्ड रचने के लिए
अपने श्रेष्ठ प्रयास कर रही हैं। एक ने हमें बताया कि कैसे सुरक्षा बल
अभूतपूर्व सैन्य तैनाती और सैन्य बलों के खिलाफ आन्दोलनों के दर्शनीय रिकॉर्ड पर रोक
लगा रहे हैं। पुरुष और महिला, दोनों छाया पत्रकारों को
नियमित रूप से रोका-टोका जाता है और विरोध प्रदर्शनों, खासकर पथार्बाज़ी की फुटेज
डिलीट करने पर मजबूर किया जाता है।
दूसरा प्रतिबंधित क्षेत्र अस्पताल थे जहाँ
पेलेट चोटों और सुरक्षा बलों की पिटाई के पीड़ितों का उपचार चल रहा था। महिला पत्रकारों ने पीड़ितों के रिश्तेदार
बनकर भी वहां जाने की कोशिश की। वास्तव में महिला पत्रकार उन कश्मीरी
महिलाओं से नाता जोड़ने में सफल रही हैं, जो संचारबंदी, सैन्यीकरण और आवाजाही पर
प्रतिबंधों के कारण बहुत मुश्किलों का सामना कर रही हैं। प्रसूताओं,
बीमार महिलाओं और अपने पारिवारिक सदस्यों का उपचार करा रही महिलाओं को चिकित्सा
सुविधाएँ हासिल करने में बहुत परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, सरकार भले दावा
करे कि दवाएं मिल रही हैं और अस्पताल आम जैसे चलते हैं, चल रहे हैं।
महिलाओं को परिजनों की गिरफ्तारियों के कारण
भी भुगतना पड़ रहा है, सरकार ने गिरफ्तारियों के आंकड़े जारी नहीं किये हैं। युवकों (कई नाबालिग लड़के भी) की माँ और
बहनें घंटों पुलिस थानों के बाहर इंतज़ार करती हैं अपने बेटों, भाइयों या पिता से
मिलने, ढूँढने के लिए। हजारों को प्रदेश के बाहर भेज दिया गया है,
जिससे उन्हें लम्बी और खर्चीली यात्राएँ कर आगरा, बरेली, जोधपुर, रोहतक और झज्जर
जेलों में जाना पड़ रहा है, अपनों से मिलने के लिए। जम्मू और
कश्मीर ने दुनिया में सर्वाधिक संख्या में जबरन गायब किये जाने के मामले देखे हैं
और यह आंकड़े लगभग 4000 (सरकारी) से लेकर लगभग 8000 (सिविल सोसाइटी) तक हैं, ऐसे
में उनकी आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं तथा महिलाएं अपनी पूरी ताकत और क्षमता से अपनों
को ढूँढने के लिए जो कर सकती हैं, कर रही हैं। उनकी कहानियां
अभी बतायी जानी बाकी हैं।
(जारी)
(नोट : रिपोर्ट पत्रकारों लक्ष्मी मूर्ति और गीता शेषु ने लिखी है जो नेटवर्क ऑफ वीमेन इन मीडिया, इंडिया की सदस्य हैं और फ्री स्पीच कलेक्टिव की संपादक हैं। दोनों 30 अगस्त से 3 सितंबर तक कश्मीर में थीं और चार सितंबर यह रिपोर्ट जारी की गई। दोनों संस्थाएं नॉन फंडेड और वालंटियर ड्रिवन हैं। )
(नोट : रिपोर्ट पत्रकारों लक्ष्मी मूर्ति और गीता शेषु ने लिखी है जो नेटवर्क ऑफ वीमेन इन मीडिया, इंडिया की सदस्य हैं और फ्री स्पीच कलेक्टिव की संपादक हैं। दोनों 30 अगस्त से 3 सितंबर तक कश्मीर में थीं और चार सितंबर यह रिपोर्ट जारी की गई। दोनों संस्थाएं नॉन फंडेड और वालंटियर ड्रिवन हैं। )
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