-प्रणव प्रियदर्शी घर से निकलते समय ही अनिता ने कहा था, ‘बात अगर सिर्फ हम दोनों की होती तो चिंता नहीं थी। एक शाम खाकर भी काम चल जाता। लेकिन अब तो यह भी है। इसके लिए तो सोचना ही पड़ेगा।’ उसका इशारा उस बच्ची की ओर था जिसे अभी आठ महीने भी पूरे नहीं हुए हैं। वह घुटनों के बल चलते, मुस्कुराते, न समझ में आने लायक कुछ शब्द बोलते उसी की ओर बढ़ी चली आ रही थी। अनिता के स्वर में झलकती चिंता को एक तरफ करके अशोक ने बच्ची को उठा लिया और उसका मुंह चूमते हुए पत्नी अनिता से कहा, ‘बात तुम्हारी सही है। अब इसकी खुशी से ज्यादा बड़ा तो नहीं हो सकता न अपना ईगो। फिक्कर नॉट। इस्तीफा वगैरह कुछ नहीं होगा। जो भी रास्ता निकलेगा, उसे मंजूर कर लूंगा, ऐसा भी क्या है।’ बच्ची को गोद से उतार, पत्नी के गाल थपथपाता हुआ वह दरवाजे से निकल पड़ा ऑफिस के लिए। इरादा बिल्कुल वही था जैसा उसने अनिता से कहा था। लेकिन अपने मिजाज का क्या करे। एक बार जब दिमाग भन्ना जाता है तो कुछ आगा-पीछा सोचने के काबिल कहां रहने देता है उसे। मामला दरअसल वेतन वृद्धि का था। अखबार का मुंबई संस्करण शुरू करते हुए सीएमडी साहब ने, जो इस ग्रुप के म...
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