सिर्फ ५० सालों में नष्ट हो जायेगी मनुष्य जाति!
लेखक : एड. गिरीश राऊत
(भारतीय पर्यावरण आंदोलन)सितंबर २०१६ पूर्ण पृथ्वी के बढ़ते रिकॉर्ड तापमान का लगातार १७वां महीना था। इन महीनों में रिकॉर्डतोड़ तापमान बीसवीं शताब्दी के औसत से ०.८९ डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा था। इन १७ महीनों में तापमान पिछले वर्षों के उन्हीं महीनों की तुलना में ०.२० डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा था। पिछले वर्ष जून से इस साल के जून तक एक साल में पृथ्वी के औसत तापमान में ०.२४ डिग्री सेंटी की वृद्धि हुई है। जनवरी १९८५ से अब तक ३७० महीनों में हर महीने अधिकतम तापमान बीसवीं शताब्दी के पृथ्वी के औसत तापमान से ज्यादा था। फरवरी, मार्च में लू से अलास्का में २० लाख हेक्टर ध्रुवीय वन शहरी इमारतों समेत जल गया। संदर्भः वैश्विक मौसम संगठन, अमेरिका के नासा, और राष्ट्रीय महासागर एवं वातावरण प्रशासन की रिपोर्ट।
वातावरण में कार्बन डाय ऑक्साईड, मिथेन और अन्य दूषित गैसों का प्रमाण तेजी से बढ़ रहा है। सन् १९९७ के क्योटो प्रोटोकाल के उद्देश्य पूरे नहीं किये जा सके हैं। पृथ्वी पर सभी जगह वातावरण में कार्बन ने ४०० पीपीएम प्रमाण (Parts Per Million) (१ पीपीएम यानी ३०० करोड़ टन) पार किया है। यह खतरे की घंटी है। कारण अब सिर्फ आने वाले पांच से दस वर्षों में तापमान वृद्धि अनियंत्रित हो जाने के हालात हैं। ऐसा हो गया तो सिर्फ लगभग ५० वर्षों में यानि आज के बच्चों और युवाओं के जीवनकाल में ही मनुष्य जाति और अधिकांश जीवसृष्टि नष्ट हो जाएगी।
पैरिस करार से मनुष्य जाति की रक्षा के लिए उद्योगपूर्व समय के स्तर की तुलना में वैश्विक औसत तापमान २ डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक न बढ़े इसके लिए कोशिश करने की जरूरत पर ज़ोर दिया गया था। इस पृष्ठभूमि में वायु के वातावरण में कार्बन डाय ऑक्साईड की वृद्धि पर एक नजर डालते हैं। वैश्विक मौसम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार जहां २०१५ की वसंत ऋतु (मार्च से मई) में कार्बन डाय ऑक्साईड ने ४०० पीपीएम का स्तर वैश्विक औसत से पार किया वहीं उद्योगपूर्व काल की तुलना में कार्बन का वातावरण में प्रमाण ४३ फीसदी से बढ़ा।
पिछले जून से इस साल जून तक १/५ डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि और इसी गति से अगले चार वर्षों में वृद्धि के अनुमान को ध्यान में रखें तो सन् २०२० तक होने वाली कुल १ डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि देखते हुए पैरिस करार द्वारा निर्धारित २ डिग्री सेंटी ग्रेड की वृद्धि रोकने का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। औसत तापमान एक वर्ष में १/५ डिग्री सेंटीग्रेड अथवा ५ वर्ष में १ डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि पृथ्वी पर आज तक कभी नहीं हुई। इसीलिए वैश्विक मौसम संगठन कहता है, "वातावरण में परिवर्तन अब बेहद खतरनाक हो गया है। भविष्य चिंताजनक है।" एक बार वातावरण में कार्बन ने प्रवेश किया तो एक हजार वर्ष टिकता है और तापमान बढ़ता रहता है। यह ध्यान में रखने वाली बात है कि अब अल नीनो बीत जाने पर भी तापमान बढ़ रहा है।
पिछले ४० वर्षों में हर दशक में होने वाली ०.१५ डिग्री सेंटीग्रेड से ०.२० डिग्री सेंटीग्रेड की वैश्विक तापमान वृद्धि, समतापदर्शक (Isotherm) रेखाओं और वातावरणीय क्षेत्रों (Climate Zone) को विषवृत्त से ध्रुव की तरफ हर दशक में ३५ मील दूर धकेलने का कारण बनी है। इस गति से होने वाले परिवर्तन का वनस्पति और प्राणी सामना नहीं कर सकते। इतनी तेजी से वह क्रमागति विकास के अनुसार खुद को अनुकूल नहीं बना सकती। अब तो हर दशक में होने वाली तापमान वृद्धि एक वर्ष में हो रही है। इसका अर्थ है कि हम विनाश की चौखट पर खड़े हैं। पृथ्वी पर आपातकाल की स्थिति बन गई है।
डॉ. जेम्स हैनसेन की स्टोर्म्स ऑफ़ माय ग्रैंड चिल्ड्रेन पुस्तक सन् २००९ में प्रकाशित हुई। इसके पृष्ठ १७१, १७२, १७३ पर डॉ. हैनसेन लिखते हैं, "यदि आप चाहते हैं कि पृथ्वी पर जीवन रहे तो पृथ्वी के गर्भ में बचे खनिज ईंधन (कोयला, तेल, वायु) पृथ्वी के गर्भ में ही रहने दें।" उनकी पुस्तक के मुखपृष्ठ पर ही चेतावनी दी गई है, "महाविस्फोटक वातावरण परिवर्तन के बारे में सच्चाई" और मानवजाति बचाने के लिए हमारे पास उपलब्ध आखिरी मौका"। इस ग्रंथ में दिए गए नासा के अध्ययन के अनुसार पृथ्वी पर आए सबसे तेज उष्ण युग में वातावरण में कार्बन की वृद्धि रफ्तार दस हजार वर्षों में १ पीपीएम (३०० करोड़ टन) था। लेकिन हाल के मानव निर्मित उष्ण युग में वह एक वर्ष में २ पीपीएम (६०० करोड़ टन) है जो डरावना है।
इस समय की १ डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि होती रही तो सन् २०२० तक के पांच साल और उसके बाद के १ डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि के पांच साल आखिरी मौका हैं। कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली अर्थव्यवस्था, और नवीनीकरणक्षम, गैर कार्बन ऊर्जा स्रोतों के उपाय करने के लिए समय नहीं है। मनुष्य जाति इसी गलतफहमी के कारण अब तक गाफिल रही है। दूसरी बात सौर घट निर्माण करने के लिए कम से कम २००० डिग्री सेंटी ग्रेड तक तापमान बढ़ाना पड़ता है। निम्नस्तरीय यूरेनियम जो अब विश्व में मुख्यतः बचा है, उसका इस्तेमाल कर बिजली बनाने से होने वाला कार्बन उत्सर्जन कोयला इस्तेमाल कर बनाने वाली बिजली से होने वाले कार्बन उत्सर्जन जितना ही होता है। इससे कार्बन उत्सर्जन के मुद्दे पर परमाणु ऊर्जा बेकार है। परमाणु ऊर्जा भी कार्बन उत्सर्जन करती है। वातावरण परिवर्तन और तापमान वृद्धि कम करने की दृष्टि से परमाणु ऊर्जा विकल्प नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी गैर कार्बनी ऊर्जा स्वीकार की गई तो जंगलों और सागर में हरित द्रव्य का नाश अधिक तेजी से होगा। पश्चिमी शैली से विचार किया गया तो विनाश अटल है। कारण उसमें अस्तित्व से ज्यादा अर्थव्यवस्था की चिंता अधिक है। अब सिर्फ कार्बन उत्सर्जन तुरंत बंद किया गया तभी मनुष्य जाति और जीवसृष्टि के बचने की संभावना है। उसमें भी देखना होगा कि एक ही समय कार्बन उत्सर्जन बंद हो और उसी समय कार्बन ढूंढने वाली जमीन और महासागर के हरित द्रव्य बढ़ने लगें।
लगभग ४५ करोड़ वर्ष पहले सागर में जीवन भूमि पर फैलने लगा। उत्क्रांति सिद्धांत के अनुसार विकसित होने वाले इस जीवन में वनस्पति, हरे पदार्थ ने वातावरण की कार्बन डाय ऑक्साईड कम कर प्राणवायु की मात्रा बढ़ाई। जीवन के प्रदीर्घ काल प्रवाह में १००० वर्षों का ‘कृषियुग बेहद छोटा काल है। तभी शाश्वत जीवन संभव हुआ। लेकिन मशीन आने से केवल २५० वर्षों में वातावरण, जलावरण, मृदावरण, जीवावरण, सभी का नाश हुआ।
विकास एक भयंकर दुर्घटना
हाल में भारत में आम तौर पर प्रति दिन पंद्रह लाख टन कोयला जलाया जाता है। इससे रोज लगभग एक लाख चैदह हजार मेगावाट बिजली उत्पादित होती है। इसके लिए लगभग छह लाख टन राख रोज नदियों, खाड़ियों, सागर में फेंकी जाती है। उसके लिए करोड़ों लिटर पानी लगता है। लाखों टन विषैली वायु सूक्ष्म राख के साथ वातावरण में छोड़ी जाती है। इन गर्म बिजली कारखानों ठंडा रखने के लिए नदियों और सागर से हर दिन साठ हजार करोड़ पानी खींचा जाता है। गरम हुआ पानी फिर नदी-समुद्र में छोड़ा जाता है। इससे जीवसृष्टि का प्रचंड नुकसान होता है और तापमान बढ़ता है। इसीलिए औद्योगिक विकास एक भयंकर दुर्घटना है।
कैंसर रोगग्रस्त अथवा जिसकी किडनी पूरी तरह से फेल हो चुकी हो, ऐसा व्यक्ति जीवित रहने के लिए हर संभव प्रयास करता है, अब तक प्रिय लगने वाले गलत आहारों का, आदतों का त्याग करता है। क्योंकि उसे जीवन का महत्व पता चल चुका होता है। आज मनुष्य जाति इसी अवस्था में है। औद्योगिकीकरण कैंसर है। समझदारी यही कहती है कि, जीवन जीवनशैली के मुकाबले महत्वपूर्ण है। आज मनुष्य जाति बचानी है तो जीवनविरोधी और औद्योगिक जीवनशैली तुरंत छोड़नी होगी।
पृथ्वी के जन्म से यानी लगभग ४८० करोड़ साल से जीवन की तरफ बढ़े कदम एक तरफ और जीवन नष्ट करने वाली आधुनिक, अल्पायु, बुदबुदों की तरह बढ़ने वाली जीवनशैली दूसरी तरफ। मनुष्य को शाश्वत जीवन और इस जीवन नष्ट करने वाली आधुनिक, भौतिक जीवनशैली में से चयन करना है। चयन स्पष्ट है। वह जीवन का ही हो सकता है। वास्तव में जो पृथ्वी पर पिछले २५० सालों में किया गया वह विज्ञान नहीं था। वह विज्ञान का उपयोजित रूप यानी तकनीकी ज्ञान था। विज्ञान खालिस हकीकत बताता है। आज विज्ञान भौतिक साधन और जीवनशैली छोड़ने को कह रहा है। तभी मनुष्य जाति बच सकती है।
सवाल उठता है कि दार्शनिक हमें सच क्यों नहीं बताते। आज ब्रूनो, कोपर्निकस, गैलीलियो की परंपरा के दार्शनिक दुर्लभ हैं। अधिकांश तो तकनीकज्ञ हैं। तब के दार्शनिकों ने सत्य के लिए सुख छोड़े, बलिदान किया। आज के वैज्ञानिक सुख के लिए सत्य छोड़ते हैं।
सही उत्तर ऊर्जारहित जीवन शैली में है। जिन चीजों के लिए कार्बन ऊर्जा का इस्तेमाल होता है, उन्हें रोकना समस्या का उत्तर है। उद्योग, बिजली निर्माण, परिवहन, रासायनिक, मशीन आधारित खेती कार्बन उत्सर्जन के पांच मुख्य कारण हैं। थोड़े में औद्योगिकीकरण शहरीकरण है। कार पृथ्वी पर कुल उत्सर्जन में से ७५ फीसदी कार्बन उत्सर्जन करती है। अब औद्योगिकीकरण समस्या की जड़ में जाकर उपाय करना होगा। औद्योगिकीकरण शहरीकरण रोकना होगा। इससे एक तरफ कार्बन उत्सर्जन रुकेगा। वह रोकना यह रोकना अत्यावश्यक है। कार्बन उत्सर्जन को शून्य पर लाना जरूरी है। उससे दूसरी तरफ जंगल और सागर में हरा द्रव्य फिर से बढ़ने लगेगा। पृथ्वी जीवन देने के लिए है, नौकरी देने के लिए नहीं। विकास मानसिक, वैचारिक, आत्मिक होना चाहिए भौतिक, आर्थिक नहीं। अभाव, गरीबी नहीं पर सादगी होनी चाहिए, वह शाश्वत है।
ऐसा भ्रम फैल गया है कि नौकरी और व्यवसाय से मिलने वाले पैसे से हम जीवित हैं। यह ‘उदर निर्वाह, नहीं ‘मोटर निर्वाह, है। कंप्यूटर, मोबाईल, फ्लैट, बंगला निर्वाह है, टीवी निर्वाह है। पृथ्वी के सब जीव (२० करोड़ जीवजंतु) उदर निर्वाह करते हैं। परंतु आधुनिक इंसान जो कुछ करते हैं उसे गलती से उदर निर्वाह कहते हैं। इसे पृथ्वी के शाश्वत जीवनदायी कार्यपद्धति के स्थान पर नहीं रखा जा सकता। यह जीवन देने वाला एकमात्र ग्रह है। सभी जीव इसीसे संतुष्ट हैं कि उन्हें जीवन मिला पर आधुनिक इंसान नहीं। कागज की करेंसी (पैसे) छापकर गंवाया गया तापमान, वातावरण, जैविक विविधता, जंगल, नदियां, महासागर, पर्वत आदि फिर से लाये नहीं जा सकते।
आज भी सभी इंसान प्राकृतिक और जैविक खेती कर जी सकते हैं। सभी शहरी लोग आज भी खेती के कारण ही जिंदा हैं। लेकिन अब मनुष्य जाति के जिंदा रहने के लिए उन्हें खुद खेती करने की जरूरत है।
हमें अस्तित्व देने वाली पृथ्वी के प्रति कृतज्ञता मानकर उसकी मर्यादा में और नियमानुसार जीवन पद्धति तुरंत स्वीकारी तो मनुष्य जाति और सृष्टि की रक्षा हो सकती है। इंसान ने अगर, हम अनादि अनंत काल में एक चरण में शरीर रूप में प्रकट होने वाला शाश्वत चैतन्य का अविष्कार हैं, यह जानकर उपभोगवाद का त्याग किया तो यह संभव है। उपभोग प्राकृतिक है, उपभोगवाद नहीं।
प्रकृति ने पृथ्वी को स्वर्ग बनाया, औद्योगिकीकरण ने नरक
पर्यावरण सत्य है, औद्योगिकीकरण मिथ्या
प्राकृतिक, जैविक खेती जीवन है, औद्योगिकीकरण विनाश
(नोट: मूल मराठी लेख से हिंदी अनुवाद महेश राजपूत)
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