पिछले कुछ दिनों से मेरे बैकपैक की चेन टूटी हुई है। बनाने का समय
नहीं मिल रहा। रोज़ दोपहर में घर से निकलने से लेकर रात में घर पहुँचने तक दो-तीन
नितांत अजनबियों की आवाज़ सुनाई ही पड़ जाती है, "अंकल/भाईसाहब, आपके बैग की
चेन खुली हुई है।" अच्छा लगता है। लगता है, लोगों को मेरी परवाह है। अभी समाज
में पूरी तरह 'अदृश्य' नहीं हो गया। ऐसा ही अनुभव तब भी होता है जब, जूतों के
तस्मे न बाँधने की अपनी बड़ी बुरी और पुरानी आदत के कारण कोई अनजान लड़की, कोई बूढा
या कोई नौजवान मुझे टोकता है। "जूते के लेस बाँध लो, गिर जाओगे।" अपनी
बात न करूँ तो, चंडीगढ़ में भी जहाँ मैं फिलहाल हूँ और मुंबई में भी जहाँ मैंने
अपना तमाम जीवन बिताया है, कई बार देखा है, लोगों को किसी नेत्रहीन को रास्ता पार
कराते हुए। मुंबई में चर्चगेट के पास व्यस्त सिग्नल पर अचानक वाहनों के लिए सिग्नल
हरा हो जाने के बाद एक रिरियाते अपंग को रास्ता पार कराने के लिए पांच-छह लोगों को
मानव श्रृंखला बनाकर ट्रैफिक रोकने और दो लोगों के उस अपंग को रास्ता पार कराने का
दृश्य भी मैंने देखा है।
आप कहेंगे मैं कहना क्या चाहता हूँ? यही, कि दुनिया में अच्छे लोग
बहुत हैं। बहुत सारे लोग हैं जो दूसरों की मदद करने के लिए तत्पर रहते हैं। लेकिन
यहाँ एक कैच है! अधिकाँश लोग और अब इनमें मैं खुद को भी शामिल करता हूँ, किसीकी
मदद तभी करते हैं जब उन्हें सुविधा हो या फिर बहुत असुविधा न हो। जैसे चंदा/भीख
देने के समय अपनी कमाई का बहुत छोटा सा हिस्सा दिया जाता है, जिससे खुद की जेब पर
कोई ख़ास असर नहीं होता है। बेहद अमीर व्यक्ति भी अपनी कमाई का बहुत छोटा हिस्सा ही
सामाजिक कार्यों (मंदिरों या धार्मिक कार्यों के लिए चंदे की मैं बात नहीं कर रहा)
के लिए देता है। कोई अपना घर लुटाकर किसीको दान/चंदा नहीं देता, यहाँ मैं अपवादों
की बात नहीं कर रहा। मैं आम मानसिकता की बात कर रहा हूँ। और इसके पीछे कहीं न कहीं
एक अपराध बोध भी छिपा होता है। लोग बेईमानी/दूसरों के शोषण से अर्जित धन का कुछ
हिस्सा दान-धर्म में लगाकर अपना अपराध बोध हल्का करना चाहते हैं। अपने पापों को कम
करना चाहते हैं। यहाँ मैं बता दूं कि मैं नास्तिक हूँ और मेरा पाप-पुण्य,
धर्म-अधर्म, अगले-पिछले जनम जैसी बकवास में कोई विश्वास नहीं है। पर अधिकांश लोग
मानते हैं! यहाँ मैं यह भी नहीं कहना चाहता कि जो भी अच्छा काम करते हैं वह इसी भावना
से करते हैं। पर यह ज़रूर कहना चाहता हूँ कि हम यह समझकर भी नहीं समझते कि समाज में
यदि शोषण, अन्याय-अत्याचार नहीं होगा तो किसीको किसीकी मदद की ज़रुरत भी नहीं होगी।
अंग्रेजी में एक कहावत है, "Charity
is counter part of cruelty।" दान-धर्म क्रूरता का ही दूसरा
पहलू है! हमारे समाज में असमानता और शोषण इतना ज्यादा है कि लाखों "डू
गुडर्स" के ऐसे छोटे-मोटे जेस्चर भी पर्याप्त नहीं हैं। ज़रुरत यह व्यवस्था
बदलने की है! ज़रुरत किसीकी मदद करने की नहीं, किसीका हक़ न मारने की है। अगर आप
किसीका हक़ नहीं मारेंगे तो किसीकी मदद करने की ज़रुरत भी आपको नहीं होगी। कम से कम
मैं तो यही मानता हूँ। कुछ ज्यादा तो नहीं हो गया?
"बैठे-ठाले" ब्लॉग के सभी पाठकों को नए साल के लिए
शुभकामनाएं! Happy New Year!
#कुछ भी! - 1/-महेश राजपूत
It's really nice thought. Keep continued!!
ReplyDeleteThank you for encouragement, Surajji!
Deleteबहुत अच्छा लगा पढ़कर. सटीक और सरल. बैग की चेन और जूतों की तस्मों के किस्से मेरे साथ भी हो चुके हैं.
ReplyDeleteThank you, Sunitaji!
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