पढ़ने
वालों के लिये चेतावनी: यह कोई टिपीकल फिल्म समीक्षा नहीं है पर अगर आप फिल्म
देखना चाहते हैं तो आगे न पढ़ें। आपका मज़ा किरकिरा हो सकता है।
यहां बस इस फिल्म को देखने के बाद पटकथा और प्रस्तुतिकरण के बारे में मन में आये कुछ उलटे-सीधे विचार यहां पेश करने की कोशिश की गई है...
फिल्म
के विषय वस्तु के साथ समस्या नहीं है। दो लड़कियों के बीच प्रेम कहानी है,
जो अनकन्वेंशनल होने के कारण दिलचस्प फिल्म हो सकती थी लेकिन प्रस्तुतिकरण इतना
'बॉलीवुडिश' है कि फिल्म उस तरह से दिल को छू नहीं पाती। हालांकि कथित मुख्यधारा की यानी बॉलीवुड
फिल्मों में समलिंगी किरदार पहले भी आये हैं पर वह अधिकतर कैरीकैचर होते हैं और
प्रमुख किरदार नहीं होते ऐसे में एक पूरी फिल्म के केंद्र में दो लड़कियों
की प्रेम कहानी हो तो अपने आप में यह एक अनूठी या हटके बात हो जाती है। फिल्म का सकारात्मक पहलू विषय ही है जो संवेदनशील है और एलजीबीटी समुदाय को नकारात्मक नजरिये से पेश नहीं करता या उनका मज़ाक नहीं उड़ाता पर
जैसाकि ऊपर मैंने कहा है, समस्या पटकथा और प्रस्तुतिकरण के साथ है, जिससे
यह बेहद साधारण फिल्म बनकर रह गई है।
पटकथा के साथ सबसे बड़ी समस्या बार-बार इसका
प्वाइंट ऑफ व्यू शिफ्ट होना है ('बॉलीवुड की अधिकांश फिल्मों के साथ यह
समस्या होती है)। कभी यह कहानी सोनम के किरदार के प्वाइंट ऑफ व्यू से चलती
है तो कभी राजकुमार राव के किरदार के नजरिये से और कभी अनिल कपूर के किरदार के। फिल्म
स्वीटी (सोनम) और कुहू (रेजीना कैसेंड्रा) की प्रेम कहानी के बारे में है पर अस्सल कहानी शुरू होती
है इंटरवल के बाद से। इंटरवल तक तो भूमिका ही बांधी गई है और स्वीटी के
प्रेमी (प्रेमिका) के बारे में अनावश्यक रूप से सस्पेंस बनाकर रखा गया है।
स्वीटी का कन्फिल्क्ट 'बाहरी' कम 'आंतरिक' ज़्यादा है, जो अपने आप में कोई
समस्या नहीं है, पर चूंकि स्वीटी हालात से उबरने के लिये कोई कोशिश करती
ही नहीं दिखाई देती और परिवार के खिलाफ जाने की बात तो जाने दीजिये, उन्हें अपने
प्रेम के बारे में बताने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाती इसलिये कन्फिल्क्ट
स्टेटिक है यानी किरदार बेहद कमज़ोर है। परिवार को सच्चाई से अवगत कराने का जिम्मा साहिल मिर्ज़ा (राजकुमार राव) ही अपने हाथ में लेता है और सारी
योजना बनाता है (प्वाइंट ऑफ व्यू शिफ्ट)। क्लाइमैक्स में ही स्वीटी कुछ
निर्णायक रूप अख्तियार करती है पर वहां फिर अंतिम फैसला लेखक- फिल्मकार (गज़ल धालीवाल और शैली चोपड़ा धर)
स्वीटी के पिता (अनिल कपूर के किरदार पर) पर छोड़ देती हैं। बेटी की
डायरियों से गुज़रकर वह पसीज जाते हैं। (प्वाइंट ऑफ व्यू शिफ्ट)।
राजकुमार
राव के किरदार साहिल मिर्ज़ा की कहानी, जो मुख्य कहानी के साथ समानांतर
चलती है, वह भी प्रॉब्लमेटिक है। इस किरदार की कहानी यह है कि पिता के
फिल्म प्रोडयूसर होने के बावजूद वह अपना मुकाम (नाटकों के लेखक और निर्देशक
के रूप में) खुद अपने संघर्ष के बूते बनाना चाहता है। उसे कोई खास सफलता
नहीं मिल रही। इस दौरान उसे एक लड़की मिलती है, जिसे वह चाहने लगता है और
उसके पीछे दिल्ली छोड़ उसके शहर पहुंच जाता है। पर वह लड़की उसे नहीं
चाहती, वह उसे दोस्त बना लेता है और उसे उसका प्रेम पाने में मदद के लिये
एक नाटक लिखता व निर्देशित करता है और कामयाबी हासिल करता है। इस किरदार की
भी कोई खास कन्फिल्क्ट नहीं है। उसकी ज़िंदगी में लगभग सब कुछ इत्तेफाक से
होता है। नतीजतन, सधे अभिनय के बावजूद किरदार वह असर नहीं छोड़ पाता, जो
छोड़ना चाहिये। लेखक-फिल्मकार ने शायद राजकुमार राव के किरदार का वजन बढ़ाने के लिए ही उनके किरदार को इतना विस्तार दिया है जबकि यदि फिल्म का फॉर्मेट मल्टीपल स्टोरी का न हो तो बाकी सारे सब प्लॉट, मुख्य किरदार को छोड़कर अन्य किरदारों की कहानियां मुख्य कहानी में समाहित होनी चाहिएं और किरदारों की कहानियों के वही हिस्से दिखाये जाने चाहिएं जो मुख्य कहानी का हिस्सा बन सकें या दिखाने बेहद ज़रूरी हों। खैर, ऊपर भी कहा जा चुका है कि बॉलीवुड की फिल्मों में ‘स्टारों‘ की भूमिकाओं में संतुलन के लिए यह गड़बड़ी आम पाई जाती है।
फिल्म में परिवार की
जहां तक बात है, चौधरी परिवार पंजाब के एक उच्च मध्य वर्गीय परिवार की तरह
है और पारंपारिक या रूढ़िवादी परिवार है। अनिल कपूर के किरदार का पाककला
प्रेम और बीजी का इसके खिलाफ होना (खाना पकाने के काम को महिलाओं का काम
मानना) यह स्थापित करता है। स्वीटी के भाई का किरदार भी परिवार की प्रकृति
दर्शाता है। पर फिल्मकार ने कुहू के परिवार को फिल्म से पूरी तरह गायब
रखकर कंट्रास्ट दिखाने का मौका गंवा दिया। कुहू का भाई लंदन में सेटल्ड है
(बाकी जनों के बारे में कुछ बताया नहीं गया)। वह लोग कुहू के प्रेम के बारे
में क्या सोचते हैं, सहज स्वीकार करते हैं, या उनमें भी कोई असमंजस है, यह
दिखाया जाता तो कथानक और दिलचस्प हो सकता था। कुहू, जो स्वीटी से ज़्यादा
बोल्ड और अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर ज़्यादा सहज है, के किरदार को भी
विस्तार देने की ज़रूरत थी। पर गड़बड़ की जड़ यही है कि फिल्मकार को सब कुछ
पारिवारिक या कहें कि बॉलीवुड के चौखटे में दिखाना था। अंत भी बॉलीवुड की पारिवारिक प्रेम कहानियों की तरह घिसा-पिटा है कि शादी के लिए जीवनसाथी चुनने के मामले में मसला चाहे धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, रंग, नस्ल का हो या इस मामले में जेंडर और सेक्सुअल ओरिएंटेशन का, परिवार की मंजूरी और आशीर्वाद आवश्यक है। फिल्म का
टाइटल और ट्रेलर भी थोड़े डिसेप्टिव ही थे। निर्माताओं को शायद डर होगा कि सीधे-सीधे दर्शकों
को बता दिया कि यह दो लड़कियों की प्रेम कहानी है तो दर्शक देखे बिना फिल्म
को नकार देंगे जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है।
मुझे तो ऐसा लगता है, आपको
क्या लगता है?
#कुछ भी - 3 -महेश राजपूत
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