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नफरत के अंधेरों में अमन की रौशनी की किरण हैं गुरमेहर


गुरमेहर कौर फिर चर्चा में हैं। जम्मू-कश्मीर के पुलवामा आतंकी हमले के बाद लंदन में बीबीसी उर्दू सेवा के टीवी शो सैरबीन में मेहमान के तौर पर शिरकत करते हुए उन्होंने पुलवामा हमले को लेकर कहा, “लंदन पहुंचकर जब मैंने फोन देखा तो पुलवामा हमले के बारे में पता चला। सबसे पहले मेरे मन में शहीदों के परिवारवालों का खयाल आया। उन्हें मैं सलाम करना चाहूंगी। भारत और पाकिस्तान के बीच शंति कायम करने की चर्चा के बीच ऐसे हमले दिल तोड़ देते हैं और एक उम्मीद हमसे छिन जाती है।“
इसके बाद उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच शांति के लिए डटे रहना बहुत जरूरी है।
चुनाव से ठीक पहले हुए पुलवामा हमले का देश की सियासत पर कोई फर्क पड़ेगा? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि यह दिख ही रहा है कैसे राजनेता इस हादसे का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसी घटनाओं से समाज में गुस्सा और नफरत बढ़ती है। इस्लाम और पाकिस्तान को एक समझा जाने लगता है। इससे अल्पसंख्यकों की तकलीफें बढ़ती हैं। नेता इस विभाजन का फायदा लेते हैं।“
सबसे महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही कि शहीदों के बच्चों और उनके परिवार को न्याय तभी मिल सकता है जब हिंसा समाप्त होगी।
अब तक आप ज़रूर समझ गये होंगे कि गुरमेहर की बात क्यों की जा रही है। पुलवामा हमले के बाद बदला लेने व युद्धोन्माद फैलाने के इस माहौल में, छात्रों समेत देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे कश्मीरी नागरिकों से बदसलूकी, मारपीट की घटनाओं के समय में बहुत कम ऐसी आवाजें हैं जो युद्ध की नहीं, शांति की भाषा बोलें। जो दबी जबान से कुछ बोलने की कोशिश कर रहा है या हमले को लेकर सवाल कर रहा है तो उसे तुरंत ‘देशद्रोही‘ करार दिया जा रहा है। टीवी स्टूडियो से लेकर अखबारों के पन्नों में नफरत हावी है। सत्तारूढ़ पार्टी व उसके समर्थक आगामी लोकसभा चुनाव में इसका फायदा उठाने के लिए इस व्यवहार को हवा दे रहे हैं तो विपक्षी चुनाव में नुकसान होने की आशंका से चुप हैं।
हां, भई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीरियों के खिलाफ हिंसा पर बयान दिया पर वह बहुत देरी से आया। उससे पहले मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर कश्मीरी छात्रों को प्रताड़ना की घटनाओं को सिरे से नकार चुके थे और एक राज्य (मेघालय) के राज्यपाल तथागत रॉय देश भर में कश्मीरियों के बहिष्कार जैसा बयान दे चुके थे।
विषयांतर हो रहा है। बात गुरमेहर की हो रही थी। गुरमेहर 1999 के कारगिल युद्ध में मारे गये भारतीय मेजर मनदीप सिंह की बेटी हैं और खुलकर दोनों देशों के बीच युद्ध का विरोध करती हैं। पिछली बार वह चर्चा में तब आई थीं जब उन्होंने 2017 में दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में वाम और दक्षिणपंथी विचारधारा के छात्रों के बीच झड़प के बाद फेसबुक पर ऐलान किया था कि वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के लोगों से नहीं डरतीं। उन्होंने उसके बाद एक प्लेकार्ड लिए तस्वीर भी सोशल मीडिया में पोस्ट की जिसमें उन्होंने कहा, “पाकिस्तान ने मेरे पिता को नहीं मारा, बल्कि युद्ध ने उनकी जान ली।“
इसे लेकर उन्हें काफी ट्रोल किया गया। ट्रोल करने वालों में क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग जैसे लोग भी थे। अब हालिया बयान को लेकर भी उनके खिलाफ दुष्प्रचार जारी है। इस बार चूंकि उनके बयान में कोई वैसी बात (आलोचना या गालीगलौज लायक तो पिछले बयान में भी कुछ नहीं था) नहीं थी इसलिए यह झूठ फैलाने की कोशिश की गई कि गुरमेहर ने पाकिस्तान में जाकर यह बयान दिया है। ऊपर बताया ही जा चुका है कि बयान उन्होंने बीबीसी उर्दू के कार्यक्रम में दिया है। खैर, इस पूरे प्रकरण में मुद्दा यह है कि युद्ध का विरोध करने संबंधी किसीके भी बयान को सीधे सरकार या देश-विरोधी करार दिया जाता है। सोशल मीडिया में भी विमर्श नामुमकिन सा है। आप या तो पाकिस्तान को सबक सिखाने के पक्ष में हैं या ‘देशद्रोही‘। युद्ध का विरोध करने वालों से एक सवाल कॉमन होता है, “आपका अपना कोई सेना में नहीं है, आतंकवाद का शिकार नहीं हुआ है इसलिए यह मानवतावादी बकवास बंद कीजिये।“ हालांकि यह कुतर्क ही है क्योंकि सेना में तो ऐसे बयानवीरों का भी कोई अपना नहीं होता। सेना में राजनेताओं के रिश्तेदार भी नहीं होते। सेना में कार्पोरेट जगत की हस्तियों के परिवारों से भी कोई नहीं होता। सेना में भर्ती होने वाले लोग निम्न वर्गीय या फिर निम्न-मध्यम और मध्यम वर्ग के ही होते हैं। 

पर कुतर्क गुरमेहर के मामले में नहीं टिकते क्योंकि वह अपना पिता खो चुकी हैं। इसलिए जब वह नफरत के खिलाफ बोलती हैं, युद्ध का विरोध करती हैं तो उसे आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता और ऐसे माहौल में जहां हर बात पर आप पर ट्रोल सेना छोड़ दी जाती हो, अपनी बात पर टिके रहना सचमुच बहादुरी का काम है। गुरमेहर ‘स्माल एक्ट्स ऑफ फ्रीडम‘ शीर्षक से किताब लिख चुकी हैं और यूके की संस्था ‘पोस्टकार्ड्स ऑफ पीस‘ की एंबेसेडर भी हैं।
अफसोस की बात बस यही है कि गुरमेहर जैसे लोग गिने-चुने ही हैं बाकी या तो हवा के रुख के साथ बह रहे हैं या डर के मारे चुप हैं।



दिमाग की बात दिल से  #1   महेश राजपूत
फोटो सौजन्य : रेडिफ
 

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