Skip to main content

वास्तविक भीमा कोरेगांव षड्यंत्र


                                                (Image and write-up courtesy : Raiot)
 

 -फ्रेनी माणेकशॉ
वरिष्ठ नेता और पूर्व ट्रेड यूनियनिस्ट जॉर्ज फर्नांडीस की इस साल मौत हुई, तो कई लेखकों ने आपातकाल के उनके दिनों और बड़ौदा डायनामाईट षड्यंत्र मामले का ज़िक्र किया जो उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय था। फर्नांडिस को, बता दें, पुल व महत्वपूर्ण रेल व सड़क सुविधागत ढांचे को उड़ाने के लिए डायनामाईट छड़ें जुटाने के कथित षड्यंत्र के लिए जून 1976 में गिरफ्तार किया गया था। केंद्रीय जांच ब्यूरो ने मामले की जांच में फर्नांडीस को  षड्यंत्र का ‘मास्टरमाइंड‘ और आरोपी नंबर एक दिखाया गया था। ट्रेड यूनियन नेता ने आरोप लगाया कि सीबीआई ने आरोप गढ़े हैं और बाद में जब जनता सरकार बनी तो उनके व अन्य आरोपियों के खिलाफ मामला वापस लिया गया।
असहमति को कुचलने के लिए षड्यंत्र के मामले भारत के राजनीतिक इतिहास में नये नहीं हैं। जैसा कि एक पूर्व न्यायाधीश ने हाल में लिखा कि शुरुआत अंग्रेजों ने की थीं और 1913 में इसे अपराध करार देकर इसका व्यापक इस्तेमाल किया था।
आपराधिक षड्यंत्र जो अब भी भारतीय दंड संहिता में मौजूद है, की परिभाषा थी “दो या अधिक लोग मिलकर कोई गैरकानूनी कार्य को अंजाम देने के लिए अपनी स्वीकृति दें।“ यदि षड्यंत्र में ऐसा कोई अपराध शामिल है जिसकी सजा मृत्यु या उम्रकैद है तो साजिशकर्ता को दो साल या उससे अधिक कारावास की सजा दी जा सकती है।
अंग्रेज कानून का इस्तेमाल देश के एक हिस्से में आपराधिक षड्यंत्र का कोई मामला दर्ज करने और फिर देश भर से लोगों पर उस आरोप लगाने के लिए करते थे, भले फिर उस आरोप का कोई आधार हो या नहीं क्योंकि उद्देश्य तो सीधे किसीको परेशान करना होता था।
ब्रिटिश शासन के राजनीतिक असहमति पर अंकुश लगाने के लिए आपराधिक षड्यंत्र कानूनों का इस्तेमाल करने के प्रमुख उदाहरण 1924 का कानपुर षड्यंत्र मामला तथा 1929 का मेरठ षड्यंत्र मामला है।
कानपुर षड्यंत्र मामला कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के बढ़ते प्रभाव व एम एन रॉय के तहत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से उपजे डर के कारण था। स्वतंत्रता आंदोलन के रेडीकलाइजेशन के भय से अंग्रेजों ने पेशावर से लेकर कई स्थानों पर इस कानून का इस्तेमाल करना शुरू किया पर सबसे ज्यादा चर्चित मामला कानपुर षड्यंत्र का था।
अखबारों में सनसनीखेज कम्युनिस्ट योजनाओं और कम्युनिस्ट गतिविधियों के विवरण से भर गये थे। 17 मार्च 1924 को संयुक्त जिला मजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ। षड्यंत्र का मामला बर्लिन से एम एन रॉय के विभिन्न भारतीयों को लिखे पत्रों पर आधारित था। शुरू में आठ लोगों के नाम मामले में लगाये गये पर अंत में चार लोगों शौकत उस्मानी, मुजफ्फर अहमद, नलिनी गुप्ता और श्रीपाद अमृत डांगे पर आरोप लगाये गये और चार साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। आरोप गद्दारी और भारत के अंग्रेज सम्राट को हटाने तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नियंत्रण कब्जाने का था।
प्रभात व प्रताप जैसे भाषाई अखबारों ने फैसले का कड़ा विरोध किया व इसे नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करार दिया और वास्तव में मामले ने असंगठित व बिखरे कम्युनिस्टों को एकजुट होने  व कम्युनिस्ट आंदोलन को मदद ही की।
विभिन्न औद्योगिक शहरों में अलग-अलग कम्युनिस्ट समूहों की सफलता, जिसके तहत औद्योगिक कर्मचारियों ने कई हड़तालें की थीं, से सहमी अंग्रेज सरकार ने 1929 में मेरठ षड्यंत्र रचा। 1929 में शुरू हुआ और 1933 में निर्णित हुए इस मामले में कई ट्रेड यूनियनिस्टों, समाजवादियों और कम्युनिस्टों जिनमें तीन अंग्रेज भी थे को भारत में रेल हड़ताल के आयोजन के लिए गिरफ्तार किया गया। डांगे, उस्मानी और अहमद उन 33 लोगों में शामिल थे जिन्हें बोल्शेविक करार दिया, जिन पर धारा 121 ए के तहत मुकदमा चलाया गया और 1933 में कठोर सजा सुनाई गई। अपील पर सजा आंशिक रूप से इस आधार पर कम की गई कि आरोपियों ने अपनी सजा का बड़ा हिस्सा सजा मिलने के इंतजार के वक्फे में ही भुगत लिया था।
यह स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटिश का उद्देश्य षड्यंत्र साबित करना नहीं था बल्कि लोगों को जेल  में रखकर गतिविधियों से दूर करना था। हालांकि मेरठ षड्यंत्र मामला दक्षिणी एशिया में साम्राज्यवाद  विरोधी राजनीति में एक महत्वपूर्ण पल के रूप में जाना जाने लगा और इसकी वजह थी प्रतिवादियों ने अदालत के कक्ष का इस्तेमाल अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सार्वजनिक मंच के रूप में किया। इसने दुनिया भर में ट्रेड यूनियनिस्टों का ध्यान खींचा।
उस इतिहास को याद करें तो इन मामलों और 2018 के षड्यंत्र  (जो अभी तक खुल ही रहा है) मामले या भीमा कोरेगांव षड्यंत्र मामले के रूप में जाने जाने वाले मामले में कई  समानताएं मिलेंगी।
विभिन्न चरणों में मीडिया के हिस्सों ने मामलों में आये कई घुमाव एवं मोड़ की खबरें आई हैं तथा रोमिला थापर व अन्य ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की हुई है पर यहां इस षड्यंत्र के उलझे सिरों, विभिन्न इतिहासों और चौंकाने वाले विरोधाभासों को संक्षेप में समझने का प्रयास आवश्यक होगा। ट्रेड यूनियनिस्टों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों, लेखकों और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां कैसे और क्यों हुईं? और एल्गार परिषद क्या थी जो इस मामले की वजह बनी?
भीमा कोरेगांव स्मरणोत्सव क्या है?
भीमा कोरेगांव नदी के किनारे अंग्रेजों-मराठाओं के बीच लड़ी गई अंतिम लड़ाईयों में से एक लड़ाई की गवाही के रूप में पुणे के निकट कोरेगांव गांव में अंग्रेजों का बनाया एक स्मारक है। यह उन सैनिकों की याद में बनाया गया है जो अंग्रेजों के साथ मिलकर लड़े। बाबासाहब अंबेडकर ने सबसे पहले इसे पेशवाओं के जातीय अत्याचार के खिलाफ महारों, जो सैनिकों में शामिल थे, की जीत की निशानी के रूप में देखने की संभावनाएं देखीं।
2017 में कई दलित और जाति विरोधी संगठन 31 दिसंबर को पुणे के शनिवार वाड़ा में एल्गार परिषद या स्मरणोत्सव के साथ लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ को मनाने के लिए साथ आये। मौके पर लाखों लोग जमा हुए। मंच पर गुजरात से लोकप्रिय दलित नेता व वक्ता जिग्नेश मेवानी, जेएनयू के छात्र नेता उमर खालिद, छत्तीसगढ़ से आदिवासियों की नेता सोनी सोरी और रोहित वेमुला  की मां राधिका जैसे नेता थे जो जनता में लोकप्रिय थे। शनिवारवाड़ा में हुए कार्यक्रम में कई मराठा संगठनों की उपस्थिति, जो पारंपारिक रूप से मराठाओं का गढ़ माना जाता है, उस नई राजनीति का प्रतीक थी जिसमें ओबीसी व दलितों के बीच पिछली शत्रुताएं भुलाई जा सकती थीं। कार्यक्रम  में नई पेशवाई के खिलाफ लड़ाई का आह्वान गूंजा जिससे कोई संदेह न रहा कि पुणे में विशाल जनजमाव सत्तारूढ़ हिंदुत्व ताकतों के खिलाफ है। दो सेवाननिवृत्त न्यायाधीशों  बीजी कोलसे  पाटिल व पीबी सावंत ने कई बार कहा है कि कार्यक्रम का आयोजन उन्होंने किया था तथा उन्होंने ही वह मंच जो पिछले कार्यक्रम में इस्तेमाल किया गया था, मुहैया कराया ताकि खर्च में कटौती की जा सके।
अगले दिन 1 जनवरी 2018 को भीमा कोरेगांव में स्मृति कार्यक्रम हुआ जिसमें सैकड़ों दलित आये। पर इस दौरान भगवा झंडे लहराते दक्षिणपंथियों ने उन पर हमला किया व बसें जलाईं। हिंसा में एक व्यक्ति की मौत हुई। इस हमले का कारण क्या था?
स्मरणोत्सव की समानांतर कथा
पड़ोसी कस्बे वाडू (बुडरुक) में संभाजी की स्मृति में समाधि है। इतिहासकार बेंद्रे के अनुसार संभाजी को औरंगजेब ने मारा था और उनके शव को ब्राह्म्णों के इशारे पर विखंडित किया गया था जो संभाजी के संस्कृत विद्वान के रूप में उभार व उनके ज्ञान का विरोध करते थे। कहा जाता है कि तब गोविंद महार नामक व्यक्ति ने शव को सिया ताकि सम्मान से अंत्येष्टि की जा सके।
दूसरी कथा के अनुसार एक मराठा सेवाले को संभाजी की अंत्येष्टि की सेवा का श्रेय दिया जाता है। गांवों में मराठाओं और दलितों के बीच इस अंदर ही अंदर उबलते  तनावों का दोहन दक्षिणपंथी ताकतों ने हिंसक झड़पें शुरू करने के लिए किया।
मुंबई में जाति विरोधी प्रदर्शनों का दस्तावेजीकरण
एक तथ्य शोधक टीम ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी जिसमें कहा गया कि दंगे पूर्वनियोजित थे और इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की गई थी पर राज्य ने यह रिपोर्ट ठुकरा दी। https://countercurrents.org/2018/01/15/really-happened-bhima-koregaon-fact-finding-report/
दो मामलों की कहानी
पुणे पुलिस ने दलित कार्यकर्ता अनिता रविंद्र सावले की शिकायत पर कार्रवाई करते हुए समस्त हिंदुत्व अघाड़ी अध्यक्ष मिलिंद एकबोटे व शिव छत्रपति प्रतिष्ठान के संस्थापक मिलिंद एकबोटे के खिलाफ हिंसा उकसाने को लेकर प्राथमिकी दर्ज की थी। आरोपों में हत्या, गैरकानूनी जनजमाव, दंगा व अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार निवारक कानून के तहत आरोप शामिल थे। एकबोटे को महीने के अंत में गिरफ्तार किया गया।
इससे पूर्व कई दलित संगठनों ने महाराष्ट्र में बंद का आयोजन किया। दो जनवरी 2018 को मुंबई की सड़कों पर बड़ी संख्या में लोग उतरे, ट्रेनें, सड़क यातायात बाधित किया गया व कुछ बसें जलाई गईं। मुंबई शहर  यूं थम गया जैसा पिछले कई सालों में नहीं देखा गया था। बता दें कि शिवसेना, जो बीच-बीच में सड़कों पर शक्ति प्रदर्शन करती रही है, के अलावा  दलितों के पास ही संख्याबल है जो मुंबई को थम जाने पर मजबूर कर दे और ऐसा 1997 में रमाबाई नगर कांड के समय भी किया गया था।
राज्य सरकार ने फरवरी 2018 में पश्चिम बंगाल के न्यायाधीश जेएन पटेल और प्रदेश सचिव सुमित मलिक के दो सदस्यीय न्यायिक आयोग की घोषणा की। पर आयोग की धीमी रफ्तार से दलितों  में रोष है और वह कहते हैं कि उनका आयोग में विश्वास नहीं है तथा उन्होंने सीआईडी जांच की मांग की है।
एल्गार परिषद से जुड़ी दूसरी शिकायत पुणे के एक व्यावसायी तुषार दामगुडे ने दाखिल की थी बैठक में कथित भड़काऊ भाषणों को लेकर। इसीकी जांच अचानक एक बड़े “षड्यंत्र‘‘ में बदल गई और कार्यक्रम को माओवादी फंडिंग के आरोप, कुछ कार्यकर्ताओं तथा वकीलों पर माओवादी संबंधों, अस्त्र-शस्त्र खरीदने और प्रधानमंत्री के खिलाफ ‘राजीव गांधी किस्म की हत्या की साजिश‘ के आरोप लगे।
यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि कैसे पहला ग्रामीण केस, जो शिकारपुर पुलिस ने 22 लोगों के खिलाफ दाखिल किया था, उसका क्या हुआ। एकबोटे, जिन्हें गिरफ्तार किया गया था, को एक महीने के अंदर जमानत मिल गयी। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस ने विधानसभा में घोषणा की  कि उनके खिलाफ कोई प्रमाण नहीं है। पर आज तक कई दलित जो बंद के लिए गिरफ्तार किये गये थे, जेल में हैं।
और आश्चर्यजनक रूप से षड्यंत्र की दूसरी शिकायत पर व्यापक व तेजी से कार्रवाई हुई। कार्यक्रम की माओवादी फंडिंग का एंगल पुलिस की कथा में अभी तक मौजूद है जबकि जस्टिस कोलसे पाटिल व सावंत के बयान उक्त के विपरीत हैं।
महाराष्ट्र के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने जो सबसे पहली गिरफ्तारियां की थीं वह रिलायंस एनर्जी /इंफ्रास्ट्रक्चर के कर्मचारी थे। तेलंगाना से आये श्रमिक, उन्हें जनवरी और फरवरी 2018 में कठोर गैरकानूनी गतिविधि (प्रतिरोधक) कानून के तहत गिरफ्तार किया गया। एल्गार परिषद के कथित माओवादी लिंक के लिए निशाना बने लोग मुंबई इलेक्ट्रिक यूनियन के सक्रिय सदस्य थे और उनका बचाव वकील अरुण फरेरा कर रहे थे जब तक कि उन्हें भी सितंबर 2018 में गिरफ्तार नहीं कर लिया गया। इन कर्मचारियों को जमानत फरवरी 2019 में मिली जब बंबई उच्च न्यायालय ने 17 दिसंबर को विशेष अदालत के एटीएस को आरोपपत्र दाखिल करने के लिए दिये विस्तार (ज्यादा समय) को दरकिनार कर दिया।
हिंसा भड़काने के आरोपियों भिडे और एकबोटे से हटाकर ध्यान वामपंथी “षड्यंत्र“ पर केंद्रित करने के संकेतों की पुष्टि हुई जब छह जून को पुलिस ने छापे मारे पांच लोगों को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया। यह पांच “खतरनाक“ लोग कौन थे?
गिरफ्तारियों की पहली खेप
विडंबना ही कहेंगे कि एक आरोपी, सुरेंद्र गाडलिंग नागपुर से जाने माने वकील थे और जिस कानून के तहत उन्हें गिरफ्तार किया गया, उसीके मामलों में उन्हें महारत हासिल है। गाडलिंग व्हीलचेयर से बंधे जेएनयू प्रोफेसर जी एन साईंबाबा के भी वकील हैं, जो माओवादियों के साथ कथित संबंधों के कारण जेल में हैं। गाडलिंग ने यूएपीए के तहत गिरफ्तार व पुलिस की ज्यादतियों के शिकार कई आदिवासियों, दलितों का भी प्रतिनिधित्व किया है। वह अरुण फरेरा के भी वकील रह चुके हैं जब फरेरा को पहली बार 2007 में गिरफ्तार किया गया था। पांच साल सलाखों के पीछे रहने के बाद फरेरा को सभी आरोपों से बरी किया गया था।
पुणे की अदालत में इस मामले में अदालती कार्रवाई की दिलचस्प झलकियों में से एक गाडलिंग का वकील का कोट छीन लिये जाने के बावजूद, अपने सह आरोपियों के लिए उनकी जिरह और यह सवाल उठाया जाना है कि क्या असहमति के स्वरों को आतंकवादी गतिविधि करार दिया जा सकता है? और अभी कुछ ही समय पहले उन्होंने मामले में पुलिस के इलेक्ट्रॉनिक प्रमाण की प्रतियां मुहैया न कराने को लेकर जिरह की थी।
जून गिरफ्तारियों में एक गिरफ्तारी सुधीर धवले की भी थी जो जमीन, श्रम और दलित अधिकार संगठन रिपब्लिकन पैंथर के संस्था पर के मुद्दों पर केंद्रित मराठी पत्रिका विद्रोही के प्रकाशक हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वह भी 2011 में गिरफ्तार किये जा चुके हैं तथा बाद में बरी किये गये थे।
एक और आरोपी गढ़चिरौली के महेश राऊत थे, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस के छात्र और जिन्हें ग्रामीण विकास के लिये प्रधानमंत्री कार्यालय से फेलोशिप मिल चुकी थी। राऊत विस्थापन के खिलाफ सक्रियता से लड़ते रहे हैं और ग्राम पंचायत नेताओं ने सार्वजनिक रूप से वन उत्पादों व श्रम पर ग्राम सभाओं के अधिकार सुरक्षित करने में राऊत के उल्लेखनीय योगदान को स्वीकार किया है।
चौथी शख्सियत दिल्ली से रोना विल्सन थीं जो आतंकवाद से संबंधित मामलों में फंसाये गये लोगों के लिए कार्य करने वाली संस्था कमिटी फॉर रिलीज ऑफ पॉलिटीकल प्रिज़नर्स की जनसंपर्क सचिव थीं।
पांचवीं हस्ती शोमा सेन थीं जो नागपुर यूनिवर्सिटी से प्रोफेसर थीं और कई नारीवादी संगठनों से संबंद्ध थीं और जिन्होंने दलित सशक्तीकरण की दिशा में भी काफी कार्य किया है।
गिरफ्तारियों की दूसरी खेप
और भी कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी की कोशिश रोमिला थापर व अन्य की जनहित याचिका पर हाऊस अरेस्ट के संबंध में अदालत के आदेश ने मामले को देश की सर्वोच्च अदालत तथा लोगों के बीच पहुंचाया। पर, याचिकाओं के खारिज (न्यायाधीश चंद्रचूड़ के असहमति नोट के साथ) होने के बाद गिरफ्तारियों के दूसरे दौर का रास्ता साफ हुआ। जिन्हें पुणे के यरवडा जेल ले जाया गया उनमें निम्नलिखित लोग थे:
सुधा भारद्वाज, एक प्रमुख ट्रेड यूनियनिस्ट व वकील जो कई साल श्रमिकों के बीच रही हैं और आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ती रही हैं और जो नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। अरुण फरेरा वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता जो पहले गिरफ्तार व रिहा किये जा चुके थे। वेरनॉन गोंसाल्विस सामाजिक कार्यकर्ता 2007 में गिरफ्तार किये गये थे तथा शस्त्र अधिनियम के तहत एक मामले में दोषी पाये गये थे पर जिसे उन्होंने चुनौती दी हुई है। गोंसाल्विस को रिहा किया गया क्योंकि वह पहले ही अपनी सजा भुगत चुके थे तथा तेलंगाना संघर्ष में प्रमुख भूमिका निभाने वाले कवि व कार्यकर्ता वरवर राव।
गौतम नवलखा जिन्हें घर में ही कैद किया गया था, को राहत मिली।
पुणे पुलिस ने जाने-माने नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, शिक्षाविद्, दलित कार्यकर्ता व गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े को भी गिरफ्तार करना चाहती है। आश्चर्य की बात है कि तेलतुंबड़े ने एक निबंध में भीमा कोरेगांव जमावड़े की आलोचना की थी तथा अपनी असहमति दर्शाई थी।
उक्त बायो-स्केच से जाहिर होता है कि यह सभी राजनीतिक असंतुष्ट हैं जो असमानता, भेदभावों व राजनीतिक पूर्वाग्रहों के खिलाफ लड़ते रहे हैं। इनमें से कुछ ने पुलिस ज्यादतियों को चुनौती भी दी है।
भीमा कोरेगांव में हिंसा की जांच को जिस अजीब तरीके से माओवादी साजिश में बदला गया, और जटिल हो गई जब अभियोजन पक्ष ने अचानक सुप्रीम कोर्ट में राजीव गांधी किस्म की हत्या की साजिश को छोड़ दिया।
प्रमाण क्या है? सैद्धांतिक रूप से, पुणे पुलिस ने दावा किया था कि उन्हें रोना विल्सन के लैपटॉप से प्रमाण मिले हैं और उन्होंने वह पत्र व ईमेल दिखाये थे जो उन्होंने बरामद करने का दावा किया था। कई वकीलों का कहना है कि यह पर्याप्त नहीं है और पत्रों में नाम मिलना अपराध किये जाने के समान नहीं है।
बंबई उच्च न्यायालय में सुधा भारद्वाज की जमानत के लिए जिरह करते हुए वकील युग चौधरी ने कहा:
“ यह बिना तारीख, हस्ताक्षर के, अपुष्ट पत्र हैं जो किसी ‘क‘ ने ‘ख‘ को लिखे हैं जिसमें ‘ग‘ का उल्लेख किया गया है तथा ‘घ‘ के लैपटॉप पर मिले हैं। इन्हें कानून के तहत प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता ओर पुलिस चाहती है कि आवेदक को जेल में ही रखा जाये वह भी ऐसे दस्तावेजों के आधार पर जिन्हें अदालत में प्रमाणित नहीं किया जा सकता।“
इस षड्यंत्र प्रकरण में एक अनूठी बात यह भी है कि बाद में गिरफ्तार किये कुछ लोगों का पुलिस के नाम लेने से पहले इन पत्रों के बारे में विस्तार से बताया गया तथा इन्हें मीडिया में लीक किया गया।
अर्बन नक्सल और मीडिया ट्रायल
यह भाजपा के समर्थक रिपब्लिक टीवी व अर्नब गोस्वामी थे जिन्होंने पुलिस के नाम लिये या गिरफ्तार करने से भी पहले सुधा भारद्वाज तथा गौतम नवलखा के खिलाफ माओवादियों  व अलगाववादियों से संबंधों के सनसनीखेज आरोप लगाये थे। उन्होंने दावा किया था कि पत्र उनके पास हैं। शब्द अर्बन नक्सल भी बिना सोचे-समझे उछाला गया। सबसे पहले एक फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने इसी शीर्षक से किताब लाकर यह शब्द गढ़ा था, उसके बाद सरकार से अलग राय रखने वाले किसी भी व्यक्ति या संगठन पर यह लेबल थोपा जाने लगा। दिलचस्प यह है कि मंत्री अरुण जेटली ने भी “हाफ माओइस्ट‘ (जो भी मतलब हो) शब्द का इस्तेमाल अपने एक ट्वीट में किया था।
सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान चुनिंदा मीडिया लीक्स में व प्रेस कांफ्रेंस करने की पुणे पुलिस की भूमिका पर बंबई उच्च न्यायालय व सुप्रीम कोर्ट ने भी पुलिस को फटकार लगाई थी।
और अपनी गिरफ्तारी से पहले सुधा भारद्वाज ने चैनल के खिलाफ मानहानि का मामला दाखिल किया था।
पर पुलिस को “मनमानी, गैरकानूनी और अंधाधुंध‘‘ गिरफ्तारियों के लिए ताकत कहां से मिलती है। रोमिला थापर व अन्य की सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल में इन गिरफ्तारियों के प्रकार को बयान करने के लिए किया गया है।
यहां आकर यह देखना जरूरी हो जाता है कि जैसे अंग्रेज षड्यंत्र विरोधी कानूनों का इस्तेमाल करते थे ठीक उसी तर्ज पर आतंकवाद विरोधी कानून यूएपीए कैसे ऐसी गिरफ्तारियों की राह आसान करता है।
“गैरकानूनी“ का बनना
गैरकानूनी गतिविधि प्रतिरोधक अधिनियम अर्थात यूएपीए कानून, जो 1967 में लाया गया एक ऐसा विधेयक है जो अनुच्छेद ए के तहत बुनियादी स्वतंत्रताओं जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्वक जमा होने की स्वतंत्रता, संगठन अथवा यूनियन बनाने के अधिकारों पर पाबंदियां लगाता है। विधेयक का उद्देश्य भारत एवं ण्ण्ण् की संप्रभुता व अखंडता के खिलाफ गतिविधियों से निबटने के लिए शक्तियां जुटाना था। अपने घोषित उद्देश्यों के अनुसार ही यूएपीए “गैरकानूनी गतिविधियों“ तथा “आतंकी गतिविधियों“ के कृत्य, फंडिंग व समर्थन को दंडित करता है।
कानूनी विशेषज्ञ बताते हैं कि यूएपीए के प्रावधानों का “गैरकानूनी गतिविधियों“ को परिभाषित करने का दायरा इतना व्यापक है कि भारत की प्रादेशिक अखंडता पर सवाल उठाना या “भारत के खिलाफ असंतोष“ भी समस्या पैदा कर सकता है। जैसा कि गौतम भाटिया बताते हैं कि ऐसी बातों को दंडित करना विचार अपराधों के शासन को स्थापित करने के निकट आता है।
यह दमनकारी कानून सरकार/कार्यपालिका को किसी भी समूह या संगठन को आतंकवादी करार देने व प्रतिबंधित करने की अनुमति देता है। सदस्यता की कोई परिभाषा न होने के कारण यह जांच एजेंसियों को सहानुभूति दर्शाने वाली किताबों या पर्चों के कब्जे जैसे बहानों पर लोगों को गैरकानूनी संगठन या आतंकवादी संगठन के सदस्य के रूप में मुकदमे चलाने में सक्षम बनाता है। चूंकि यह संबंध को अपराध मानता है इसलिए कई असंबद्ध लोग व साधारण गतिविधियां यूएपीए की चपेट में आ जाती हैं।
इसके अलावा यूएपीए के कड़े प्रक्रियात्मक पहलू हैं। अग्रिम जमानत नहीं मिल सकती व धारा 43डी पुलिस हिरासत की अवधि को दुगना बनाती है। यह सामान्य तौर पर 60 दिनों के बजाय 90 दिन की न्यायिक हिरासत की अनुमति देती है जिससे पहले आरोपपत्र दाखिल किया जाना आवश्यक होता है।
वास्तव में यूएपीए की असाधारण प्रकृति जेल में बिताये समय और फिर जमानत या बरी होने के बाद रिहाई के बीच के वक्फे से सिद्ध होती है।
यूएपीए न्यायशास्त्र के बुनियादी सिद्धांत  - दोषी साबित किये जाने तक निर्दोष मानना - को सिर के बल खड़ा कर देता है। कैद की समूची अवधि सजा बन जाती है।
कानून और इसे लागू करने का एक और कड़ा पहलू यह है कि यह नये मामले थोपने की अनुमति देता है। सुरेंद्र गाडलिंग व वरवर राव पर गढ़चिरौली पुलिस ने सूरजगढ़ खनन मामले में भी आरोप लगाये गये और जनवरी में यरवडा जेल, जहां वह न्यायिक हिरासत के तहत बंद थे, से गढ़चिरौली जिले में लाया गया तथा कई दिनों तक पुलिस हिरासत में रखा गया।
जैसा कि जानी-मानी मानवाधिकार वकील इंदिरा जयसिंह ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष 11  दिसंबर 2018 को कहा कि पुलिस सुरेंद्र गाडलिंग के खिलाफ 2016 में दर्ज एक प्राथमिकी  में उनके खिलाफ समन जारी कर दफन प्राथमिकियों को जिंदा करने की कोशिश कर रही है। उन्होंने  कहा कि एक के बाद एक मामलों में लोगों को फंसाने का यह पुलिस का मोडस ऑपरेंडी है।
यही कारण है कि विधि कार्यकर्ता, जिनमें से कुछ गिरफ्तार किये जा चुके हैं, पुलिस व सत्ता को निरंकुश ताकत देने वाले इस कानून को हटा देने के संघर्ष में सबसे आगे खड़े दिखाई देते हैं।
अनुवाद : महेश
(नोट : फ्रेनी माणेकशॉ का मूल लेख जो अंग्रेज़ी में था, www.raiot.in पर पढ़ा जा सकता है। अनुवाद लेखिका व वेबसाईट से अनुमति लेकर किया गया है जिसके लिए फ्रेनीजीतरुण भारतीय समेत वेबसाईट की टीम के प्रति शुक्रिया।)

Comments

Popular posts from this blog

प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा

-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं।  साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम

Premchand’s Torn Shoes

By Harishankar Parsai There is a photograph of Premchand in front of me, he has posed with his wife. Atop his head sits a cap made of some coarse cloth. He is clad in a kurta and dhoti. His temples are sunken, his cheek-bones jut out, but his lush moustache lends a full look to his face. He is wearing canvas shoes and its laces are tied haphazardly. When used carelessly, the metal lace-ends come off and it   becomes difficult to insert the laces in the lace-holes. Then, laces are tied any which way. The right shoe is okay but there is a large hole in the left shoe, out of which a toe has emerged. My sight is transfixed on this shoe. If this is his attire while posing for a photograph, how must he be dressing otherwise? I wonder. No, this is not a man who has a range of clothes, he does not possess the knack of changing clothes. The image in the photograph depicts how he really is. I look towards his face. Are you aware, my literary forbear, that your shoe is

"Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" bags 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival, Delhi

Sindhi movie "Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" (PHHYA) bagged 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival held this week at New Delhi by Sindhi Academy, Delhi Government. According to sources related to PHHYA, the movie which created history by premiering in Dubai in 2014, got awards for Best film (popular), Best director (Ramesh Nankani), Best Actor (Jeetu Vazirani) and Best Music Director (Hitesh Udhani). Award for best music was shared by Kamlesh Vaidya and Vijay Rupani (Vardaan)    The festival held on 27th and 28th May at Sirifort Stadium, New Delhi, screened 4 movies; PHHYA, Nai Shuruaat, Vardhaan and Trapadd Teshion Tey. Nai Shuruaat, a movie based on thalasemmia, bagged awards in category of Best film (critics) and Best cinematography (Unnidivakaran D Vinod). While Vardaan, with a message to save girl child, got award for Best female actor (Komal Chandnani) also.