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मुस्कुराइये, आप शाहीन बाग में हैं :-)


दिसंबर-जनवरी में कम से कम तीन बार मैंने शाहीन बाग जाने की योजना बनाई पर अमल नहीं कर पाया लेकिन पांच फरवरी को मुंबई से चंडीगढ़ जाते समय दिल्ली उतर ही गया और पहुंच गया शाहीन बाग। रात वहीं गुज़ारी। बढ़ती उम्र के कारण, इधर, रात को जागना नहीं हो पाता। फिर चंडीगढ़ की ठंड ने अपना असर दिखाना शुरू किया है और थोड़ा चलने पर या कुछ देर खड़े रहने पर बायें पैर में दर्द होने लगा है। इसलिये बीच-बीच में कहीं कोना पकड़कर थोड़ी देर के लिये बैठ जाना पड़ता है। लेकिन यह शाहीन बाग के आंदोलन का जोश और ऊर्जा का कमाल ही था कि रात कैसे गुज़री पता ही नहीं चला। अगली सुबह मैं कितना तरोताज़ा था, इसकी गवाही नोएडा में रहने वाले मेरे मित्र प्रणव प्रियदर्शी देंगे, जिनके घर मैं सुबह मेट्रो पकड़कर लगभग सात बजे पहुंचा। पोस्ट के साथ उनकी खींची सेल्फी लगाने का कारण यह है कि मेरे मोबाईल का कैमरा खराब है और शाहीन बाग में मैं कोई तस्वीर नहीं खींच पाया था। वैसे भी शाहीन बाग मैं एक आम नागरिक के तौर पर गया था, पत्रकार के रूप में नहीं, इसलिये तस्वीरें खींचने या रिपोर्टिंग का कोई इरादा नहीं था। मैं बस कुछ घंटे वहां के माहौल को जीना चाहता था। और क्या तो माहौल था! कहीं नौजवान भूख, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी से आज़ादी के नारे लगा रहे थे। कहीं तिरंगे के साथ राष्ट्रगान हो रहा था, कहीं कुछ कलाकार फर्श पर पेंटिंग कर रहे थे, अस्थायी तौर पर बनाये गये पुस्तकालय में किताबें पढ़ी जा रही थीं, मुख्य पंडाल में मंच पर शाहीन बाग आंदोलन को समर्थन देने के लिये देश के कोने-कोने से आये छात्रों, कार्यकर्ताओं, कलाकारों के वक्तव्यों और प्रस्तुतियों का अनवरत सिलसिला चल रहा था। महिलाएं तो धरनारत थी हीं, पंजाब से किसानों का एक जत्था भी आया हुआ था।
मैंने छोटे-छोटे समूहों में नितांत अजनबी लोगों से संक्षिप्त बातचीत ही की। कुछ बच्चे सुप्रीम कोर्ट को भेजे जाने वाले पोस्ट कार्ड पर संदेश और हस्ताक्षर अभियान चला रहे थे। एक पोस्ट कार्ड पर मैंने भी हस्ताक्षर युक्त संदेश लिखा और उनसे पूछा कि क्या मैं पोस्ट कार्ड के पैसे दे सकता हूं, एक बच्चे ने कहा, "हाथ मिला लीजिये, बस!
आधी रात बाद किसी समय, मैं बस स्टैंड के शेड, जो आंदोलनकारियों के सोने की जगह बन चुका है, में एक कोने में बैठा हुआ था तो एक सज्जन ने आकर एक उबला अंडा खाने को दिया और छोटे से थर्मस से चाय एक पेपर कप में निकाल कर दी। मैंने पूछा कि इतने छोटे थर्मस में कितनी चाय आती होगी और कितने लोगों को पिला पाते होंगे (यह सवाल मेरी 'अंडा-चायहरामी' ही था 
 ) पर उन्होंने बताया कि उनका घर पास ही है और वह बार-बार जितनी थर्मस में आ सकती है, चाय बनाकर लाते हैं और तीन-चार लोगों को पिलाते हैं। बाद में उन्होंने मुझे घर चलकर थोड़ी देर हीटर के पास बैठने का भी प्रस्ताव दिया, जो मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया क्योंकि मैं ठंड से ठिठुर रहा था। आधा घंटा घर पर बैठकर बतियाने के बाद हम फिर लौटे। इस बार उन्होंने एक गाईड की तरह आंदोलन स्थल घुमाया और एक ऊंची दीवार पर शाहीन बाग की दादियों की विशालकाय पेंटिंग दिखाई, जो बेंगलूरु से आई कुछ लड़कियों ने बनाई थी। उन्होंने ही मुझे इलाके की टोपोग्राफी समझाई। सुबह उन्होंने मुझे मेट्रो स्टेशन छोड़ा और चूंकि मेरे पास ऑटो के लिये थोड़ी सी रेज़गारी को छोड़कर पांच सौ का नोट ही था तो टोकन उन्होंने ही निकालकर दिया। तो इस तरह मुझे केजरीवाल की भेजी बिरयानी या आयोजकों की तरफ से पांच सौ रुपये तो नहीं मिले पर एक मेहरबान दोस्त से अंडा, चाय और मेट्रो का 30 रुपये का टोकन ज़रूर मिला  वैसे उससे पूर्व कुछ लड़के बड़े पतीले में गर्मागर्म हलवा बना लाये थे और दोने में भरकर लोगों में बांट रहे थे। एक ने मुझे ऑफर किया पर मैं मीठा ज़्यादा खाता नहीं इसलिये मना कर दिया।
कई लोगों ने मेरे हुलिये और लहज़े के कारण मुझसे पूछा, "कहां से आये हैं, मैंने मुंबई बताया तो उनका दूसरा सवाल होता था कि बुढ़ापे में (सफेद बाल-दाढ़ी के कारण मैं अपनी वास्तविक उम्र से दस-पंद्रह साल अधिक बूढ़ा दिखता हूं  ) रात में, सर्दी में आने की क्या ज़रूरत थी?" तो मैंने यही जवाब दिया कि शाहीन बाग की महिलाएं पचास दिनों से इतनी भीषण ठंड में (उस दिन तो दिसंबर-जनवरी के मुकाबले काफी कम सर्दी थी) दिन-रात डटी हुई हैं, उनके जज़्बे को सलाम करने के लिये एक दिन आना तो बनता ही है।
जब सुबह वहीं दोस्त (वही मेहरबान मेज़बान) बने जमालुदीन के साथ लौट रहा था तो एक दुकान के बाहर लगी छोटी सी तख्ती पर नज़र पड़ी। उस पर लिखा था, "मुस्कुराइये, आप शाहीन बाग में हैं!" मैं बरबस मुस्कुरा उठा। सच, आज के चौतरफा निराशाजनक खबरों, व्हाट्सएप, फेसबुक समेत सोशल मीडिया में और गोदी मीडिया के ज़रिये नफरतवादियों के फैलाये विषैले माहौल में शाहीन बाग जैसी जगहें मन में एक नई उम्मीद का संचार करती हैं कि अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है...

(7 फरवरी 2020 की फेसबुक पोस्ट)

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