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उप-कुलपति महोदय, टैंक देशभक्ति नहीं विध्वंस का स्मारक है!


जेएनयू के उप-कुलपति श्री एम. जगदीश कुमार की मांग सुनने के बाद से मन में एक सवाल उठ रहा था कि छात्रों को सेना के युद्धक टैंक अधिक प्रेरणा दे सकते हैं या हमारे महापुरुष और उनके रचे ग्रंथ? उप-कुलपति यह भूल गए कि वह जेएनयू के कुलगुरु भी हैं और भारतीय वांङमय में कुलगुरु को छात्रों के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और साक्षात्‌ परब्रह्म ही बताया गया है। हालांकि इस सवाल का जवाब कुछ दिन बाद ही मिल गया जब उनकी मांग का समर्थन करते हुए भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी ने लोकसभा में शून्यकाल के दौरान ज़ोर देकर कहा कि जेएनयू के छात्रों को राष्ट्रभक्ति की शपथ लेनी ही चाहिए।
माना कि युद्धक टैंकों से कई शांतिपूर्ण काम भी लिए जा सकते हैं। मसलन, हमने ऐसी कई तस्वीरें देखी हैं जिनमें टैंकों पर बिठाकर लोगों को दुर्गम रास्ते पार कराए गए, मुस्कुराती हुई महिलाओं और बच्चों को टैंक पर सैर करवा कर उन्हें रोमांच से भर दिया गया। लेकिन ये अपवाद हैं। दुनिया भर में युद्धक टैंक भय का संचार करने और दमन का प्रतीक ही रहा है। टैंकों से इलाके फतह किए जाते हैं; विद्रोह कुचले जाते हैं। दुश्मन की जीती हुई ज़मीन पर इन टैंकों को नुमाइश के तौर पर इसलिए खड़ा किया जाता रहा है कि वह अपनी औकात न भूले। इसके बावजूद विजित लोग कई बार ऐसा साहस दिखा देते हैं कि टैंक के तोप की नली बहादुरों के सामने सर झुका देती है। चीन के थिएन आन मन सर्कल पर 1989 में ऐसा ही एक लोकतंत्र समर्थक छात्र सीना तान कर खड़ा हो गया था और टैंक को उसके सामने सर झुकाना पड़ा था। लेकिन हमें मुगालते में नहीं रहना चाहिए; अंततः टैंक ने उस चौक पर अपनी चिर-परिचित विध्वंशकारी भूमिका ही अदा की थी।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के उप-कुलपति अपने कैम्पस में एक ऐसा ही टैंक नुमाइश के लिए रखवाना चाहते हैं ताकि उसे देख-देख कर छात्रों के मन में देशभक्ति का जज्बा उफान मारने लगे। दरअसल जेएनयू में पहली बार कारगिल विजय दिवस मनाया जा रहा था। इस अवसर पर भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के दो केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और जनरल वीके सिंह मौजूद थे। इन लोगों से उप-कुलपति ने सेना का एक टैंक मांग लिया। टीवी पर देशभक्ति की भावनाएं बहाने के लिए मशहूर रिटायर्ड मेजर जनरल जीडी बख्शी, लेखक राजीव मल्होत्रा और उम्दा क्रिकेटर गौतम गंभीर भी वहां उपस्थित थे।
नागरिकों के मन में देशभक्ति की भावना जगाने और बढ़ाने से भला किसे ऐतराज हो सकता है? लेकिन विश्वविद्यालय परिसर में टैंक लगाकर देशभक्ति उपजाने का तरीका कुछ हजम नहीं होता। इस समारोह में उपस्थित मान्यवरों ने तिरंगे और सेना का कई बार इस अंदाज़ में हवाला दिया था, गोया जेएनयू में सेना और तिरंगे का अपमान, अर्थात देशद्रोह का कारखाना चलता है! गंभीर ने याद दिलाया कि तिरंगे के सम्मान से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। अब उन्हें कौन समझाए कि जिस प्रशासनिक भवन में बैठकर उप-कुलपति जेएनयू का वैचारिक कायापलट करने चले हैं उसके ऊपर तो बरसों से तिरंगा लहरा रहा है!
ऐसा भी नहीं लगता कि उप-कुलपति का कैम्पस में टैंक से दमन-चक्र चलवाने का वाकई कोई इरादा रहा होगा, लेकिन वक्ताओं की भाषा के तेवरों से यही अंदाज़ा लगा है कि उनका लक्ष्य देशभक्ति का जज्बा पैदा करने की बजाए कुछ और ही था। लेखक राजीव मल्होत्रा का कहना था- “भारतीय सेना ने जेएनयू पर कब्ज़ा कर लिया है।” वीर रस के रिटायर्ड सैन्य अधिकारी मेजर जनरल बख्शी ने याद दिलाया कि अभी जादवपुर और हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी पर कब्ज़ा होना शेष है।
सवाल उठता है कि अपने ही शिक्षा के मंदिरों के बारे में यह किस तरह की हमलावर भाषा बोली जा रही है? ध्यान रहे कि जिन विश्वविद्यालयों पर कब्ज़ा करने की बात की गई वे वैचारिक स्वतंत्रता की ऐसी मिसाले हैं जहां छात्र अकादमिक सुधारों के साथ-साथ मानसिक बंधनों से आज़ादी, समानता और दिखते हुए न्याय की खुलेआम मांग करते रहे हैं, वे असहमति की संस्कृति के वाहक रहे हैं और सरकार की गलत शैक्षणिक नीतियों का अक्सर विरोध भी करते आए हैं। इन पर कब्ज़ा करने की भाषा-शैली से तो यही लगता है कि भारत में लोकतांत्रिक सद्गुणों की कोई कदर ही नहीं बची!
जेएनयू की ख़ासियत यह भी है कि वहाँ दलित, आदिवासी, पिछड़े और गरीब छात्र-छात्राओं की संख्या काफी ज़्यादा रहती है और यहां के प्राध्यापक इन विद्यार्थियों का हर स्तर पर साथ देते हैं। दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी और वामपंथी- हर तरह विचारधारा यहां फलती-फूलती है। लेकिन विचारों की लड़ाई टैंकों से नहीं लड़ी जाती। इससे तो यही संदेश जाता है कि आपके विचार दुर्बल और खोखले हैं। कल्पना कीजिए कि कोई छात्र साल भर की तैयारी के बाद परीक्षा देने जा रहा हो और अचानक उसे सामने युद्धक टैंक खड़ा दिख जाए तो उसकी मानसिक अवस्था क्या होगी? टैंक किसी पंथी में भेदभाव नहीं करता। वह सबको एकसमान भयातुर करता है।
वैसे भी देशभक्ति किसी ब्रांडेड साबुन की खुशबू नहीं है जिसे आप प्रचार के माध्यम से लोगों में भर दें। राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान का भेद न जानने वाला किसान-मजदूर भी देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होता है और सीमा पर डटा सैनिक भी। सुप्रीम कोर्ट की समझ यह है कि सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगीत बजाना और उस दौरान दर्शकों का खड़ा रहना अनिवार्य करके देशभक्ति की भावना का संचार किया जा सकता है। हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि तमिलनाडु के सभी स्कूल, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में सप्ताह में एक बार वंदे मातरम बजना चाहिए तथा सभी सरकारी दफ्तरों और निजी कंपनियों के अंदर महीने में कम से कम एक बार राष्ट्रगीत बजाना ही होगा। माननीय न्यायालय की समझ सही हो सकती है, लेकिन इन अहिंसक और रचनात्मक कदमों से भी लोगों के मन में देशभक्ति प्रबल होने की गारंटी तो वह भी नहीं दे सकता!
क्या जेएनयू के उप-कुलपति इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि हिंसा और विध्वंश के स्मारक युद्धक टैंक को कैम्पस में किसी जगह खड़ा कर देने मात्र से छात्रों के मन में देशभक्ति की पवित्र भावना हिलोरें मारने लगेगी?

-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

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