Skip to main content

मशरूम मीडिया के शिकार हो गए आप!


(उपन्यास अंश)
राहुल ने देखा ऑफिस में ताला लगा था। उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, तभी ऑफिस ब्वॉय ने आकर उसे नमस्कार किया। वह पास में एक गुमटी के पास बैठकर चाय पी रहा था।
ऑफिस में ताला क्यों बंद कर रखा है? ये भी भला कोई ताला बंद करने का समय...? राहुल अपनी बात पूरी करता उसके पहले ही ऑफिस ब्वॉय बोला-
...साहब ऑफिस तो खाली हो गया...।
ऑफिस खाली हो गया... क्या मतलब? क्या बक रहे हो तुम?? राहुल की आवाज़ बहुत ऊंची हो गई थी।
...साहब... मेरा... मेरा मतलब था कि साहब ने ऑफिस खाली कर दिया...। ऑफिस ब्वॉय राहुल का गुस्सा देखकर डर गया था।
कौन से साहब ने ऑफिस खाली कर दिया..? राहुल का स्वर और तेज़ हो गया। 
एसपी साहब ने... अभी कुछ देर पहले तो ट्रक में सामान लादकर ले गए हैं। मैंने कुछ मज़दूरों के साथ सामान लोड करवाया है। वह चले गए तो मैं मज़दूरों के साथ बैठकर चाय पीने लगा। उसने गुमटी की तरफ इशारा करते हुए कहा, जहां कई लोग बैठे चाय पी रहे थे।
राहुल को ऐसा लगा जैसे ज़मीन घूम रही हो। उसने खुद को संभाला और पूछा-
एसपी भाई ने तुमसे क्या कहा...??
उन्होंने मेरा हिसाब कर दिया साहब...! उसने अपनी पैंट की जेब में रखे नोटों पर हाथ रखकर टटोलते हुए बताया। फिर जींस की पिछली जेब से बीएसएनएल लैंडलाइन टेलीफोन का बिल निकालकर दिखाते हुए कहा- ये बिल और पैसा भी दे गए हैं। कहा है, इसे ज़रूर भर देना।
कहां चले गए एसपी भाई साहब...?? राहुल ज़ोर से चीख पड़ा।
मुझे नहीं पता साहब...। क्या आपको भी नहीं बताया? वह आश्चर्य से राहुल का चेहरा देख रहा था।
राहुल की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वह बेहद परेशान हो गया था। उसने एसपी भाई को फोन लगाया। फोन स्विच्ड ऑफ था। उसने एसपी भाई की फेसबुक प्रोफाईल खोलकर मैसेज भेजना चाहा पर वह कहीं नहीं दिख रही थी। राहुल ने फेसबुक प्रोफाईल कई बार सर्च की पर वह नहीं थी। शायद डिलीट कर दी गई थी।
राहुल ने दादा को फोन लगाया। पूरी रिंग गई पर दादा का फोन नहीं उठा। उसने दोबारा लगाया। इस बार दादा ने फोन उठा लिया।दादा आप कहां हैं?? दादा के हैलो बोलने पर राहुल ने पूछा। 
घर पर...। क्यों? क्या बात है?
ये...ये ऑफिस क्या खाली कर दिया गया...? उसने दादा से सवाल किया।
हां... ऑफिस तो आज खाली हो गया होगा। एसपी भाई अब मैगज़ीन नहीं निकालेंगे...। उन्होंने क्या आपको नहीं बताया? दादा के स्वर में हैरानी के भाव थे। 
नहीं-नहीं..., मुझे... तो... मुझे तो... कुछ भी नहीं पता...। राहुल की आवाज़ कांप रही थी।
देखिए... यह तो आपको पता ही है न कि नेताजी की पार्टी बुरी तरह चुनाव हार गई है। अब नेताजी फाइनेंस नहीं करेंगे...।
नहीं, मुझे तो यह मालूम है कि नेताजी ने कहा है कि अब फुल फाइनेंस नहीं कर पाएंगे, बल्कि हाफ फाइनेंस करेंगे। एसपी भाई किसी एक और फाइनेंसर का इंतज़ाम कर लें। एसपी भाई दूसरे फाइनेंसर के इंतज़ाम में लगे भी थे। 
नहीं राहुलजी... नहीं...। आपकी जानकारी एकदम गलत है। नेताजी ने फाइनेंस करने से मना कर दिया है। इसके साथ ही उन्होंने उन पैसों के खर्च का हिसाब भी मांगा है, जो उन्होंने अब तक एसपी को दिए थे। एसपी उन पैसों का हिसाब नहीं दे रहे हैं। 
राहुल ने कुछ कहना चाहा पर दादा ने अपनी बात चालू रखी...। राहुलजी, दरअसल एसपी भाई और उनके साथ के लोग मशरूम मीडिया वाले लोग हैं।
मशरूम मीडिया? ये मशरूम मीडिया क्या है? राहुल ने आश्चर्य जताते हुए पूछा। यह शब्द वह पहली बार सुन रहा था।
मशरूम मीडिया का मतलब है ऐसे मीडिया संस्थान या मीडिया हाऊस जो चुनाव नज़दीक आते ही मशरूम की तरह उग आते हैं और जिनकी उम्र चुनाव खत्म होने तक या चुनाव खत्म होने के चंद दिनों बाद तक ही होती है। इसके बाद इनका कहीं अता-पता नहीं चलता। ये ऐसे अखबार, ऐसे चैनल्स या मैगज़ींस होते हैं जो चुनाव के पहले खुलते हैं और चुनाव के समय तक या उसके कुछ दिनों बाद तक ही चलते हैं। इनमें तमाम ऐसे तथाकथित मीडिया संस्थान भी होते हैं जो मीडिया के नाम पर मोटी कमाई कर बैठ जाते हैं, अखबार या मैगज़ीन कुछ नहीं निकालते। बस उसका ज़ुबानी प्रचार करते हैं... निकलने ही वाला है... शुरू ही होने वाला है। जैसा कि एसपी भाई ने किया। 
दादा कुछ सेकेंड्स के लिए रुके फिर बोले-
आपको शायद पता नहीं कि एसपी भाई ने मार्केट से काफी मोटा पैसा उठा रखा है?
किस मार्केट से पैसा उठा रखा है?  राहुल बुरी तरह चौंका था।
अरे, लखनऊ की मार्केट से, और कहां से...? एसपी भाई ने बड़े-बड़े नेताओं और अफसरों से अपने संबंध बताकर बड़े-बड़े काम करवाने और बड़े-बड़े ठेके दिलवाने का लालच देकर तमाम लोगों से खूब पैसा वसूला है और काम किसी का नहीं करवाया। उन्होंने दो लाख रुपये तो मास्टर साहब से ही ले रखे हैं। किसी का ट्रांसफर करवाने को कहा था।
कौन मास्टर साहब? 
मास्टर जरनैल सिंह...। अरे पड़ोसी सरदारजी। जिनका घर ऑफिस के ठीक बगल में है। दादा ने बताया।
राहुल की आंखों के सामने सरदार जरनैल सिंह का चेहरा नाचने लगा।
दादा बोले जा रहे थे- अब ऐसे लोग एसपी भाई पर दबाव डाल रहे हैं कि या तो काम करवाइए या फिर हमारा पैसा वापस कीजिए। ऐसे में एसपी भाई के पास अब लखनऊ छोड़कर भागने के अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं रह गया था।
आपकी सैलरी तो एसपी भाई ने दे दी है या बाकी है? राहुल ने बीच में दादा से पूछा।
मेरी सैलरी तो मिल गई है। मैंने तीन महीने की सैलरी एडवांस ले ली थी। बल्कि मैंने एसपी भाई से कुछ और पैसे भी उधार ले लिए थे, जिसे मैंने उनको वापस नहीं दिया है। मैं सैलरी के मामले में कोई रिस्क नहीं ले सकता था, इसलिए एडवांस सैलरी की शर्त रख दी। मैं तो कई लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कई ऐसे मशरूम मीडिया हाऊसेज में काम कर चुका हूं न! मुझे पता है कि सैलरी पहले से लेने में ही फायदा है। क्योंकि चुनाव खत्म तो ये मीडिया हाऊस भी खत्म...। ऐसे में रिस्क क्यों लिया जाए? मेरे दो-तीन दोस्त तो ऐसे हैं, जो चुनाव का मौसम नज़दीक आते ही ऐसे मीडिया संस्थानों के प्रोजेक्ट्स से जुड़ जाते हैं और मोटा पैसा बनाते हैं। फिर दो-तीन साल आराम से बैठकर खाते हैं।
राहुल ने एक लंबी सांस ली, फिर बोला- दादा, ...ये सब बातें आपको मालूम थीं फिर भी आपने मुझे एक बार भी नहीं बताया। आपने इस संबंध में एक बार इशारा भी नहीं किया। उसके स्वर में भारी रोष था।
दादा ने कहा- देखिए राहुलजी, आपको तो ये बात बहुत पहले ही समझ लेनी चाहिए थी पर पता नहीं क्यों आप समझ नहीं पाए...। मैंने आपको इसलिए कुछ बताना या आपको आगाह करना उचित नहीं समझा कि मुझे ऐसा लगता था कि आप एसपी भाई के बहुत ही खास आदमी हैं। फिर एक दूसरा असमंजस भी था। वह यह कि अगर मैं आपसे एसपी भाई के खिलाफ कुछ कहता तो वह मेरी नमकहरामी होती। मैं एक तरह से हस्तिनापुर के सिंहासन से बंधा हुआ था राहुलजी। मेरी आंखों पर तो पट्टी बंधी थी, इसलिए मैंने आपको कुछ नहीं बताया। प्लीज मुझे माफ कर दीजिए राहुलजी। मैं देख रहा हूं कि एसपी भाई ने आपको पूरी तरह अंधेरे में रखा है। आप तो मशरूम मीडिया वालों के शिकार हो गए मेरे भाई...। दादा का स्वर सहानुभूतिपूर्ण हो गया था। वह सेंटीमेंटल भी हो गए थे।
अच्छा!  आपके पास उनका कोई दूसरा नंबर है? उनका मोबाईल बंद बता रहा है। राहुल ने पूछा। 
अब वह नंबर शायद बंद ही रहेगा। मैं एसपी भाई की रग-रग से वाकिफ हूं। वह शायद दिल्ली शिफ्ट होने वाले हैं। वैसे उनका  दूसरा कोई कांटेक्ट नंबर मेरे पास नहीं है।क्या भाभी का नंबर है?
नहीं... उनका भी नहीं है। दे बार मेरी बात उनसे हुई ज़रूर है पर एसपी भाई के मोबाईल पर ही हुई है। 
आपका और उनका कोई कॉमन फ्रेंड है?
नहीं...। ऐसा कोई फ्रेंड भी नहीं है। दादा कुछ देर सोचकर बोले।
अच्छा, आज़मगढ़ में कहां के रहने वाले हैं वह? क्या यह पता है आपको?
नहीं राहुलजी, यह भी नहीं पता। शायद मुबारकपुर के हैं बट आय एम नॉट श्योर अबाऊट दिस...। यह मैं सिर्फ अंदाजा लगा रहा हूं। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा इंप्रेशन है कि वह मुबारकपुर के हैं।
अच्छा, आपकी और एसपी की मुलाकात किस व्यक्ति के जरिये हुई थी... राहुल ने अगला सवाल किया। 
हम दोनों की मुलाकात किसी के ज़रिये नहीं हुई थी। हमारी मुलाकात सहारागंज मॉल में हुई थी। 
आप दोनों की मुलाकात कैसे हुई थी राहुलजी? दादा ने भी पलटकर यही सवाल किया था।
ओह शिट...!! मेरी और उनकी मुलाकात भी सहारागंज मॉल में ही हुई थी...। कहकर राहुल ने फोन काट दिया। उसका दिमाग जैसे सनसना रहा था। वह सिर पकड़कर ज़मीन पर बैठ गया। ऑफिस ब्वॉय दौड़कर चाय की दुकान से एक गिलास पानी ले आया और उसको दिया।

(नोट : अखिलेश मयंक का यह उपन्यास अमेज़न पर उपलब्ध है।)

Comments

Popular posts from this blog

प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा

-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं।  साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम

Premchand’s Torn Shoes

By Harishankar Parsai There is a photograph of Premchand in front of me, he has posed with his wife. Atop his head sits a cap made of some coarse cloth. He is clad in a kurta and dhoti. His temples are sunken, his cheek-bones jut out, but his lush moustache lends a full look to his face. He is wearing canvas shoes and its laces are tied haphazardly. When used carelessly, the metal lace-ends come off and it   becomes difficult to insert the laces in the lace-holes. Then, laces are tied any which way. The right shoe is okay but there is a large hole in the left shoe, out of which a toe has emerged. My sight is transfixed on this shoe. If this is his attire while posing for a photograph, how must he be dressing otherwise? I wonder. No, this is not a man who has a range of clothes, he does not possess the knack of changing clothes. The image in the photograph depicts how he really is. I look towards his face. Are you aware, my literary forbear, that your shoe is

"Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" bags 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival, Delhi

Sindhi movie "Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" (PHHYA) bagged 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival held this week at New Delhi by Sindhi Academy, Delhi Government. According to sources related to PHHYA, the movie which created history by premiering in Dubai in 2014, got awards for Best film (popular), Best director (Ramesh Nankani), Best Actor (Jeetu Vazirani) and Best Music Director (Hitesh Udhani). Award for best music was shared by Kamlesh Vaidya and Vijay Rupani (Vardaan)    The festival held on 27th and 28th May at Sirifort Stadium, New Delhi, screened 4 movies; PHHYA, Nai Shuruaat, Vardhaan and Trapadd Teshion Tey. Nai Shuruaat, a movie based on thalasemmia, bagged awards in category of Best film (critics) and Best cinematography (Unnidivakaran D Vinod). While Vardaan, with a message to save girl child, got award for Best female actor (Komal Chandnani) also.