शेखचिल्ली को मूर्ख करार दिया गया क्योंकि वह एक पेड़ की उस डाल को काट रहा था जिस
पर वह बैठा था। मुंबई और महाराष्ट्र के प्रशासकों को क्या कहा जाए जो मुंबई जैसे
कंक्रीट के जंगल की लाइफलाइन माने जाने वाले पेड़ों को काट रहे हैं वह भी मेट्रो की कोलाबा से सीप्ज़
(अँधेरी) के बीच मेट्रो लाइन बिछाने के लिए। यह मज़ाक की बात नहीं है क्योंकि पांच
हज़ार से ज़्यादा पेड़ों को काटा जाने वाला है। ऊपर से तुर्रा यह कि काटे जाने वाले कुछ पेड़ों
पर उक्त बोर्ड लगाया गया है, जिसमें पेड़ काटने का विरोध करने पर कानूनी कारवाई करने
की धमकी दी गयी है। क्या ऐसे ही मामलों के लिए नहीं कहा गया विनाश सॉरी विकास काले
विपरीत बुध्दि!
-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं। साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम
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