Skip to main content

कश्मीर की भयावह सच्चाई को सामने लाता वृतचित्र 'खून दिय बारव'

        

इफ्फत फातिमा का वृत्त चित्र 'खून दिय बारव' (खून अपना निशान छोड़ता है) देखने का मौका मिला. कोई योजना नहीं थी. बृहन्मुंबई यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स (बीयूजे) के कार्यालय में था जहाँ फिल्म की स्क्रीनिंग हुई. लगभग ९० मिनट का वृतचित्र कश्मीर में गायब हो गए हज़ारों लोगों के परिजनों की व्यथा को दर्शाती है. फिल्म देखकर अहसास होता है कि 'एसोसिएशन ऑफ़ पेरेंट्स ऑफ़ डिसअपियर्ड पर्सन्स' कैसे लगातार बिना थके, बिना रुके प्रदर्शनों और याचिकाओं का सिलसिला जारी रख मूवमेंट की मशाल जलाए हुए है और इस कोशिश में लगी हुई है कि स्थानीय या केंद्रीय सत्ता चाहे भी तो भूल न सके.

८००० से १०,००० लोग (अधिकतर युवा) कश्मीर में गायब हो चुके हैं. इन्हें सशस्त्र बलों और पुलिस वाले कई साल पहले घरों से पकड़कर ले गए थे और वह वापस नहीं लौटे. ९० के दशक के अंत में जब कश्मीर में अलगाववाद चरम पर था, गुमशुदगी के मामले बढ़ गए थे. इनके परिजन आज भी इनके लौटने का इंतज़ार करते हैं और समय-समय पर पब्लिक पार्क में मिलकर प्रदर्शन करते हैं. इस दौरान उनके हाथों में होती हैं तख्तियां, गुमशुदा परिजनों की तस्वीरें और आँखों में सवाल कि उनके भाई, पिता, बेटे, पति कब लौटेंगे.
फातिमा, जो खुद कश्मीर से हैं, ने स्क्रीनिंग के बाद दर्शकों से संवाद में बताया कि उन्होंने यह फिल्म वर्ष २००५-२०१० के बीच शूट की और फिर अगले चार साल उन्हें फिल्म के संपादन में लगे यानी फिल्म बनाने में उन्हें लगभग नौ साल लगे. उन्होंने बताया कि वह करीब १५० परिवारों से मिलीं.

उन्होंने बताया कि वेस्टमिनिस्टर विश्वविद्यालय, लन्दन, नेपाल में आयोजित फिल्म साउथ एशिया फिल्मोत्सव के अलावा भारत के कई हिस्सों में जिनमें श्रीनगर शामिल है, फिल्म का प्रदर्शन किया गया है और लगभग सभी जगह प्रतिसाद बेहद सकारात्मक रहा है. उन्होंने बताया कि उनका जोर छोटे-छोटे समूहों को फिल्म दिखाने पर है.

(Photo courtesy: Facebook page of the documentary)


-महेश राजपूत 

Comments

Popular posts from this blog

प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा

-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं।  साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम...

नरक में मोहलत (कहानी)

  -प्रणव प्रियदर्शी घर से निकलते समय ही अनिता ने कहा था, ‘बात अगर सिर्फ हम दोनों की होती तो चिंता नहीं थी। एक शाम खाकर भी काम चल जाता। लेकिन अब तो यह भी है। इसके लिए तो सोचना ही पड़ेगा।’ उसका इशारा उस बच्ची की ओर था जिसे अभी आठ महीने भी पूरे नहीं हुए हैं। वह घुटनों के बल चलते, मुस्कुराते, न समझ में आने लायक कुछ शब्द बोलते उसी की ओर बढ़ी चली आ रही थी। अनिता के स्वर में झलकती चिंता को एक तरफ करके अशोक ने बच्ची को उठा लिया और उसका मुंह चूमते हुए पत्नी अनिता से कहा, ‘बात तुम्हारी सही है। अब इसकी खुशी से ज्यादा बड़ा तो नहीं हो सकता न अपना ईगो। फिक्कर नॉट। इस्तीफा वगैरह कुछ नहीं होगा। जो भी रास्ता निकलेगा, उसे मंजूर कर लूंगा, ऐसा भी क्या है।’ बच्ची को गोद से उतार, पत्नी के गाल थपथपाता हुआ वह दरवाजे से निकल पड़ा ऑफिस के लिए। इरादा बिल्कुल वही था जैसा उसने अनिता से कहा था। लेकिन अपने मिजाज का क्या करे। एक बार जब दिमाग भन्ना जाता है तो कुछ आगा-पीछा सोचने के काबिल कहां रहने देता है उसे।  मामला दरअसल वेतन वृद्धि का था। अखबार का मुंबई संस्करण शुरू करते हुए सीएमडी साहब ने, जो इस ग्रुप के म...

चुनावपूर्व पुल दुर्घटनाएं कैसे कवर करें पत्रकार? डूज़ एंड डोंट्स

डिस्क्लेमर: यह लेख पाठ्यपुस्तकों में शामिल कराने के पवित्र उद्देश्य के साथ लिखा गया है। विषय चूंकि मीडिया से संबंधित है इसलिए अपेक्षा है कि इसे सरकारी, अर्ध सरकारी व निजी मीडिया संस्थानों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सकता है। कोई और समय होता तो यह लेख लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती लेकिन समय ऐसा है कि मीडिया जगत से ‘देशद्रोहियों‘ को जेलों में ठूंसकर लाइन पर लाने का काम उतनी तेजी  से नहीं हो पा रहा है, जितनी तेजी से होना चाहिए था। खासकर सोशल मीडिया में तो इनका ही बोलबाला है सो कोई भी त्रासद दुर्घटना होने पर उसका कवरेज कैसे किया जा चाहिए, कैसे नहीं किया जाना चाहिए यानी ‘डूज़‘ क्या हैं, ‘डोंट्स‘ क्या हैं, यहां  बताया जा रहा है। आशा है कि मीडिया के छात्रों के लिए यह लेख उपयोगी साबित होगा।  डूज़  -पॉजिटिव बनें। संवेदनशील बनें।  -यह जरूर बताएं कि पुल कितने सौ वर्ष पुराना था? और पुल पर क्षमता से बहुत ज्यादा लोग थे।  -लोगों की लापरवाही या चूक, जैसे उन्होंने प्रशासन के निर्देशों/चेतावनियों का पालन नहीं किया और वह खुद ही दुर्घटना के लिए जिम्मेदार थे, को हाइलाईट कर...