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अनारकली को एक आदाब तो जरूर बनता है हुज़ूर!



आज अनारकली ऑफ आरा से मिलना हुआ। जैसे अनारकली को हीरामन न मिलता तो वह 'भीसी बाबू' को सबक ना सिखा पाती। वैसे ही अवि को मुक्ता न मिलती तो वह अनारकली न बना पाता। यह फ़िल्म जितनी अवि की है, उतनी ही मुक्ता और बिटिया सुर की भी है। अविनाश ने स्वरा और पंकज के साथ मिलकर 2 घंटे का बेजोड़ सांग जोड़ा है।  जब गर्दा मुंबई में उड़ रहा है तो बिहार और यूपी में तो यकीनन आग लगी होगी। 'देसी तंदूर' यानि कि स्वरा को इस फिल्म के लिए लंबे समय तक याद किया जाएगा। पंकज त्रिपाठी के लिए क्या कहा जाए। यह शख़्स अभिनय करता नहीं बल्कि किरदार को जीता है। संजय मिश्रा एक सदाबहार अभिनेता हैं। यह उन्होंने फिर साबित किया है। फिल्म हंसाती-गुदगुदाती है तो रुलाती और आक्रोश भी पैदा करती है। यह फिल्म उन हज़ारों-हज़ार अनारकलियों की आज़ादी, आत्मसम्मान और स्वाभिमान की भी कहानी है, जो नाच-गाकर अपना गुज़र-बसर करती हैं। साफगोई से कहूं तो अविनाश फ़िल्म को बाकी फिल्मकारों की तरह थोड़ा और कमर्शियल टच दे सकता था। कथानक को देखते हुए उसके पास इसका भरपूर अवसर भी था। लेकिन संसाधनों की भारी कमी के बावजूद उसने ऐसा नहीं किया। क्यूँ नहीं किया इसका जवाब वही बेहतर दे सकता है। अनारकली आडंबर नहीं रचती बल्कि यथार्थ को भोगती है। न केवल एक पात्र
के तौर पर बल्कि एक फिल्म के तौर पर भी और यही उसकी बड़ी खूबी है।एक और जरूरी बात कि जिस तरह फिल्म को द्विअर्थी संवाद और गानों से रची बसी करार दिया जा रहा था वैसा है नहीं। जो है, जितना है, जरूरत भर है. फूहड़ता कहीं नहीं है। बल्कि सच यह है कि आजकल की बॉलीवुड फिल्मों से इस मामले में भी बेहतर ही है। जाइए देख आइए। अनारकली को एक आदाब तो जरूर बनता है हुज़ूर। 





(मित्र अनिल अत्रि की फेसबुक वॉल से बिना पूर्वानुमति के) 

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