Skip to main content

WHO: तेज़ी से अवसादग्रस्त हो रहा है भारत!

-विजयशंकर चतुर्वेदी

अवसाद और अन्य मानसिक विकारों को लेकर वैश्विक स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक महत्वपूर्ण रपट सामने आई है।  इस रपट के मुताबिक दुनिया भर के 32.2 करोड़ अवसादग्रस्त लोगों में से 50% लोग भारत और चीन में बसते हैं। अकेले भारत में ही 5 करोड़ से अधिक लोग इस विकार से जूझ रहे हैं। डब्ल्यूएचओ की यह रपट ऐसे समय आई है जब भारत में छात्रों का परीक्षा-काल चल रहा है और ज़्यादातर छात्र तनाव में होते हैं। परीक्षाओं में अपेक्षित सफलता न मिलने की आशंका और सामाजिक दबाव उन्हें अवसादग्रस्त कर देता है।  अगर उन्हें समय पर अभिभावकों अथवा परामर्शदाताओं का मार्गदर्शन न मिले तो इसके परिणाम घातक हो सकते हैं!
बात सिर्फ छात्रों की ही नहीं है। हमारे देश में महिलाएं,  मजदूर,  किसान,  नौकरीपेशा, व्यापारी यानी कोई वर्ग ऐसा नहीं है, जिसके अवसादग्रस्त होने की आशंका न हो। अवसाद और चिंता ऐसा मर्ज़ नहीं है जिसके लिए कोई आयुवर्ग निर्धारित किया जा सके। वर्ष 2018 के दौरान भारत में करीब 3.8 करोड़ लोग चिंताग्रस्त पाए गए थे और इसमें हर आयु वर्ग के लोग शामिल थे। गौर करने की बात यह है कि पुरुषों के मुक़ाबले इनमें महिलाओं की संख्या 30% ज़्यादा थी। स्थिति की भयावहता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में तनाव, मोतियाबिंद, कैंसर, रक्तचाप, दिल-गुर्दे की बीमारी और मधुमेह जैसी आम बीमारियों में अवसाद का रोग भी शुमार हो चुका है। डब्ल्यूएचओ की रपट से जाहिर हुआ है कि सर्वे किए जाने वाले 18 देशों में से भारत में सबसे अधिक (36%) लोग मेजर डिप्रेसिव एपिसोड (एमडीई) यानी गहन अवसाद का शिकार हैं!
देश में होने वाली आत्महत्याओं के बड़े कारणों में चिंता और अवसाद भी हैं। यह चिंता कर्ज़,  परिवार,  रिश्ते,  शादी,  सुंदरता,  दुश्मनी,  मुक़दमा,  धार्मिक विद्वेष,  विफलता,  सामाजिक उपेक्षा या अन्यान्य कारणों से हो सकती है। चिंतामुक्त होने के जब सभी रास्ते बंद हो जाते हैं, यानी जब हर तरह का सपोर्ट सिस्टम नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है,  तो व्यक्ति गहरे अवसाद में चला जाता है और आखिरकार उसे आत्महत्या का रास्ता ही सबसे मुफ़ीद जान पड़ता है! भारत में होने वाली असहाय किसानों की चौतरफा आत्महत्याएं इसका ज्वलंत उदाहरण हैं।  
चिंता की बात यह है कि अवसाद का कारण सिर्फ आर्थिक विपन्नता ही नहीं होता। अगर ऐसा होता तो डब्ल्यूएचओ की रपट में फ्रांस (32.3%) और यूएसए (30.9%) जैसे समृद्ध और शक्तिशाली देश एमडीई यानी गहन अवसाद के पैमाने पर क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर नहीं होते! व्यक्ति भौतिक कारणों के अलावा अन्य वजहों से भी अवसादग्रस्त हो सकता है। शायद इसीलिए भूटान जैसे छोटे और अपेक्षाकृत विपन्न देश के नरेश ने संयुक्त राष्ट्र संघ में पहली बार हैप्पीनेस इंडेक्स आंकने की बात उठाई थी बाद में वेनेजुएला और संयुक्त अरब अमीरात ने हैप्पीनेस इंडेक्स बढ़ाने के लिए अपने यहां आनंद मंत्रालय बनाया लेकिन जब वर्ष 2016 की वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट सामने आई तो डेनमार्क जैसा लघु देश विशाल खुशहाल पाया गया और उसके बाद यूरोप के ही स्वीडन, स्विटजरलैंड और नार्वे का नंबर था, जो आर्थिकता की चूहादौड़ से काफी हद तक पीछे हट चुके हैं। अकारण नहीं है कि डब्ल्यूएचओ के अनुसार अवसादग्रस्त लोगों की संख्या दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में सबसे ज़्यादा है।
भूटान और चंद यूरोपीय देशों से सबक हासिल करते हुए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उज्जैन में 14 मई, 2016 को सिंहस्थ के समापन समारोह को संबोधित करते हुए ऐलान किया था कि राज्य में वह आनंद मंत्रालय की स्थापना करेंगे ताकि प्रदेश की जनता के चेहरे मुस्कुराते रहें, ज़िंदगी बोझ नहीं वरदान लगे! मंत्रालय बनने के बाद 14 से 21 जनवरी, 2017 के दौरान ज़िले से लेकर गांव स्तर तक आनंद उत्सव मनाए गए। लेकिन लोगों की ज़िंदगी इससे कितनी आनंदमय हुई, यह मापा जाना अभी बाक़ी है।
प्राचीन भारत के प्रसिद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने मान्यता दी थी कि इस सृष्टि की मूल प्रकृति में सहयोग, सहअस्तित्व एवं सहभागिता के सिद्धांत व्याप्त हैं। सामाजिक जीवन में जब मनुष्य को यह समझ में आ जाएगा कि वह इस सृष्टि की हर वस्तु से, जीव-निर्जीव से, पूर्ण रूप से जुड़ा हुआ है और केवल जुड़ा हुआ ही नहीं है वह शेष सभी पर निर्भर भी है, तो उसका जीवन आनंदमय हो जाएगा। लेकिन आज हम पाते हैं कि आर्थिक वासना के बुल्डोज़र ने ये तार छिन्न-भिन्न कर दिए हैं। एक नागरिक के तौर पर सामाजिक दायित्व निभाते हुए संतुष्टि का अनुभव करना लोगों के लिए दूभर हो चला है, जबकि आनंद की मंजिल पाने का पहला पड़ाव भौतिक संतुष्टि ही है।
भारत जैसे उथलपुथल भरे देश में, जहां आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक विद्वेष दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है, भौतिक संतुष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती। देश के पहले आनंद मंत्रालय का गठन करने वाले एमपी में, जहां औसतन हर रोज़ 6 किसान आत्महत्या करते हों, 60 युवतियां गायब होती हों, 13 महिलाएं दुष्कर्म का शिकार होती हों, 5 वर्ष की आयु के जीवित प्रति हज़ार में से 379 बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हों, 43% बच्चे कुपोषित हों- वहां आनंद मंत्रालय बनाना जले पर नमक छिड़कने के समान ही है। एमपी में पिछले बजट सत्र के दौरान विधानसभा में पेश किए गए जवाबों पर ही गौर करें तो साफ है कि राज्य में 396 दिनों के दौरान 10,664 लोगों ने ख़ुदकुशी की, यानी हर रोज़ 27 आत्महत्याएं! ऐसे में पूरे देश के मानसिक हालात की कल्पना पाठक स्वयं कर सकते हैं।
यह सही है कि जीवनावश्यक स्वास्थ्य, रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्ति के साथ लोगों को अगर अध्यात्म, योग, ध्यान, कला, संस्कृति और गीत-संगीत का अमृत पिला दिया जाए तो अवसाद पास नहीं फटकेगा। लेकिन देश की सरकारों को ख़ुशहाली के झूठे आंकड़े गढ़ने से ही फ़ुर्सत नहीं है। डब्ल्यूएचओ की रपट आईना दिखा रही है कि सरकारें ख़ुद जल्द से जल्द स्वार्थलिप्सा एवं अवसाद से बाहर निकलें और उन वजहों का निर्मूलन करें जो भारत को अवसादग्रस्त कर रही हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 
(लेख पर अपनी प्रतिक्रिया ब्लॉग पर देने के साथ-साथ सीधे लेखक के ई-मेल Chaturvedi_3@hotmail.comपते पर भी दे सकते है।)    


Comments

Popular posts from this blog

प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा

-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं।  साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम

Premchand’s Torn Shoes

By Harishankar Parsai There is a photograph of Premchand in front of me, he has posed with his wife. Atop his head sits a cap made of some coarse cloth. He is clad in a kurta and dhoti. His temples are sunken, his cheek-bones jut out, but his lush moustache lends a full look to his face. He is wearing canvas shoes and its laces are tied haphazardly. When used carelessly, the metal lace-ends come off and it   becomes difficult to insert the laces in the lace-holes. Then, laces are tied any which way. The right shoe is okay but there is a large hole in the left shoe, out of which a toe has emerged. My sight is transfixed on this shoe. If this is his attire while posing for a photograph, how must he be dressing otherwise? I wonder. No, this is not a man who has a range of clothes, he does not possess the knack of changing clothes. The image in the photograph depicts how he really is. I look towards his face. Are you aware, my literary forbear, that your shoe is

"Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" bags 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival, Delhi

Sindhi movie "Pahinjo Hikdo Hi Yaar AA" (PHHYA) bagged 4 awards at 2nd Sindhi Film Festival held this week at New Delhi by Sindhi Academy, Delhi Government. According to sources related to PHHYA, the movie which created history by premiering in Dubai in 2014, got awards for Best film (popular), Best director (Ramesh Nankani), Best Actor (Jeetu Vazirani) and Best Music Director (Hitesh Udhani). Award for best music was shared by Kamlesh Vaidya and Vijay Rupani (Vardaan)    The festival held on 27th and 28th May at Sirifort Stadium, New Delhi, screened 4 movies; PHHYA, Nai Shuruaat, Vardhaan and Trapadd Teshion Tey. Nai Shuruaat, a movie based on thalasemmia, bagged awards in category of Best film (critics) and Best cinematography (Unnidivakaran D Vinod). While Vardaan, with a message to save girl child, got award for Best female actor (Komal Chandnani) also.