Skip to main content

#RapeThreatsNotOk ट्विटर पर बलात्कार की धमकियों के खिलाफ अभियान


चिन्मयी श्रीपदा एक गायिका हैं जिन्हें ट्विटर पर एक राय व्यक्त करने के बदले बलात्कार से लेकर चेहरे पर तेज़ाब फेंकने की धमकियाँ मिलीं। जब उन्होंने ट्विटर से संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि वह तब तक कोई कार्रवाई नहीं कर सकते जब तक की पुलिस केस न हो। 
श्रीपदा के अनुसार अधिकाँश औरतें यहाँ से आगे नहीं बढ़ पातीं और बस ट्विटर से खुद को अलग कर लेती हैं। पर उन्होंने लड़ाई जारी रखी और पुलिस में शिकायत की। श्रीपदा के अनुसार अंतत: प्रशंसकों की मदद से धमकियां देने वाले तीन लोगों की शिनाख्त हो पायी और उन्हें १० दिन के लिए जेल की हवा भी खानी पड़ी। 
श्रीपदा के अनुसार वह सेलेब्रिटी हैं और उनके पास लड़ाई के लिए समय, संसाधन और समर्थन उपलब्ध था पर उन करोड़ों सामान्य औरतों का क्या जो ट्विटर पर हैं और रोज़ बलात्कार की धमकियों का शिकार होती हैं। 
श्रीपदा के अनुसार यह ट्विटर की ज़िम्मेदारी है कि वह सुनिश्चित करे कि उनके मंच का इस्तेमाल महिलाओं के खिलाफ हिंसा के लिए न किया जाए। 
श्रीपदा ने चेंज डॉट ओआरजी पर एक ऑनलाइन याचिका दाखिल की है और ट्विटर से ऐसे अकाउंट बंद करने का आह्वान किया है जिन पर महिलाओं को इस तरह की धमकियाँ दी गयी  हैं। 
श्रीपदा के अनुसार ट्विटर ने हाल में एक नयी नीति शुरू की है जिसके तहत 'म्यूट' और 'ब्लॉक' के विकल्प दिए गए हैं. पर कभी बड़े पैमाने पर ऐसे अकाउंट बंद नहीं किये जो महिलाओं के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देते हैं। २०१५ में ट्विटर ने आंतकवाद से सम्बद्ध ३६०००० अकाउंट बंद किये थे तो ऐसा बलात्कार की धमकियों को लेकर क्यों नहीं किया जा सकता?
श्रीपदा ने स्पष्ट किया है कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अथवा असहमति के खिलाफ नहीं हैं जो व्यक्तिपरक और निजी होती हैं, बलात्कार की धमकियाँ निष्पक्ष रूप से ट्रैक की जा सकती हैं और ऐसी धमकियों का "अभिव्यक्ति के अधिकार" के रूप में बचाव नहीं किया जा सकता।      
श्रीपदा के अनुसार कुछ लोगों को लगता है बलात्कार की धमकियाँ गंभीर मामला नहीं लगतीं लेकिन बलात्कार हिंसा का एक भयावह प्रकार है और औरतों को दबाने और चुप कराने के लिए बलात्कार की धमकियों का इस्तेमाल किया जाता है। 
अगर ट्विटर बड़े पैमाने पर ऐसे अकाउंट बंद करता है जिन पर इस तरह की धमकियाँ दी जाती हैं तो इससे एक कड़ा सन्देश जाएगा कि इस मंच का इस्तेमाल ऐसे हमलों के लिए नहीं होगा। 



Comments

Popular posts from this blog

प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा

-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं।  साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम...

नरक में मोहलत (कहानी)

  -प्रणव प्रियदर्शी घर से निकलते समय ही अनिता ने कहा था, ‘बात अगर सिर्फ हम दोनों की होती तो चिंता नहीं थी। एक शाम खाकर भी काम चल जाता। लेकिन अब तो यह भी है। इसके लिए तो सोचना ही पड़ेगा।’ उसका इशारा उस बच्ची की ओर था जिसे अभी आठ महीने भी पूरे नहीं हुए हैं। वह घुटनों के बल चलते, मुस्कुराते, न समझ में आने लायक कुछ शब्द बोलते उसी की ओर बढ़ी चली आ रही थी। अनिता के स्वर में झलकती चिंता को एक तरफ करके अशोक ने बच्ची को उठा लिया और उसका मुंह चूमते हुए पत्नी अनिता से कहा, ‘बात तुम्हारी सही है। अब इसकी खुशी से ज्यादा बड़ा तो नहीं हो सकता न अपना ईगो। फिक्कर नॉट। इस्तीफा वगैरह कुछ नहीं होगा। जो भी रास्ता निकलेगा, उसे मंजूर कर लूंगा, ऐसा भी क्या है।’ बच्ची को गोद से उतार, पत्नी के गाल थपथपाता हुआ वह दरवाजे से निकल पड़ा ऑफिस के लिए। इरादा बिल्कुल वही था जैसा उसने अनिता से कहा था। लेकिन अपने मिजाज का क्या करे। एक बार जब दिमाग भन्ना जाता है तो कुछ आगा-पीछा सोचने के काबिल कहां रहने देता है उसे।  मामला दरअसल वेतन वृद्धि का था। अखबार का मुंबई संस्करण शुरू करते हुए सीएमडी साहब ने, जो इस ग्रुप के म...

चुनावपूर्व पुल दुर्घटनाएं कैसे कवर करें पत्रकार? डूज़ एंड डोंट्स

डिस्क्लेमर: यह लेख पाठ्यपुस्तकों में शामिल कराने के पवित्र उद्देश्य के साथ लिखा गया है। विषय चूंकि मीडिया से संबंधित है इसलिए अपेक्षा है कि इसे सरकारी, अर्ध सरकारी व निजी मीडिया संस्थानों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सकता है। कोई और समय होता तो यह लेख लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती लेकिन समय ऐसा है कि मीडिया जगत से ‘देशद्रोहियों‘ को जेलों में ठूंसकर लाइन पर लाने का काम उतनी तेजी  से नहीं हो पा रहा है, जितनी तेजी से होना चाहिए था। खासकर सोशल मीडिया में तो इनका ही बोलबाला है सो कोई भी त्रासद दुर्घटना होने पर उसका कवरेज कैसे किया जा चाहिए, कैसे नहीं किया जाना चाहिए यानी ‘डूज़‘ क्या हैं, ‘डोंट्स‘ क्या हैं, यहां  बताया जा रहा है। आशा है कि मीडिया के छात्रों के लिए यह लेख उपयोगी साबित होगा।  डूज़  -पॉजिटिव बनें। संवेदनशील बनें।  -यह जरूर बताएं कि पुल कितने सौ वर्ष पुराना था? और पुल पर क्षमता से बहुत ज्यादा लोग थे।  -लोगों की लापरवाही या चूक, जैसे उन्होंने प्रशासन के निर्देशों/चेतावनियों का पालन नहीं किया और वह खुद ही दुर्घटना के लिए जिम्मेदार थे, को हाइलाईट कर...