रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे पर भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय
में दाखिल अपने हलफनामे में कह दिया है कि वह इन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए
खतरा मानती है और इसलिए इन्हे डिपोर्ट करना चाहती है। इतना ही नहीं सरकार ने
हलफनामे में ढंके छिपे ढंग से अदालत से इस मामले में हस्तक्षेप न करने को कहा है
और कहा है कि इसे एग्जीक्यूटिव पर ही छोड़ देना चाहिए। अदालत में अगली सुनवाई ३
अक्टूबर को होने वाली है।
सरकार का रुख कई सवाल खड़े करता है। सबसे पहला यह कि आप किसीको भी
जानते हुए मौत के मुंह में कैसे धकेल सकते हैं। इस समय बर्मा से बड़े पैमाने पर
रोहिंग्या का पलायन हो रहा है और पलायन का कारण उनका वहां के दमनकारी सैन्य शासन
से अपनी जान बचाना है। करीब तीन लाख रोहिंग्या बांग्लादेश में चले गए हैं। इसीसे
अंदाजा लगाया जा सकता है की वहां स्थिति कितनी भयावह होगी। अंतर्राष्ट्रीय क़ानून
के अनुसार किसी शरणार्थी को ऐसी परिस्थितियों में उसके देश नहीं भेज सकते जहाँ से
वह हिंसा से बचने के लिए भागा हो या जहाँ उनकी जान को खतरा हो। मानवीयता का तकाजा भी
यही कहता है। कहने का मतलब यह है कि अगर बर्मा इन रोहिंग्या शरणार्थियों को सहर्ष
स्वीकार करता या यह लोग वहां रहने की स्थिति में होते तो कोई मुद्दा नहीं था।
दूसरा सवाल है कि शरणार्थियों के मामले में स्वतंत्र भारत ने हमेशा
विशाल हृदयता का परिचय दिया है तो इस बार यह संकुचित रवैया क्यों? विभाजन के समय
पाकिस्तान का हिस्सा बन गए क्षेत्रों से आये लाखों शरणार्थियों जिनमें सिन्धी, सिख
और हिन्दू शामिल थे, की बात छोड़ भी दी जाए तो भारत में शरणार्थी आते रहे हैं और
उन्हें शरण दी जाती रही है। साठ के दशक में चीन के दमन का शिकार तिब्बती बौद्ध (करीब
डेढ़ लाख), सत्तर के दशक में बंगाली (मुस्लिम और हिन्दू जो बांग्लादेश मुक्ति
संग्राम के समय लाखों की संख्या में आये और पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय और त्रिपुरा
जैसे राज्यों में बसे), ९० के दशक में श्रीलंकाई तमिल (श्रीलंका में
उग्रवाद के समय करीब एक लाख तमिल आये जो दक्षिणी राज्यों में बसे) और सोवियत-अफगान
युद्ध के समय तथा बाद में तालिबानी शासन के समय भी भारत आये हजारों अफगानी (जिनमें
हिन्दू और सिख शामिल हैं) इसका उदाहरण हैं।
रोहिंग्या शरणार्थियों के मामले में दिक्कत यह है कि भारत सरकार
इन्हें शरणार्थी नहीं मानती। हालांकि सयुंक्त राष्ट्र के शरणार्थियों के लिए
उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर), दिल्ली १४००० रोहिंग्या को वैध पंजीकरण प्रमाणपत्र दे
चुकी है। सरकार इन्हें गैरकानूनी विदेशी नागरिक कह रही है। गैरकानूनी विदेशी
नागरिकों की परिभाषा में दो तरह के विदेशी नागरिक आते हैं एक वह जो बिना वैध
दस्तावेजों (पासपोर्ट, वीजा) के देश में आते हों और दूसरे जो वैध दस्तावेजों के
साथ आये हों पर समय सीमा ख़त्म होने के बाद भी रह रहे हों। इस नज़रिए से हर शरणार्थी
या शरणार्थी समूह पहले गैर कानूनी विदेशी नागरिक ही होता है। वह शरण मांगता है या
देश जब उसे शरण देता है तो वह शरणार्थी बनता है। सरकार के अनुसार भारत में
रोहिंग्या २०१२-१३ से आने शुरू हुए और इस समय उनकी संख्या करीब ४०,००० है तथा यह
मुख्य रूप से जम्मू, दिल्ली, मेवात और हैदराबाद में रह रहे हैं। बर्मा के हालात
देखते हुए भारत को इन्हें शरणार्थी का दर्जा देना चाहिए। और नहीं तो कम से कम इस
समय इन्हें वापस वहां भेजने की बात नहीं करनी चाहिए।
सवाल यह भी है क्या रोहिंग्या शरणार्थियों के मामले में उनका मुस्लिम
होना उनके खिलाफ जा रहा है? सोशल मीडिया में इस तरह का काफी प्रचार चल रहा है और
रोहिंग्या को 'आंतकवादी' करार देते हुए उनका विरोध हो रहा है। लेकिन सोशल मीडिया
के कुप्रचार की बात अलग है और एक सरकार के रुख की बात अलग। सरकार ने राष्ट्रीय
सुरक्षा की बात कहकर जो रुख अपनाया हुआ है उसका कोई ठोस धरातल नहीं दिख रहा।
रोहिंग्या शरणार्थियों की अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में आ रही ख़बरें और तस्वीरें अलग
ही कहानी बयान कर रही हैं। सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश के लिए ४०,००० लोग
जिनमें अधिकाँश बूढ़े, महिलायें और बच्चे हैं, क्या खतरा बन सकते हैं? यहाँ एक और
तथ्य उल्लेखनीय है केंद्र सरकार ने २०१६ में ही एक विधेयक लाया था नागरिकता संशोधन
विधेयक जिससे सरकार मुस्लिम बहुल देशों पाकिस्तान, अफगान और बांग्लादेश के गैर
मुस्लिमों (हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई) को नागरिकता देना चाहती है।
असम में इस विधेयक का विरोध करने वाले एक कार्यकर्ता अखिल गोगोई को हाल में
राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। सवाल यह है कि भारत बाकी सभी धर्मों
के लोगों को नागरिकता देने के लिए तैयार है तो मुस्लिम ही क्यों नहीं? क्या यह मान
लिया जाए कि हम भी अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की तरह इस्लामिक फोबिया के
शिकार है? यदि ऐसा है तो यह देश की छवि के लिए अच्छा नहीं है।
और अंत में एक बात और, करीब तीन करोड़ भारतीय इस समय भी विदेशों में रह
रहे हैं और लाखों उन देशों (अमेरिका हो या यूरोप, अफ्रीका हो या एशियाई देश) में
आज भी गैर कानूनी विदेशी नागरिक ही हैं। ट्रम्प या कोई यूरोपीय नेता जब इन प्रवासी
भारतीयों को अपने यहाँ से डिपोर्ट करने की बात करे तो हमें कैसा लगेगा? जबकि
विदेशों में बसे अधिकांश भारतीय अपनी मर्जी से, बेहतर शिक्षा, बेहतर रोज़गार पाने
के लिए विदेश गए हुए हैं। उनके भारत लौटने पर कोई मनाही भी नहीं है, बल्कि कोई
लौटना चाहे या मजबूरी में उसे लौटना पड़े तो देश उनका बाहें फैलाकर स्वागत करने को
तैयार है। इसलिए यहाँ थोडा सोचने की ज़रुरत है। सीना ही नहीं, दिल भी बड़ा रखिये,
साहब!
-महेश राजपूत
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