संपादक का फरमान था, एक पकौड़े बेचने वाले का इंटरव्यू करना था। सो मैं
सड़क के किनारे एक ठेले पर पहुंचा। ठेले पर बोर्ड लगा था, "राम भरोसे
रेस्तरां"। अच्छी-खासी भीड़ थी इसलिए ठेले के मालिक को बात करने के लिए मनाने
में थोड़ी मशक्कत करनी पड़ी। पेश है साक्षात्कार के कुछ महत्वूर्ण अंश:
"आप कब से पकौड़े बेचते हैं?"
"जी, 16 मई 2014 से।"
"उससे पहले क्या करते थे?"
"बेरोजगार ही था।"
"फिर अचानक पकौड़े तलने का खयाल कैसे आया?"
"15 मई की रात एक महापुरुष सपने में आये और उन्होंने कहा 'बालक,
तेरे दुःख भरे दिन बीत गये और अच्छे दिन आ गए है। कल से तू नौकरी के लिए दर-दर
भटकना बंद कर दे, तुझे नौकरी मांगनी नहीं पगले नौकरी देनी है! तू कोई अपना काम
शुरू कर!"
"फिर...?"
"फिर मैंने असमंजस में पूछा कि सर मैं क्या करूं? उन्होंने कहा
चाय-पकौड़ी का ठेला लगा ले, दिन में 200 रुपये कहीं नहीं जायेंगे। बस फिर क्या था,
यह दिव्य ज्ञान मिलने के बाद मैंने अगले दिन से ही यह 'राम भरोसे रेस्तरां' का
बोर्ड लगाकर यह ठेला शुरू कर दिया।"
"वह महापुरुष कौन थे, आपने पहचाना?"
"नहीं, सपना 3डी में था और मेरे पास 3डी वाला चश्मा भी नहीं था,
फोकस क्लियर नहीं था। मुझे बस उनका हर वाक्य में 'मितरो'
'मितरो' सुनाई दे रहा था."
"क्या सपने में आपके साथ और लोग भी थे?"
"नहीं, मैं अकेला ही था."
"फिर वह मित्रों क्यों बोल रहे थे, मित्र क्यों नहीं ?"
"यह मुझे क्या पता...उनकी आदत होगी..."
"खैर, तो आपने यह व्यवसाय शुरू किया, एक दिन में कितना कमा लेते
हैं?"
"जी, यह जो मेरे ठेले के पीछे दुकान देख रहे हैं उन्हें किराया
और बिजली का बिल देने, मुन्सिपलिटी, पुलिस वालों को हफ्ता देने, और काम करने वाले
लड़कों को पगार देने के बाद 200 रुपये तो बच ही जाते हैं।"
"किराया क्यों देते हैं भला? आप तो सड़क पर ठेला लगाये हुए हैं।
क्या यह सड़क दुकानदार की है?
"भाई हम उनकी दुकान के सामने खड़े हैं, उनकी दुकान का व्यू अड़ा
रहे हैं, किराया देना तो बनता ही है। फिर वह हमें बिजली भी तो देते हैं।"
"वह तो ठीक है पर मुन्सिपलिटी, पुलिस वालों को हफ्ता देने का
क्या मतलब? और हर हफ्ते कितना देते हैं?
"आप भी न बड़े भोले हैं! हफ्ता कहा जाता है उसका मतलब एक हफ्ते
यानी सप्ताह यानी वीक से नहीं होता, रोज़ देना पड़ता है।"
"यानी भ्रष्टाचार...!"
"भ्रष्टाचार नहीं जी, शिष्टाचार कहिये। सरकारी लोगों और
पुलिसवालों के भी तो पेट होता है। वह भी तो हमारे अपने ही हैं।"
"और हमारे पीएम का जो कहना है 'न खाऊँगा, न खाने दूंगा', उसका
क्या?"
"क्या? हमारे पीएम ने ऐसा पकौड़े खाने के लिए कहा है? अगर ऐसा है
तो हम जैसे लोग कहाँ जायेंगे?"
"अरे नहीं, पीएम ने यह पकौड़ों के लिए नहीं, रिश्वत यानी
भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में कहा था!"
"ओह, पर मैंने आपको बताया न हम रिश्वत नहीं देते, अपने सरकारी भाइयों
के साथ मिल-बांटकर खाते हैं, अब यह कहाँ से भ्रष्टाचार हो गया?"
"आप ठीक कह रहे हैं, खैर तो आप खुश हैं?"
"बहुत खुश हैं जी, सुबह सात बजे से काम शुरू करते हैं और रात में
नौ बजे ठेला बंद कर घर चले जाते हैं। बचे हुए पकौड़ों की सब्जी बनाकर खाते हैं और
बढ़िया नींद करते हैं।"
"आपको अफ़सोस नहीं होता कि सरकार आपके लिए कुछ नहीं कर रही?"
"कैसी बातें करते हैं, हमें यहाँ सरकार ने ही तो सड़क पर ठेला
लगाने की सुविधा दी हुई है..."
"पर उसके लिए आपको किराया और हफ्ता भी तो देना पड़ता है..."
"फिर हफ्ता? आप प्रेस वाले भी न बहुत बदमाश होते हैं। सामने वाले
के मुंह में माइक घुसेड़ने भर से आपको चैन नहीं मिलता, उसके मुंह से शब्द भी आप
अपने मन मुताबिक निकालना चाहते हैं।"
"माफ़ कीजिये, मेरा वह मतलब नहीं था।"
"हम सब समझते हैं।"
"खैर तो आप खुश हैं?"
"फिर वही सवाल..."
"कोई नहीं, तो आप खुश हैं?"
"हम बहुत खुश हैं। अब क्या लिखकर दें?"
"नहीं उसकी ज़रुरत नहीं। कहने का मतलब आपकी ज़िन्दगी बदल गयी
है?"
"यह कहिये न आपको इंटरव्यू का शीर्षक चाहिए, तो नोट कीजिये, हाँ
पकौड़े बेचने के फैसले ने मेरी ज़िन्दगी बदल डाली है! और कुछ...?"
"मैंने आपका बहुत समय ले लिया। क्या आप देश को कोई सन्देश देना
चाहेंगे?"
"क्या यह तुम्हारा यह आखरी सवाल है?"
"जी"
"तो ठीक है। हम गुस्सा नहीं करते। पर तुम्हारे इस अहमकाना सवाल
का जवाब यही है कि हम कोई नेता थोड़े न हैं जो देश के नाम कोई सन्देश दें? न हमारे
पास इतना फालतू का समय है न फेंकने की कला।"
"तो ठीक है, हमसे बात करने का शुक्रिया, हमें इजाजत दीजिये।"
"पकौड़े नहीं खाकर जायेंगे?"
"जी?"
"घबराइये मत, आपसे पैसे नहीं लेंगे। हमारे नफे-नुकसान के गणित
में कुछ मुफ्तखोरों को चाय-पकौड़े खिलाना भी शामिल है।"
मैं 'न' नहीं कर सका और दो ब्रेड पकौड़े के साथ मुफ्त की चाय गटकने के
बाद वहां से निकला। यह सोचते हुए कि सताईस रुपये बच गए और ऑफिस से बिल लगाकर
पच्चास रुपये और झटक लूँगा कि पकौड़े वाला बिना कुछ खाए-पिए इंटरव्यू नहीं दे रहा
था।
कोई नहीं जी! - 9/महेश राजपूत
बहुत खूब, क्या खा खा khincha है ।
ReplyDeleteशुक्रिया, शिवेंद्रजी!
Deleteपकौड़े को लेकर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, मेरी नज़र में भारत सरकार को चाहिए कि उत्कृष्ट पकौड़े के मामले में एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता का आयोजन करे और उस प्रतियोगिता में देश के सभी संसदों को अपना अपना पकौड़ा तलने का अवसर दिया जाय, जिससे देश की जनता को पता तो चले कि किस संसद को कितना किफायती और स्वादिष्ट पकौड़ा तलना आता है और जो उत्कृष्ट हो उसे राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कृत किया जाए...
ReplyDeleteहा! हा! हा!
Deleteहा! हा! हा!
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