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हंसो!


हंसने की बात पर
हंसा ही जाता है
लेकिन 
न हंसने की बात पर
हंसना भी कोई गुनाह तो नहीं
हंसी किसी की भी हो
मौके-बेमौके हो
किसीको क्यों चुभनी चाहिए
और अगर चुभती है तो
इसका मतलब यह तो नहीं
कि हंसना बंद कर दिया जाए
प्रतिवाद करने के
ले-देकर
दो ही तो तरीके हैं हमारे पास
चीखना और हंसना
इतना जोर से हंसना कि
सामने वाले के कान के परदे फट जाएँ
तो
हंसो
जोर-जोर से हंसो
इतना जोर से हंसो कि
तानाशाह तुम्हारी हंसी को
नज़रंदाज़ न कर पाए
उठे तो उसे तुम्हारी हंसी सुनाई दे
बैठे तो उसे तुम्हारी हंसी सुनाई दे
ख्वाब में भी तुम्हारी हंसी से पीछा न छुड़ा पाए
तभी उसे अहसास होगा कि
डरना उसे तुमसे है
तुम्हें उससे नहीं!

-महेश राजपूत 

(सूचनार्थ: यह मेरी पहली कविता है और कल यानी शनिवार, १० फरवरी २०१८ को जिस समय मैंने लिखी और फेसबुक पर मित्रों से साझा की तो मुझे मालूम नहीं था कि बीसवीं सदी के महान कवि, नाटककार और नाट्य निर्देशक ब्रेतोल्त ब्रेख्त का जन्म दिन था ब्रेख्त का एक नाटक 'लाइफ ऑफ़ गैलीलियो' का मंचन करने की एक समय हम दोस्तों ने असफल कोशिश की थी यानी मंचन कर नहीं पाए थे ।मेरी यह रचना  ब्रेख्त को समर्पित है।) 

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