कुछ दिन पहले की बात है, इंडियन बैंक की किंग्स सर्कल शाखा में पैसे निकालने गया था वहां धीमी
आवाज़ में एफएम चल रहा था जिस पर गाना बज रहा था, "हमें और जीने की चाहत न
होती, अगर तुम न होते...2" गीत, जो फिल्म "अगर तुम न होते" का
शीर्षक गीत था, ने इस फिल्म और श्रीदेवी की फिल्म "लम्हे" के बारे में सोचने
पर मजबूर कर दिया और इस पोस्ट ने जन्म लिया। दोनों फिल्मों में एक पहलू कॉमन था, कहानी
तो स्त्री की थी पर उसे पुरुष के नज़रिए से पेश किया गया था।
श्रीदेवी के शनिवार रात को आकस्मिक निधन के कारण पहले
"लम्हे" की ही बात करूंगा। यश चोपड़ा की 'समय से आगे' की फिल्म मानी जाने
वाली "लम्हे" अनिल कपूर के किरदार के नज़रिए से बनायी गयी है। "लम्हे"
की कहानी कुछ ऐसी है कि अनिल कपूर अपने से उम्र में बड़ी श्रीदेवी से एकतरफा प्यार
करता है। श्रीदेवी की शादी किसी और से हो जाती है और एक बच्ची को जन्म देकर वह और
उसका पति मर जाते हैं। बरसों बाद अनिल कपूर श्रीदेवी की बेटी जो उनकी हमशक्ल है,
से मिलता है। श्रीदेवी (बेटी) अनिल कपूर से प्यार करने लगती है लेकिन अनिल कपूर इस
बात को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता कि उस लड़की के प्यार को वह स्वीकारे जो उस
औरत की बेटी है जिसे कभी उसने चाहा था। अब सोचिये यह अनिल कपूर के किरदार की
कनफ्लिक्ट कितनी बेजान है। श्रीदेवी (माँ) से उसका प्यार एकतरफ़ा था। इस नाते
श्रीदेवी (बेटी) उसकी कोई नहीं लगती थी। यानी उस किरदार के असहज होने का कोई ठोस
आधार नहीं था। यदि वह दोनों के बीच उम्र के अंतर को लेकर असहज था तो यह असहजता भी बेदम
ही थी। प्यार में उम्र, धर्म, जाति, अमीरी-गरीबी का कोई बंधन नहीं होता।
अब इसी कहानी को श्रीदेवी के नज़रिए से देखें, एक लड़की है जिसे एक बड़ी
उम्र के व्यक्ति से प्यार हो जाता है, लेकिन कहानी में ट्विस्ट यह है कि वह पुरुष
कभी उसकी माँ का प्रेमी रह चुका है। माँ भी जिंदा है तो कनफ्लिक्ट और दमदार हो
सकता है, पर अगर वह मर चुकी है तब भी उस किरदार का द्वन्द कथानक को टेंस या कहें
नाटकीय बना सकता है। ऐसे में वह क्या फैसला लेती है, फिल्म को सही मायने में
रैडिकल बना सकता था।
अब "अगर तुम न होते" पर आते हैं। रेखा, राजेश खन्ना और राज
बब्बर की प्रमुख भूमिकाएं थीं। सुपर स्टारडम के अस्त होने के कुछ सालों बाद जब
राजेश खन्ना ने कम बेक किया था (कुदरत, अवतार, सौतन आदि), यह उस दौर की फिल्म थी
और हालांकि फिल्म का म्युज़िक हिट हुआ था फिल्म ख़ास नहीं चली थी। मुझे फिल्म लेकिन
उक्त गीत के कारण ही अच्छी लगी थी। इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी (मेरी राय में) यही थी
कि इसे राजेश खन्ना को केंद्र में रख कर लिखा और बनाया गया था और राजेश खन्ना के
किरदार के पॉइंट ऑफ़ व्यू (नज़रिए) से बनाया
गया था। कहानी यूं थी कि राजेश खन्ना के किरदार की पत्नी की मौत हो चुकी है। उनके
जीवन में बच्चे की ज़िम्मेदारी सँभालने एक औरत आती है जो उनकी पत्नी की हमशक्ल है।
जाहिर है, राजेश खन्ना का किरदार खुद को रेखा की तरफ आकर्षित होने से नहीं बचा
पाता लेकिन रेखा शादीशुदा है और उनके पति (राज बब्बर) एक दुर्घटना में अपाहिज हो
चुके हैं जिस वजह से उन्हें यह नौकरी करनी पड़ती है। राज बब्बर शक्की किस्म का
इंसान है जो पत्नी को लेकर असुरक्षित महसूस करता है और अपनी हीन भावना के कारण उसे
प्रताड़ित करता है।
अब फिल्म की कहानी बुरी नहीं थी और मेरी राय में अगर इसे रेखा के
किरदार के नज़रिए से बनाया जाता तो यह फिल्म
दमदार हो सकती थी। तब कहानी कुछ यूं होती। रेखा अपने पति के साथ खुश है लेकिन
अचानक पति के एक दुर्घटना में अपाहिज होने के कारण उसे कहीं नौकरी करनी पड़ती है।।
उसके बॉस की गुज़र चुकी पत्नी से उसकी शक्ल
मिलती है जिस कारण वह उसकी तरफ आकर्षित होता है। अब रेखा का
कनफ्लिक्ट यह होता कि अगर उसका बॉस उस पर मैली नज़र रखता है तो वह उससे खुद को कैसे
बचाती है या फिर अगर वह अच्छा इंसान है और वह भी उसकी तरफ खुद को आकर्षित होने से
रोक नहीं पाती तो वह उस आकर्षण को कैसे संभालती है। साथ ही यदि वह बॉस के प्यार
में पड़ ही जाती है तो अपने हसद के मारे पति से कैसे निबटती है? राजेश खन्ना के
किरदार के नज़रिए से फिल्म बनाने के कारण फिल्म के कथानक में कोई कनफ्लिक्ट ही नहीं
थी या थी तो इतनी दमदार नहीं है। फिल्म चूंकि संभवत: राजेश खन्ना के प्रशंसकों और
भारत की फैमिली ऑडियंस को ध्यान में रखकर बनायी गयी थी इसलिए गुंजाइश होते हुए भी
उनका प्यार बड़ा 'सात्विक' किस्म का है।
हमारे सिनेमा के साथ यह दिक्कत वैसे भी रही है कि यहाँ फिल्म के
केंद्र में कथा नहीं होती स्टार होते हैं और स्टार यानी पुरुष। ऐसे में नारी को
केंद्र में रखकर बनने वाली फिल्मों की संख्या वैसे ही कम होती है। कहने का मतलब
ऐसा नहीं है कि नायिका प्रधान फ़िल्में बनती ही नहीं हैं, हर ज़माने में विद्या बालन
या कंगना रानावत जैसी अभिनेत्रियाँ रही हैं जिन्हें ध्यान में और केंद्र में रखकर
फ़िल्में लिखी और बनायी जाती रही हैं। पर ऐसा होना नियम नहीं अपवाद है। इसकी वजह
चाहे यही हो कि पुरुष प्रधान समाज में, पुरुष प्रधान फिल्म उद्योग में जब चाहे
निर्देशन हो या निर्माण, लेखन हो या अन्य तकनीकी पक्ष महिलाओं की संख्या चूंकि
नगण्य होगी तो जाहिर है उनका प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर होगा और फिल्मों में
नायिका सिर्फ शोपीस अर्थात सजावट की वस्तु होगी और श्रीदेवी जैसी सक्षम अभिनेत्री
को भी अपवाद छोड़ दें तो हर फिल्म में या तो उनकी अदाओं को भुनाया जाता है या फिर वेस्ट
ही किया जाता है।
-महेश राजपूत
श्रीदेवी बतौर अभिनेत्री गंभीर किरदार के लिए सदमा, नगीना और चुलबुली किरदार के लिए मिस्टर इंडिया, चांदनी और चालबाज के लिए हमेशा याद रहेगी।
ReplyDeleteजी!
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