यह ठीक है कि मध्यप्रदेश विधानसभा के मुख्य चुनाव से पहले उप-चुनावों
में इंडियन नेशनल कांग्रेस लगातार जीत हासिल कर रही है; पहले अटेर व
चित्रकूट और अब मुंगावली व कोलारस विधानसभा। लेकिन लगता है पूरे देश में लोकसभा और
विधानसभा चुनावों के दौरान पराजय का हथौड़ा झेलते-झेलते कांग्रेस का माथा फिर गया
है। वह लोकतंत्र की प्रस्थापना को ताक पर रखने के साथ-साथ इस बात को भी बिसरा चुकी
है कि भारतवर्ष में लोकतंत्र बहाली की लड़ाई कांग्रेस की अगुवाई में ही लड़ी गई थी
इसलिए इसकी मर्यादा और भावना बचाने में उसकी जिम्मेदारी कहीं ज्यादा है। लेकिन लोकतंत्र
की मूलभावना के उलट मध्य प्रदेश में 15 सालों से सत्ता का वनवास काट रही कांग्रेस
ने अब इच्छुक उम्मीदवारों से पैसा वसूलने का ऐलान कर दिया है। यह टिकट का खुल्लमखुल्ला सौदा नहीं तो और
क्या है?
मध्यप्रदेश कांग्रेस प्रभारी दीपक बावरिया ने फरमाया है- “राज्य में इस साल के
अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी का टिकट मांगने वालों से 50,000 रूपए पार्टी कोष में
जमा कराए जाएंगे जबकि महिलाओं, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को
50% की रियायत दी जाएगी, अर्थात् उनसे 25,000 रूपए वसूले जाएंगे। उम्मीदवारी
के दावेदार 5 से 15 मार्च के बीच अपना आवेदन प्रदेश कमेटी के सामने उक्त राशि वाले डिमांड
ड्राफ्टों के साथ पेश कर सकेंगे।”
गरीब तबके के कार्यकर्ताओं को इस रियायत को पार्टी की बड़ी कृपा और अपने ऊपर
अहसान समझना चाहिए! यह कोरी अफवाह नहीं है बल्कि इस प्रस्ताव को बाकायदा प्रदेश
चुनाव समिति की बैठक में पारित कर दिया गया है। मध्यप्रदेश
कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने इस फैसले का बचाव करते हुए कहा है कि इस योजना से जो
लोग टिकट के इच्छुक हैं उनका ब्यौरा मिल जाएगा और थोड़ा वित्तीय संकट भी दूर होगा।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि हमारे देश
में वामपंथी दलों को छोड़ अधिकांश राजनीतिक दलों में टिकट बांटने के पैमाने क्या होते
हैं। राज्य और राष्ट्रीय स्तर की कार्यकारिणियों में सदस्य और पदाधिकारी बनाए जाने
के मापदण्ड क्या होते हैं। टिकट मिलने के बाद जीत हासिल करने के दांव-पेंच किस
स्तर के होते हैं। जीतने के बाद मंत्री-वंत्री बनने का क्राइटीरिया क्या होता है। निगमों-मंडलों
की अध्यक्षता पाने की योग्यता कैसे तय होती है।
इस सबके बावजूद यह सौदेबाजी ऐलानिया नहीं
होती। अब तो यह भी जनता के सामने खुल चुका है कि सांसदों और विधायकों की हॉर्स
ट्रेडिंग दिनदहाड़े होती है। दूसरे दलों के विजयी विधायकों को अपने पाले में लेकर
सरकारें बना ली जाती हैं और इसे खरीद-फरोख्त नहीं बल्कि हृदय-परिवर्तन का नाम दे
दिया जाता है। फिर भी राजनीतिक दल ऐसी किसी कवायद में मुब्तिला होने से अगर साफ
इंकार करते हैं तो इसकी एकमात्र मजबूरी है लोकतंत्र की नजर बचाने का तकाजा।
प्रश्न यह उठता है कि क्या धन वसूल कर
टिकट देने और पार्टी का आर्थिक संकट दूर करने वाला एमपी कांग्रेस का कार्यक्रम
लोकतंत्र की मूल भावना के अनुरूप है?
ऐसा करके देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल अन्य दलों को क्या संदेश देना चाहता है?
अपने जन्मदिन पर जब बसपा सुप्रीमो मायावती नोटों की महाठगनी माला पहनती हैं तो
तमाम राजनीतिक दल इसे साक्षात् भ्रष्टाचार बताते हुए इसकी आलोचना करते नहीं थकते!
यह लोकतंत्र के चलते ही संभव है कि नेताओं की डिग्रियों का मजाक तो बनाया जा सकता
है लेकिन उन्हें चुनाव लड़ने से रोका नहीं जा सकता!
लोकतंत्र ही मात्र एक ऐसी कार्यप्रणाली है
जिसमें हर नागरिक कुछ अर्हताएं पूरी करने के बाद चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र होता
है। इन अर्हताओं में उसकी आर्थिक स्थिति शामिल नहीं होती। लेकिन प्रदेश कांग्रेस के
इस फैसले ने एक अघोषित आर्थिक अर्हता अनिवार्य कर दी है। संदेश यही जा रहा है कि
जिस कांग्रेस कार्यकर्ता के पास 50 हजार रुपए देने की औकात नहीं है,
वह कितना भी वरिष्ठ, प्रतिबद्ध और अनुशासित हो,
कांग्रेस का टिकट पाने का ख्वाब छोड़ दे! अगर उसे चुनाव लड़ना ही है तो वह अपनी
पार्टी के बूते नहीं, निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर
मैदान में उतरे!
मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने आवेदन-शुल्क
भले ही 50 हजार रुपए रखा हो लेकिन इससे टिकट मिलने की गारंटी नहीं मिल जाती। टिकट
तो उसी को मिलेगा जिसे पार्टी चाहेगी और एक विधानसभा क्षेत्र से पार्टी एक ही
प्रत्याशी उतारेगी। बताया जा रहा है कि यह रकम वापस नहीं मिलने वाली यानी
नॉन-रिफंडेबल है। क्या पार्टी ने सोचा है कि जिस कार्यकर्ता के बिना टिकट 50 हजार
रुपए चले जाएंगे वह पार्टी के लिए क्षेत्र में कैसा काम करेगा? क्या
इस आर्थिक और भावनात्मक ठगी से पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल नहीं टूटेगा?
गुटबाजी के दलदल में फंसी सूबे की कांग्रेस का यह कैसा आत्मघाती कदम है?
खैर,
कांग्रेस की कांग्रेस जाने लेकिन जरा कल्पना कीजिए कि अगर पंडित जवाहरलाल नेहरू और
लाल बहादुर शास्त्री के सामने तत्कालीन कांग्रेस यही क्राइटीरिया सामने रखती तो
उनकी प्रतिक्रिया क्या होती?
पार्टी कह रही है कि गरीब मगर ताकतवर उम्मीदवार को मुफ्त
में टिकट मिलेगा। लेकिन उम्मीदवार की मजबूती का मापदण्ड क्या होगा,
कैसे तय होगा और कौन तय करेगा?
कोई उम्मीदवार खुद को कभी कमजोर मानता है क्या?
और जो तथाकथित तगड़े उम्मीदवार टिकट पा जाते हैं उनकी जमानत जब्त क्यों हो जाती है?
दलबदल और दूसरी पार्टी के नेताओं के स्वागत का मानक क्या है?
सच्चे लोकतंत्र का निर्माण तभी हो सकता है
जब नागरिक राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय हों,
चुनाव-प्रक्रिया में भाग लें और उन्हें निष्पक्ष एवं समान अवसर वाला चुनावी माहौल
मिले। प्रदेश कांग्रेस का हालिया कदम हर नागरिक के चुनाव लड़ सकने के अधिकार का
निषेध करता है। टिकट किसे देना है किसे नहीं,
यह राजनीतिक दलों का अंदरूनी मामला हो सकता है। लेकिन ऐलानिया पैसे की बाधा
उत्पन्न कर अपने ही कार्यकर्ताओं को इस अधिकार से वंचित करके भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस न सिर्फ अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है बल्कि लोकतंत्र नामक वटवृक्ष
की जड़ों में मट्ठा भी डाल रही है।
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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