अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सर्वोच्च न्यायालय ने आखिर हदिया की
शादी रद्द करने के केरल उच्च न्यायलय के फैसले को खारिज किया और शेफी जहाँ से
हदिया के निकाह को बहाल किया जो निश्चित रूप से हदिया के लिए और पुरुष प्रधान समाज
में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही लाखों महिलाओं के लिए ही नहीं व्यक्ति की
स्वतंत्रता और अमनपसंद लोगों के लिए राहत की बात है। लेकिन, इस पूरे प्रकरण का अफसोसजनक पहलू यही है कि हदिया
को न्याय देरी से मिला है और अधूरा भी।
हदिया जो पहले अखिला कहलाती थीं, ने 2016 में इस्लाम
कबूल किया था। कुछ महीने बाद उन्होंने शेफी जहाँ से शादी की। उनके पिता अशोकन
अदालत में चले गए और आरोप लगाया कि उनकी बेटी का 'ब्रेनवाश' किया गया है और धर्म परिवर्तन से लेकर निकाह एक 'साज़िश' के तहत हुआ है। केरल
उच्च न्यायालय ने एक अजीबोगरीब फैसले में शादी को रद्द करते हुए कहा, "एक 24 वर्षीय लड़की कमज़ोर और बरगलाने लायक
होती है और उसे कई तरीकों से फुसलाया जा सकता है।" अदालत ने यह भी कहा ,"शादी जीवन का अति महत्वपूर्ण फैसला होने के
कारण अभिभावकों की सक्रिय संलिप्तता के लिया जा सकता है।"
अदालत ने इसीके साथ हदिया को उसके अभिभावकों को सौंप दिया और हदिया के
लिए यातनाओं का एक दौर शुरू हुआ जो यूं तो लगभग छह महीने चला पर उन छह महीनों
का एक-एक पल उन्होंने कैसे गुज़ारा, यह सिर्फ वही जान सकती हैं। सर्वोच्च न्यायालय का
फैसला आने के बाद अब कहा जा सकता है कि हदिया को कोई गुनाह किये बिना सज़ा मिली। इससे पूर्व उनके शौहर जब केरल उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय गए तो एक सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने 'लव जिहाद' के आरोप की जांच
राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) से करवाने का आदेश दे दिया। एनआईए आतंकवाद से जुड़े अपराधों की जांच करने वाली
एजेंसी है। पिछले साल नवम्बर में सर्वोच्च न्यायालय में हदिया का बयान हुआ। न्यायाधीशों ने उनसे बात की और हदिया ने दोहराया
कि धर्म परिवर्तन और निकाह का फैसला उनका अपना है। अदालत ने उन्हें अभिभावकों की
कस्टडी से निकालकर पढाई जारी रखने के लिए कॉलेज भेजने की व्यवस्था दी।
इस तरह हदिया को नवम्बर में आंशिक स्वतंत्रता मिली। आंशिक इसलिए कि
अभिभावकों की 'कैद' से तो वह छूट गयीं
लेकिन अब कॉलेज और हॉस्टल में 'कैद' हो गयीं। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि कॉलेज के
प्रबंधन ने शुरू में उन्हें शौहर से मिलने देने से मना कर दिया। अब कॉलेज प्रबंधन
उनका पालक था. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अदालत में हदिया ने जब कहा था कि अपना
गार्जियन वह पति को बनाना चाहेंगी तो अदालत ने कहा था कि एक पति गार्जियन नहीं हो
सकता।
अब जब आठ मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने हदिया का निकाह बहाल किया है
तो एक 'राइडर' फिर लगा दिया है। अदालत ने कहा है कि एनआईए हदिया और केरल में अन्य
जबरन धर्म परिवर्तन के मामलों के पीछे तथाकथित 'बड़ी
साज़िश' की जांच जारी रख सकती है। यह राइडर इसलिए है कि
अगस्त में सर्वोच्च न्यायालय ने एनआईए को हदिया के मामले में जांच का आदेश दिया था। एनआईए ने अदालत में सौंपी अपनी स्टेटस रिपोर्ट
में मुद्दे का जनरलाइजेशन करते हुए कहा कि हदिया और अन्य लड़कियों के धर्म परिवर्तन
के पीछे 'सुगठित मशीनरी' है।
सवाल यह है कि अदालत के यह कहने के बावजूद कि एनआईए जांच जारी रख सकती
है लेकिन हदिया अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र है, में
विरोधाभास नहीं है? क्या अदालत स्पष्ट रूप से एनआईए को हदिया के
मामले से दूर रहने का आदेश नहीं दे सकती थी (भले दूसरे तथाकथित जबरन धर्म परिवर्तन
के मामलों की जांच एनआईए करती रहती) ताकि हदिया
सचमुच स्वतंत्र रूप से जी सके? मई 2017 से नवम्बर
2017 तक हदिया जो अपने शौहर से दूर अभिभावकों की 'कैद' में रही, उसका क्या?
और इन सवालों से भी महत्वपूर्ण सवाल जो हदिया प्रकरण ने उठाये हैं वह
हैं कि हमारा पुरुष प्रधान समाज एक बालिग़ बेटी के जीवनसाथी चुनने या अपनी इच्छा से
स्वतंत्र जीवन जीने के अधिकार को छीनने के लिए किस हद तक जा सकता है? हर अंतरजातीय/अंतर्धर्मीय विवाह की परिणिति क्या
डर-डर के और घुट-घुट के जीने या फिर झूठी इज्ज़त के नाम पर उन मासूमों की हत्या में
होनी है? 'लव जिहाद' का फर्जी मुद्दा
उठाकर साम्प्रदायिक सद्भाव के पहले से बिगड़े माहौल में नफरत का ज़हर घोलने वालों को
हम क्यों खारिज करने के बजाय पुरस्कृत कर रहे हैं और सत्ता सौंप रहे हैं?
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