यह संवाद है सुनीता का, जो फिल्म 'थप्पड़' में अमृता के घर में सहायिका है। वह अमृता को बता रही होती है कि जब भी उसे उसका पति मारता है, वह घर से निकलकर बाहर से कुंडी लगा देती है। लेकिन उसकी यह आशंका बनी रहती है कि किसी दिन उसके पति अंदर से कुंडी लगा दी तो? तो वह कहां जायेगी??
'थप्पड़' एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर बनी एक महत्वपूर्ण फिल्म है। लेकिन इसके केंद्र में एक मध्य वर्ग की बेहद खूबसूरत, पढ़ी-लिखी लड़की का होना इसे कॉमर्शियल टच भी देता है और विषय की गंभीरता भी थोड़ी कम करता है। संक्षेप में फिल्म की कहानी यूं है कि अमृता के एक सफल और प्रसन्न गृहिणी होने का भ्रम टूटता है, जब एक पार्टी में उसका पति सबके सामने उसे थप्पड़ मार देता है। बाद में वह थप्पड़ को कार्यस्थल की कुंठा का नतीजा बताकर वह बाद में जस्टीफाई करने की कोशिश करता है। पर अमृता जिसने कॉलेज के समय ज़िंदगी से सिर्फ दो ही बातों, सम्मान और खुशी, की अपेक्षा की थी, वह इसे स्वीकार नहीं कर पाती और कुछ सोच-विचार के बाद घर छोड़कर मायके चली जाती है। बाद में जब उसका पति कानूनी रास्ते से उसे जबरन घर लाना चाहता है तो वह तलाक की मांग करती है। फिल्म का अंत पति के अपनी गलती मानने, माफी मांगने और दोनों के बीच आपसी सहमति से तलाक होने पर होता है। फिल्म में अमृता की कहानी के साथ वकील नेत्रा, भाई-भाभी और सुनीता के ट्रैक भी चलते हैं। अमृता की कन्फिल्कट (आंतरिक और बाहरी) में उसका मध्यम वर्गीय परिवेश, पढ़ी-लिखी होने, मायके और उसमें भी खासकर पिता के पूरी तरह साथ देने की भूमिका है। एक दृश्य में वह पिता से पूछती है कि क्या वह जो कर रही है, सही कर रही है? तो उसके पिता कहते हैं कि यदि उसके अंदर से आवाज आ रही है, तो वह सही कर रही है। यानी पिता का किरदार सुलझा हुआ है। यहां ढेर सारे सवाल उठते हैं। अमृता का संघर्ष (आंतरिक और बाहरी दोनों) तब कैसा या कितना कठिन होता जब उसका परिवार उसके साथ नहीं होता, जब घर छोड़ने के बाद उसे यह आशंका होती कि मायके के दरवाजे उसके लिये नहीं खुलेंगे, जब उसमें यह आत्मविश्वास नहीं होता कि वह अपनी और अपने होने वाले बच्चे की परवरिश के लिये सम्मानजनक रोज़गार का ज़रिया आसानी से नहीं ढूंढ पायेगी। रोजगार की जरूरत तो उसे फिल्म के अंत तक महसूस नहीं होती हालांकि एक दृश्य में यह भी बताया गया है कि विक्रम ने उसका बैंक अकाऊंट और क्रेडिट कार्ड ब्लॉक करा दिया है। इन सवालों की जड़ में ही हमारे पितृसत्तात्मक समाज की मूल समस्या का हल छिपा हुआ है। लाखों महिलाएं कारण चाहे एब्यूसिव रिलेशनशिप का हो या दहेज का, पुत्र या संतान पैदा न पैदा कर पाने का या कुछ और हिंसा झेलनेे, घुट-घुट कर जीने या फिर आत्महत्या करने को मजबूर होती हैं। अंत में सुनीता के किरदार पर लौटते हैं। सुनीता भी अपने पति की मार के खिलाफ एक तरह से बगावत करती ही है और उस पर पलटकर हाथ उठाती है पर सवाल बना रहता है कि क्या उसका पति सुधर जायेगा? नहीं, तो क्या उसके पास कभी यह विकल्प होगा कि वह घर से निकल जाये बिना इस बात की परवाह किये कि उसका पति अंदर से कुंडी लगा कर हमेशा के लिये उसके लिये घर के दरवाजे बंद कर सकता है?
पुनश्च: देखते समय मुझेे हेनरिक इब्सेन के नाटक ‘ए डॉल्स हाऊस‘ की याद भी आई। वह इस सेंस में कि विक्रम अमृता को एक गुड़िया की तरह ट्रीट करता है। पुरुष पत्नी से, खूबसूरत पत्नी से, बहुत प्यार करता है और उस पर सबकुछ लुटाने को तैयार रहता है लेकिन तब तक जब तक वह गुड़िया बनी रहती है औैर यथास्थिति को चुनौती देने की कोशिश नहीं करती या अपने स्वतंत्र अस्तित्व की बात नहीं करती। अमृता की विक्रम से शादी ‘अरेंज्ड‘ है। विक्रम उच्च मध्य वर्ग से है जबकि अमृता निम्न मध्य वर्ग से। रिश्ता अमृता के परिवार की तरफ से जाता है। अमृता को खाना बनाना तक नहीं आता है लेकिन विक्रम उसे ‘स्वीकार‘ करता है क्योंकि शायद वह बहुत खूबसूरत है, किसी गुड़िया की तरह। नोरा का किरदार अमृता के किरदार के मुकाबले बहुत ज्यादा सशक्त है। पर वह किस्सा फिर कभी।
(तस्वीर : गीतिका विद्या की है जो ‘थप्पड़‘ में सुनीता बनी हैं।) (तस्वीर ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ से सभार) |
-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं। साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम
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