हर बार लंबी-चौड़ी भूमिका क्या बांधना? आपके खादिम को एक लाभार्थी मीडिया हाऊस की ‘स्टाईल शीट‘ मिल गई। उसमें बाकी सब तो ठीक था पर ‘दंगे कवर कैसे न करें?‘ सेक्शन काफी रोचक लगा जो यहां ब्लॉग के पाठकों से शेयर कर रहा हूं।
‘दंगे कवर कैसे न करें?‘
दंगे एक संवेदनशील मुद्दा हैं और हमारे प्रतिष्ठित मीडिया हाऊस व हमारे पत्रकारों की जिम्मेदारी भरी भूमिका को देखते हुए यह जानना जरूरी है कि दंगे कैसे कवर न किये जाएं क्योंकि जब हमारे संस्थान के सदस्य यह जान जाएंगे तो उन्हें इसका भी पता लग जायेगा कि दंगे कैसे कवर किये जाते हैं। इसलिए नीचे दिये टिप्स ध्यान से पढ़ें:
धर्म न पूछो दंगाइयों का
हिंसा करने वाले समुदाय का धर्म (यदि वह बहुसंख्यक समुदाय से हो तो) कभी न दें। इसके दो कारण हैं। एक उनकी भावनाएं आहत हो सकती हैं और संबंधित संवाददाता, संपादक संस्थान पर बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओें को आहत करने के आरोप में और दो समुदायों के बीच वैमन्सय बढ़ाने के आरोप में मुकदमेबाजी झेलनी पड़ सकती है और दंगाइयों को ज्यादा ही गुस्सा आ गया तो कार्यालय में तोड़फोड़ से लेकर स्टाफ के किसी सदस्य की खोपड़ी भी फूट सकती है और मुकदमेबाजी व सरकार के कोप का भाजन बनने से मालिक डर गया (जो स्वाभाविक है) तो संपादक की नौकरी भी जाने का खतरा हो सकता है, जो जोखिम हरगिज-हरगिज नहीं लिया जा सकता।
पुलिस से पंगा न लो
हां, हां पता है। मासकॉम की डिग्री लेकर आये नये, युवा और उत्साही पत्रकारों को लग सकता है कि सच अगर यही है कि पुलिस ने ‘मूक दर्शक‘ की भूमिका निभाई या खुद ही दंगाइयों के साथ शामिल हो गई और उत्पात मचाया या दंगों के दौरान भी और दंगों के बाद भी समुदाय विशेष को ही तंग कर रही है तो इसे क्यों न लिखा जाए आखिर हमारे संस्थान की टैगलाइन है ‘भटको चाहे जिधर, सच्ची खबर मिलेगी इधर‘। लेकिन कड़वा सच यही है कि पुलिस से पंगा लेने के कई नुकसान हैं क्योंकि पुलिस का डंडा राजनीतिक आकाओं के इशारे के बिना नहीं हिलता इसलिए पुलिस से नाराजगी मोल लेने का मतलब सरकार से नाराजगी मोल लेना होता है। पुलिस पर वार संबद्ध प्रदेश के सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञ खुद पर वार समझते हैं और सरकार के किये सरकारी विज्ञापन बंद होने से लेकर तमाम तरह की परेशानियां संस्थान के लिए खड़ी हो सकती हैं। आखिर तालाब में रहकर मगरमच्छ से बैर कौन सयाना संपादक ले सकता है? और कौन मालिक ऐसे बेवकूफ संपादक को नौकरी पर बनाये रखने का रिस्क ले सकता है। फिर पुलिसवालों के साथ एक और समस्या है, अगर उन्होंने आलोचना को ‘पर्सनल‘ ले लिया तो हैंड सैनिटाइजर से हाथ धोकर हमारे पीछे पड़ सकते हैं।
ह्यूमन एंगल स्टोरीज से दूर रहो
यूं तो ह्यूमन एंगल स्टोरीज यह जताने का सबसे बड़ा जरिया हैं कि अखबार में काम करने वाले पत्रकार इंसान हैं और उनमें भी किसीका दर्द समझने की भावना होती है लेकिन दंगों के समय इसके कई जोखिम हैं। दंगा पीड़ितों की दुखद कहानियां सुनकर भावनाओं में बहकर पत्रकारों के व्यवस्था को गरियाने की आशंका रहती है और मैकेनिकल ढंग से काम करने के आदी उप संपादक की नजर से यदि यह चूक गया तो खामियाजा फिर संपादक को भुगतना होता है। अपनी गर्दन न फंसे इसका सबसे उचित तरीका है रोज शाम पुलिस की परंपरागत ‘ब्रीफिंग‘ को ही खबर बनाएं। खबरों के शीर्षक ‘तेजी से सामान्य हो रहे शहर के हालात‘, ‘सरकार और पुलिस एक्शन मोड में‘, ‘दंगाइयों की खैर नहीं‘ टाईप के हों और हर खबर में यह लिखना न भूलें कि स्थिति नियंत्रण में है।
बैलेंस जरूरी रखना जरूरी है
अंत में, इस बात का जरूर खयाल रखें कि हम ‘एकपक्षीय‘ न दिखें। इसके लिए जरूरी है कि पीड़ित समुदाय के दंगाइयों के भी नाम उछालें। दंगा पीड़ितों में बहुसंख्यक समुदाय से जुड़े लोगों की कुछ ‘ह्यूमन एंगल स्टोरीज‘ चलाई जा सकती हैं जिनमें दोष व्यवस्था को न देकर अल्पसंख्यक दंगाइयों को दिया जाए। सरकार की यदि माइल्ड आलोचना करनी पड़े तो विपक्षी पार्टियों को भी गरियाएं। स्पॉट रिपोर्टिंग के एडवेंचरिज्म से बचें। आप दंगे की आग बुझाने वाले दमकलकर्मी नहीं हैं कि आपका स्पॉट पर होना जरूरी हो। हमारा काम सिर्फ खबर देना है जो पुलिस व नेताओं की ब्रीफिंग से हो सकता है। स्पॉट पर जाने में आप यदि दंगाइयों की चपेट में आ गये और आपको एकाध पड़ गई, खोपड़ी वगैरह फूट गई तो फिर आप रोते हुए आओेगे और उसकी भी खबर देना चाहोगे। नहीं, यह नहीं हो सकता। और वैसे भी अपने रिपोर्टरों की सुरक्षा हमारे लिए सर्वोपरि है। पत्रकारिता का पहला नियम है, ‘अपनी खोपड़ी और संपादक की नौकरी बचाओ‘ और दूसरा व आखिरी नियम ‘पहले नियम को कभी मत भूलो‘।
#कोई नहीं जी! - महेश राजपूत
‘दंगे कवर कैसे न करें?‘
दंगे एक संवेदनशील मुद्दा हैं और हमारे प्रतिष्ठित मीडिया हाऊस व हमारे पत्रकारों की जिम्मेदारी भरी भूमिका को देखते हुए यह जानना जरूरी है कि दंगे कैसे कवर न किये जाएं क्योंकि जब हमारे संस्थान के सदस्य यह जान जाएंगे तो उन्हें इसका भी पता लग जायेगा कि दंगे कैसे कवर किये जाते हैं। इसलिए नीचे दिये टिप्स ध्यान से पढ़ें:
धर्म न पूछो दंगाइयों का
हिंसा करने वाले समुदाय का धर्म (यदि वह बहुसंख्यक समुदाय से हो तो) कभी न दें। इसके दो कारण हैं। एक उनकी भावनाएं आहत हो सकती हैं और संबंधित संवाददाता, संपादक संस्थान पर बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओें को आहत करने के आरोप में और दो समुदायों के बीच वैमन्सय बढ़ाने के आरोप में मुकदमेबाजी झेलनी पड़ सकती है और दंगाइयों को ज्यादा ही गुस्सा आ गया तो कार्यालय में तोड़फोड़ से लेकर स्टाफ के किसी सदस्य की खोपड़ी भी फूट सकती है और मुकदमेबाजी व सरकार के कोप का भाजन बनने से मालिक डर गया (जो स्वाभाविक है) तो संपादक की नौकरी भी जाने का खतरा हो सकता है, जो जोखिम हरगिज-हरगिज नहीं लिया जा सकता।
पुलिस से पंगा न लो
हां, हां पता है। मासकॉम की डिग्री लेकर आये नये, युवा और उत्साही पत्रकारों को लग सकता है कि सच अगर यही है कि पुलिस ने ‘मूक दर्शक‘ की भूमिका निभाई या खुद ही दंगाइयों के साथ शामिल हो गई और उत्पात मचाया या दंगों के दौरान भी और दंगों के बाद भी समुदाय विशेष को ही तंग कर रही है तो इसे क्यों न लिखा जाए आखिर हमारे संस्थान की टैगलाइन है ‘भटको चाहे जिधर, सच्ची खबर मिलेगी इधर‘। लेकिन कड़वा सच यही है कि पुलिस से पंगा लेने के कई नुकसान हैं क्योंकि पुलिस का डंडा राजनीतिक आकाओं के इशारे के बिना नहीं हिलता इसलिए पुलिस से नाराजगी मोल लेने का मतलब सरकार से नाराजगी मोल लेना होता है। पुलिस पर वार संबद्ध प्रदेश के सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञ खुद पर वार समझते हैं और सरकार के किये सरकारी विज्ञापन बंद होने से लेकर तमाम तरह की परेशानियां संस्थान के लिए खड़ी हो सकती हैं। आखिर तालाब में रहकर मगरमच्छ से बैर कौन सयाना संपादक ले सकता है? और कौन मालिक ऐसे बेवकूफ संपादक को नौकरी पर बनाये रखने का रिस्क ले सकता है। फिर पुलिसवालों के साथ एक और समस्या है, अगर उन्होंने आलोचना को ‘पर्सनल‘ ले लिया तो हैंड सैनिटाइजर से हाथ धोकर हमारे पीछे पड़ सकते हैं।
ह्यूमन एंगल स्टोरीज से दूर रहो
यूं तो ह्यूमन एंगल स्टोरीज यह जताने का सबसे बड़ा जरिया हैं कि अखबार में काम करने वाले पत्रकार इंसान हैं और उनमें भी किसीका दर्द समझने की भावना होती है लेकिन दंगों के समय इसके कई जोखिम हैं। दंगा पीड़ितों की दुखद कहानियां सुनकर भावनाओं में बहकर पत्रकारों के व्यवस्था को गरियाने की आशंका रहती है और मैकेनिकल ढंग से काम करने के आदी उप संपादक की नजर से यदि यह चूक गया तो खामियाजा फिर संपादक को भुगतना होता है। अपनी गर्दन न फंसे इसका सबसे उचित तरीका है रोज शाम पुलिस की परंपरागत ‘ब्रीफिंग‘ को ही खबर बनाएं। खबरों के शीर्षक ‘तेजी से सामान्य हो रहे शहर के हालात‘, ‘सरकार और पुलिस एक्शन मोड में‘, ‘दंगाइयों की खैर नहीं‘ टाईप के हों और हर खबर में यह लिखना न भूलें कि स्थिति नियंत्रण में है।
बैलेंस जरूरी रखना जरूरी है
अंत में, इस बात का जरूर खयाल रखें कि हम ‘एकपक्षीय‘ न दिखें। इसके लिए जरूरी है कि पीड़ित समुदाय के दंगाइयों के भी नाम उछालें। दंगा पीड़ितों में बहुसंख्यक समुदाय से जुड़े लोगों की कुछ ‘ह्यूमन एंगल स्टोरीज‘ चलाई जा सकती हैं जिनमें दोष व्यवस्था को न देकर अल्पसंख्यक दंगाइयों को दिया जाए। सरकार की यदि माइल्ड आलोचना करनी पड़े तो विपक्षी पार्टियों को भी गरियाएं। स्पॉट रिपोर्टिंग के एडवेंचरिज्म से बचें। आप दंगे की आग बुझाने वाले दमकलकर्मी नहीं हैं कि आपका स्पॉट पर होना जरूरी हो। हमारा काम सिर्फ खबर देना है जो पुलिस व नेताओं की ब्रीफिंग से हो सकता है। स्पॉट पर जाने में आप यदि दंगाइयों की चपेट में आ गये और आपको एकाध पड़ गई, खोपड़ी वगैरह फूट गई तो फिर आप रोते हुए आओेगे और उसकी भी खबर देना चाहोगे। नहीं, यह नहीं हो सकता। और वैसे भी अपने रिपोर्टरों की सुरक्षा हमारे लिए सर्वोपरि है। पत्रकारिता का पहला नियम है, ‘अपनी खोपड़ी और संपादक की नौकरी बचाओ‘ और दूसरा व आखिरी नियम ‘पहले नियम को कभी मत भूलो‘।
#कोई नहीं जी! - महेश राजपूत
Comments
Post a Comment