(एनडब्ल्यूएमआई-एफएससी रिपोर्ट)
स्थानीय मीडिया की उपेक्षा
पत्रकारों ने प्रशासन के दिल्ली से आने वाले
'राष्ट्रीय' पत्रकारों को तरजीह देने के बारे में कुछ कड़वाहट भरे लहजे में बात की। अनुच्छेद 370 हटाने के बाद दिल्ली से 'लाये'
पत्रकारों को लाल रंग वाले मूवमेंट पास दिए गए जो सरकारी अधिकारियों और सुरक्षा
बलों को दिए जाते हैं, जबकि स्थानीय मीडियाकर्मियों को सफ़ेद रंग वाले नागरिक पास
दिए गए।
गैर स्थानीय पत्रकारों को ख़बरें फाइल करने के
लिए इन्टरनेट पहुँच दी गयी। एक स्थानीय पत्रकार ने कहा, "यह हमारे
लिए सबसे बड़ी खबर थी पर मैं कोई खबर नहीं दे पाया।"
अंतर्राष्ट्रीय संवाददाता और कश्मीर घाटी के
बाहर के राष्ट्रीय मीडिया के पत्रकार भी पूरी तरह स्थानीय पत्रकारों निर्भर हैं। वह स्थानीय पत्रकारों के कारण ही घूम-फिर और
ख़बरें जुटाने का काम कर सकते हैं। लेकिन बंदी ने क्या किया? कश्मीरी आवाज़ का
पूरी तरह गला घोंट दिया।
स्थानीय
पत्रकारों ने अपनी हताशा और अलग-थलग किये जाने की भावना दर्शायी जब उन्होंने बताया
कि मीडिया संस्थानों ने उन्हें दर-किनार कर दिल्ली या अन्य स्थानों के ब्यूरो से
रिपोर्टर भेजे। एक प्रमुख अखबार के पत्रकार ने कहा, "मैं
खबर और तरीके से लिखता। जाहिर था, उन्हें मेरी रिपोर्ट नहीं चाहिए
थी। इसलिए अब मैं कोई खबर नहीं देता।"
स्थानीय
पत्रकारों ने कहा कि यह 'एम्बेडेड' पत्रकार, अधिकांश राष्ट्रीय मीडिया से, सरकार
को रास आने वाला परिदृश्य रच रहे थे। इसीलिए यहाँ आम तौर पर मीडिया के प्रति
द्वेष की भावना है। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने अविश्वसनीयता के
आरोपों का मुकाबला करने के साधन हैं। उदाहरण के लिए 9 अगस्त को सौरा में प्रदर्शन
के बीबीसी वीडियो को जब भारत सरकार ने चुनौती दी, बीबीसी ने अनकट फुटेज मुहैया करा
दी उसकी असलियत सिद्ध करने और फेक न्यूज़ के आरोपों को खारिज करने के लिए।
कश्मीर में
मीडिया बिरादरी के बीच एकजुटता में मुश्किलें किसी भी संघर्ष की स्थिति जैसी ही
हैं, सरकार, खुफिया एजंसियां, सैन्य बल और सशस्त्र उग्रवादियों जैसे कई तत्व
इन्हें अलग-अलग दिशाओं में खींचते हैं, पहुँच देकर या रोककर, गलत जानकारी फैलाकर, निगरानी
और धमकी भरा माहौल बनाकर। अविश्वास और संदेह का माहौल ऐसा होता है कि
केवल सावधानी ही कार्यप्रणाली बन जाती है। गिरफ्तार होने, फर्जी मामले दर्ज होने की
सूरत में मीडिया संस्थानों से उम्मीद बहुत ज्यादा नहीं होती, इसलिए पत्रकार समूहों में बोलने से कतराते हैं। ऐसे परिदृश्य में कश्मीर वर्किंग
जर्नलिस्ट्स, कश्मीर यंग जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन और नयी चुनी मुखर गवर्निंग बॉडी के
साथ कश्मीर प्रेस क्लब आशा की किरण दर्शाते हैं।
पत्रकारों पर
खुल कर काम न कर पाने का अपने लोगों से अन्याय करने समेत गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव
भी पड़ रहा है। एक स्थानीय महिला पत्रकार ने अपने साथियों
की भावनाओं को प्रतिबिंबित करते हुए कहा, "हमारा काम खबर देना है और वह हम
नहीं कर पा रहे और बेहद असहाय महसूस करते हैं। कश्मीरियों को
कोने में धकेल दिया गया है और हम कश्मीर की व्यथा को रिपोर्ट नहीं कर सकते।"
तीन दशकों से
संघर्ष की ख़बरें दे रहे हैं
जम्मू और कश्मीर
में मीडिया के लिए सैन्यीकरण, सशस्त्र उग्रवाद, संचारबंदी और बंद अनोखी बात नहीं
है और उक्त चीज़ें यहाँ सामान्य जनजीवन से लेकर मीडिया के काम को प्रभावित करते रहे
हैं।
1990: वर्ष 1989 में सशस्त्र संघर्ष शुरू होने के
बाद से 22 पत्रकार मारे गए हैं, इनमें से अधिकाँश को सीधे तौर पर निशाना बनाया गया। 1990 में श्रीनगर में दूरदर्शन केंद्र के
निदेशक लस्सा कौल से लेकर 2018 में राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी तक,
कश्मीरी पत्रकारों ने अपना कार्य करने की कीमत जान देकर चुकाई है।
2008: जम्मू एवं कश्मीर सरकार के ज़मीन श्री
अमरनाथजी श्राइन बोर्ड को देने के फैसले के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए,
सुरक्षा बलों की फायरिंग में कई लोग मारे गए और महीनों तक कई स्थानों पर 'बंद' रहे।
2010: बारामुला के एक गाँव के तीन युवकों को सेना
के "फर्जी मुठभेड़" में मारने के बाद मचे घमासान में प्रदर्शकारियों पर
सुरक्षा बलों की फायरिंग में सौ से ज्यादा लोग मारे गए और कई घायल हो गए। घाटी कई बंद, कर्फ्यू और आवाजाही पर कड़े
प्रतिबन्ध की गवाह बनी।
2016: उग्रवादी नेता बुरहान वाणी के सुरक्षा बलों
के हाथों मारे जाने के बाद व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए और लगभग दो महीने तक कर्फ्यू
लगा रहा, मोबाइल फ़ोन कनेक्टिविटी काट दी गयी। लगभग सौ लोग
मारे गए और हज़ारों लोग, भीड़ नियंत्रण उपायों जिनमें पैलेट शामिल थे, से घायल हुए।
कानून: मीडिया कड़े प्रतिबंधों के तहत और
सैन्यकर्मियों को असीमित ताकत देने वाले आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावर्स) एक्ट तथा
राज्य की सुरक्षा अथवा क़ानून व्यवस्था बनाए रखने में बाधा डालने की आशंका से पत्रकारों
समेत लोगों को बिना मुक़दमे के हिरासत में लेने के कश्मीर के पब्लिक सेफ्टी एक्ट
1978 के तहत गिरफ्तारी की तलवार के साए में काम कर रहा है। वर्ष 2008 में
बनी राष्ट्रीय जांच एजंसी (एनआईए) जैसी आतंकवाद विरोधी एजंसियों को पत्रकारों समेत
नागरिकों को बुलाने, हिरासत में लेने और तहकीकात करने के असीमित अधिकार हैं।
इन्टरनेट बैन का
सामना
इन्टरनेट पर बैन
ने पत्रकारों के कार्य को बाधित किया है। पत्रकारों को इन्टरनेट की अनुपलब्धता की
सूरत से निबटने के लिए अविश्वसनीय तरीकों का इस्तेमाल करने पर मजबूर किया है। पर यह थकाने वाला और लगातार निगरानी के खतरे
की आशंका पैदा करते हैं।
- शुरूआती दिनों में, कुछ पत्रकारों ने पेन ड्राइव में ख़बरें भेजीं।
- कुछ पत्रकारों ने उन स्थानों पर जाकर ख़बरें फाइल करना शुरू किया जहाँ इन्टरनेट हो।
- कुछ ने महसूस किया कि वह कहीं और अपने साथियों या रिश्तेदारों से भी मेल खुलवा नहीं सकते क्योंकि उन्होंने अपने डिवाईस पर दो चरणों में पुष्टि की व्यवस्था की गयी है। ओटीपी पूछे जाने पर उनके मोबाइल फ़ोन पर आता, जो मामला बिगाड़ देता था।
(जारी)
नोट : रिपोर्ट पत्रकारों लक्ष्मी मूर्ति और गीता शेषु ने लिखी है जो नेटवर्क ऑफ वीमेन इन मीडिया, इंडिया की सदस्य हैं और फ्री स्पीच कलेक्टिव की संपादक हैं। दोनों 30 अगस्त से 3 सितंबर तक कश्मीर में थीं और चार सितंबर यह रिपोर्ट जारी की गई। दोनों संस्थाएं नॉन फंडेड और वालंटियर ड्रिवन हैं। )
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