(एनडब्ल्यूएमआई-एफएससी
रिपोर्ट)
मुख्य निष्कर्ष : मीडिया पर बंदिशें और उसके
निहितार्थ
- सरकार या सुरक्षा बलों के प्रतिकूल मानी
जाने वाली रिपोर्ट प्रकाशित करने वाले पत्रकारों पर निगरानी रखी जा रही है, उनसे अनौपचारिक 'पूछताछ' हो रही है और उन्हें परेशान किया जा रहा
है
- ज़मीन से पुष्ट की जा सकने वाली जानकारी
को सोख दिया गया है
- अस्पतालों समेत कुछ क्षेत्रों में
आवाजाही पर पाबंदियां
- प्रिंट प्रकाशनों के लिए उपलब्ध
सुविधाओं पर नियंत्रण
- अंतर्राष्ट्रीय और विश्वसनीय राष्ट्रीय
मीडिया के तीन पत्रकारों को आबंटित सरकारी क्वार्टर खाली करने के मौखिक
निर्देश
- अधिकारिक रूप से कर्फ्यू न होने के
बावजूद पाबंदियां, बंदी के
लिए कोई सरकारी अधिसूचना नहीं
- लैंडलाइन केवल कुछ इलाकों में काम कर
रही हैं, प्रेस एन्क्लेव में नहीं, जहाँ अधिकांश अखबारों के कार्यालय हैं
- ईमेल और फ़ोन पर संपादकों से प्लेबैक और
पूछे गए सवालों, खासकर तथ्यों की पुष्टि के बारे में, के जवाब न दे पाने के कारण राष्ट्रीय
मीडिया में ख़बरें नहीं छप रहीं
- स्पष्ट ''अनौपचारिक" निर्देश कि किस तरह की
सामग्री प्रकाशित की जा सकती है
- कश्मीर के प्रमुख समाचार पत्रों में
सम्पादकीय मुखरता की अनुपस्थिति, इसके
बजाय विटामिन सेवन जैसे 'नरम' विषयों पर सम्पादकीय
- महिला पत्रकारों के लिए सुरक्षा की कमी
- स्वतंत्र मीडिया का गला घोंटा जा रहा है, मीडिया स्वतंत्रता पर जोखिम के साथ-साथ
श्रमजीवी पत्रकारों के रोज़गार पर भी असर
- 'नया कश्मीर' के निर्माण के दावों और "सबकुछ ठीक
है" के नैरेटिव का सरकारी नियंत्रण
- विश्वास टूटने, अलगाव की
भावना और निराशा को लेकर आक्रोश व्यक्त करने वाली कश्मीरी आवाजों को खामोश और
अदृश्य किया जा रहा है
परिचय
5 अगस्त को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370, जो जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देता था, हटाने के एक महीने बाद भी जारी संचारबंदी ने
स्वतंत्र मीडिया का गला घोंट दिया है। पत्रकार समाचार जुटाने, पुष्टि करने और प्रसार की प्रक्रिया में कड़े
प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं, सूचना का
मुक्त प्रवाह पूरी तरह से बाधित हो चुका है और एक ऐसी परेशान करने वाली ख़ामोशी
पीछे छोड़ गया है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया की आज़ादी के लिए कतई शुभ
संकेत नहीं है।
कश्मीर पर मचे घमासान के इस नए और गहन चरण
में भारत सरकार ने पूरी ताकत - राजनीतिक, वैधानिक, सैन्य और दंडात्मक - झोंक दी है। मुख्यधारा
के राजनीतिक नेताओं समेत सैकड़ों को हिरासत में लिया गया अथवा गिरफ्तार किया गया
है। इससे पहले कभी किसी और लोकतान्त्रिक सरकार ने कश्मीर में इस स्तर पर संचारबंदी
की कोशिश नहीं की।
कश्मीर में मीडिया पर इस कठोर संचारबंदी का
प्रभाव समझने के लिए नेटवर्क ऑफ़ वीमेन इन मीडिया, इंडिया (एनडब्ल्यूएमआई) और फ्री स्पीच कलेक्टिव (एफएससी) की दो सदस्यीय टीम ने
घाटी में 30 अगस्त से 3 सितम्बर तक पांच दिन बिताये। टीम ने श्रीनगर और दक्षिण
कश्मीर में अखबारों और समाचार पोर्टलों के 70 से ज्यादा पत्रकारों, संवाददाताओं और संपादकों, स्थानीय प्रशासन के सदस्यों और नागरिकों से
बात की।
हमारी तहकीकात ने कश्मीर में अविश्वसनीय
बाधाओं के खिलाफ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे मीडिया की विकट और निराश तस्वीर पेश की,
जो कि विश्व के सबसे अधिक सैन्यीकृत
क्षेत्रों में सुरक्षा बलों के साए में काम कर रहा है। पाबंदियों और असीम सरकारी
नियंत्रण के बीच मीडिया बहादुरी से ज़मीनी हकीकत - स्वास्थ्य, शिक्षा, कारोबार और
अर्थव्यवस्था पर संचारबंदी के गंभीर और दीर्घावधि के प्रभावों - को रिपोर्ट करने
की कोशिश कर रहा है।
टीम ने देखा कि जो पत्रकार सरकार अथवा
सुरक्षा बलों के प्रतिकूल मानी जा रही रिपोर्ट प्रकाशित कर रहे हैं ऐसे पत्रकारों
की निगरानी की जा रही है, इनसे
अनौपचारिक पूछताछ की जा रही है और गिरफ्तार तक किया जा रहा है। प्रिंट प्रकाशन के
लिए सुविधाओं पर नियंत्रण, सरकारी
विज्ञापन सीमित प्रकाशनों को दिए जा रहे हैं, कुछ जगहों
(अस्पतालों समेत) पर आने-जाने पर पाबंदियां और अब तक की सबसे बड़ी संचारबंदी।
महत्वपूर्ण यह है, कि अधिकारिक
रूप से कर्फ्यू नहीं है, पर कोई सरकारी
अधिसूचना नहीं है।
ज़मीन से रिपोर्टिंग के अभाव में "सब ठीक
है" के सरकारी नैरेटिव का प्रभाव पूरी तरह से छाया हुआ है। "नया
कश्मीर" निर्माण के इसके सरकारी दावों का शोर हर तरफ गूँज रहा है जबकि कश्मीर
से अलग-थलग होने, गुस्से और निराशा
दर्शाने वाली कश्मीरी आवाजों को खामोश और अदृश्य कर दिया गया है। सरकार का संचार
प्रक्रिया पर नियंत्रण अलोकतांत्रिक और नुकसानदेह है क्योंकि यह सत्ता की आवाज़ को
महत्व देता है और जो सत्ता के मुंह पर सच कहना चाहते है, उनकी आवाज़ को दबा रहा है।
गिरफ्तारियां, धमकियाँ और जांच
त्राल से इरफ़ान मलिक पहले पत्रकार थे जिन्हें
5 अगस्त की बंदी के बाद हिरासत में लिया गया। यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें आखिर
क्यों हिरासत में लिया गया। एक और पत्रकार क़ाज़ी शिबली को अनंतनाग से बंदी से पहले
ही हिरासत में लिया गया था, संभवत: सैन्य
बलों की तैनाती के
बारे में ट्वीट करने के कारण।
पत्रकारों से पुलिस और जांच अधिकारियों ने
कुछ संवेदनशील ख़बरों को लेकर पूछताछ की है और उन पर अपने स्रोत बताने का दबाव भी
डाला गया है। कुछ प्रमुख अखबारों के संपादकों को भी दबी जुबां धमकी दी गयी है कि
उनसे जांच अधिकारी पूछताछ कर सकते हैं।
दबाव की नीतियां अपनाने का एक और उदाहरण
वरिष्ठ अंतर्राष्ट्रीय
और प्रतिष्ठित
स्वतंत्र राष्ट्रीय मीडिया के साथ काम करने वाले पत्रकारों फ़याज़ बुखारी, एजाज़ हुसैन और नज़ीर मसूदी को प्रताड़ित करने
के प्रयास में मौखिक रूप से सरकार की तरफ से दिया गया घर खाली करने को कहा गया है।
स्तंभकार और लेखक गोहर गिलानी को 31 अगस्त को विदेश जाने से रोकना, कश्मीरी आवाजों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर
पहुँचने से रोकने की ही एक कोशिशों की कड़ी है।
स्वतन्त्र समाचार जुटाने का कार्य बुरी तरह
प्रभावित
लोगों की जारी "हड़ताल" के बीच, जो अधिकारियों के "सब ठीक है"
दर्शाने की सारी कोशिष्ण के बावजूद थमने का नाम नहीं ले रही, पत्रकारों को यहाँ अपने करियर की सबसे बड़ी
चुनौती का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उन्हें जानकारी हासिल करने से रोका जा रहा
है। उनके पास समाचार जुटाने, पुष्टि करने
और जानकारी के सत्यापन के साधन नहीं हैं और यदि वह किसी तरह ऐसा करने में सफल हो
भी गए तो समाचार भेजने में भी बड़ी चुनौतियाँ उनके सामने होती हैं। श्रीनगर में
जहाँ हालात गंभीर हैं, वहीँ जिलों, ग्रामीण भागों, छोटे शहरों और सीमाई क्षेत्रों, जहाँ सेना का
सूचना के प्रवाह पर पूरा कब्ज़ा है, के बारे में
और भी कम जानकारी है।
5 अगस्त को अनुच्छेद 370 को हटाने की घोषणा
के बाद जहाँ कुछ अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं को अपना प्रकाशन स्थगित करना पड़ा था, वहीँ तीन प्रमुख अखबार और छह अन्य छोटे अखबार
सिकुड़े संस्करणों में सामने आये, चार से आठ
पृष्ठों के, कुछ बिना
सम्पादकीय के और कुछ बहुत कम प्रिंट रन तथा अनियमित वितरण के साथ।
बेबाक और जीवन मीडिया स्पेस माने जाने वाली
ऑनलाइन समाचार साईट, बंद ही हो
गयीं, अखबार और अन्य
प्रकाशन अपनी वेबसाइट पर 4 अगस्त, जब इन्टरनेट
बंद किया गया, से समाचार
नहीं डाल पा रहे।
चुनिन्दा सरकारी अधिकारियों, पुलिस और सुरक्षा बलों को मोबाइल फोन और
लैंडलाइन उपलब्ध है। लेकिन नागरिक जिनमें मीडिया के लोग शामिल हैं, के पास यह सुविधाएं नहीं है। सरकार दावा करती
है कि जम्मू कश्मीर में 26 हज़ार लैंडलाइन (95 कार्यरत एक्सचेंज के साथ) शुरू किये
गए हैं, जिनमें से
अधिकांश जम्मू और लद्दाख में हैं। दोनों क्षेत्रों में इन्टरनेट पर प्रतिबन्ध
हटाया गया है पर संचार अनियमित ही है।
कश्मीर घाटी में, लैंडलाइन केवल कुछ इलाकों में काम कर रहे हैं
और महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रेस एन्क्लेव में जहाँ अधिकांश अखबारों के कार्यालय
हैं, काम नहीं कर
रहे। प्रशासन का कहना है कि प्रेस एन्क्लेव लाल चौक एक्सचेंज में पड़ता है जहाँ
8000 लाइन है पर चूँकि यह "संवेदनशील" इलाका है और कड़ी सुरक्षा में है, इसलिए सिर्फ प्रेस एन्क्लेव में लैंडलाइन
मुहैया कराना संभव नहीं होगा।
बिलकुल, यह भी साफ़ है
कि सरकार संचार पर सम्पूर्ण बंदी निजी टेलिकॉम ऑपरेटर और केबल टीवी सेवा प्रदाताओं
को अपनी सेवाएं निलंबित करने का आदेश देकर कर पायी। लेकिन कुछ भी लिखित में नहीं
है। चूंकि अधिकांश आबादी मोबाइल फ़ोन अपना चुकी थी, लैंडलाइन न के बराबर थे और इसीलिए संचारबंदी आसानी से लागू की जा सकी।
मीडिया पर नियंत्रण के लिए भी अजीब तरीके
अपनाये गए। श्रीनगर में पत्रकारों के लिए 10 अगस्त को एक तारांकित निजी होटल में
एक मीडिया सुविधा केंद्र स्थापित किया गया जिसके लिए प्रदेश सरकार ने रोजाना आधार पर
किराए के रूप में अच्छा ख़ासा खर्च किया है। इसमें पांच कंप्यूटर, एक बीएसएनएल इन्टरनेट कनेक्शन और एक फ़ोन लाइन
है और इसका नियंत्रण सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय से जुड़े सरकारी अधिकारी करते
हैं। पत्रकार इन्टरनेट के लिए कतार में रहते हैं ताकि ख़बरें जारी कर सकें और
अख़बारों के लिए पेज अपलोड कर सकें। अक्सर वह एक खबर फाइल करने के लिए दिन भर
इंतज़ार करते हैं। यदि, और जो अक्सर
होता है, मीडिया हाउस
ख़बरों के बारे में कोई सवाल या स्पष्टीकरण पूछें तो उनके पास जवाब देने का कोई
तरीका नहीं है और इसलिए या तो ख़बरें किनारे रख दी जाती हैं या इस्तेमाल ही नहीं
होतीं।
सरकार का टॉपडाउन रवैया प्रशासन के वरिष्ठ
सदस्यों के मीडिया सुविधा केंद्र में आयोजित अनियमित प्रेस ब्रीफिंग से झलकता है, जो केवल 10-15 मिनट ही चलती हैं और जिनमें या
तो सवाल पूछने ही नहीं दिए जाते या फिर सवालों के जवाब नहीं दिए जाते।
मनोज पंडिता, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और प्रवक्ता से जब पिछले सप्ताह एक दुकानदार को गोली
मारे जाने के बारे में पुछा गया तो उन्होंने अपनी टीम के एक सदस्य को बताया कि
पत्रकार जिन्हें फॉलोअप चाहिए वह ट्विटर पर विस्तृत जानकारी पा सकते हैं। उन्होंने
कहा कि प्रशासन लगातार कश्मीर पर जानकारी कई सारे ट्विटर हैंडल पर अपडेट करता रहता
है। अब यहाँ इस विडंबनात्मक पहलू को नज़रंदाज़ करना मुश्किल ही था कि जिन पत्रकारों
के पास इन्टरनेट ही नहीं है
उन्हें सोशल मीडिया नेटवर्क से आधिकारिक जानकारी प्राप्त करने को कहा जा रहा था।
बिलकुल, सरकारी
प्रवक्ताओं के ट्विटर हैंडल पर गतिविधियाँ बढ़ गयी हैं और इन पर असंख्य समाचारों और
बयानों पर प्रतिक्रियाओं समेत मीडिया रिपोर्टिंग की आलोचना देखी जा सकती है।
स्पष्ट रूप से यह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पाठकों और दर्शकों के लिए है और उस
आबादी की नज़र से परे है जिनकी इन्टरनेट तक पहुँच नहीं है, भले वह आबादी खुद सोशल मीडिया पर विमर्श का
विषय है।
कश्मीर से आने वाली ख़बरों में से बहुतायत ऐसे
ख़बरों की है जो सरकारी घोषणाओं और इसकी गतिविधियों के बारे में जानकारी पर आधारित
हैं। सरकार की तरफ से जारी प्रेस विज्ञप्तियों पर एक नज़र डालते ही इस बात की
पुष्टि होती है। खुले स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति के बारे में विज्ञप्ति में
यह तथ्य छिपा ही लिया गया कि छात्र अपनी सुरक्षा को लेकर डर के कारण और किसी संकट
की स्थिति में स्कूलों और उनके परिजनों के बीच संपर्क की कोई सम्भावना न होने के
कारण स्कूलों से दूर ही हैं।
दूसरी एक प्रेस विज्ञप्ति में सरकारी
अस्पतालों में किये गए ऑपरेशनों के बारे में विवरण और आंकड़े दिए गए थे पर पैलेट गन
के शिकारों की संख्या के बारे में पूछे गए एक पत्रकार के एक सीधे सादे सवाल का
प्रधान सचिव रोहित कंसल की 2 सितम्बर की प्रेस ब्रीफिंग में जवाब नहीं दिया गया।
जब कश्मीर के मीडिया संस्थान इन्टरनेट पर बैन
हटाने की मांग कर रहे हैं, प्रशासन
उन्हें कहता है कि वह मीडिया केंद्र में और कंप्यूटर मुहैया कराने की कोशिश करेगा।
पत्रकार ऐसे नियंत्रित हालात में और लगातार निगरानी के तहत काम करने की विडंबना को
अच्छी तरह महसूस करते हैं।
पत्रकारों को प्रतिकूल ख़बरों के लिए
प्रतिशोधात्मक कार्रवाई का जोखिम भी उठाना पड़ रहा है। जो पुष्ट जानकारी के आधार पर
ख़बरें दे रहे हैं, ऐसे पत्रकारों
को भी पुलिस उनके स्रोत पूछने के लिए बुला रही है। नतीजतन, अधिकांश पत्रकार, जिनसे हमने बात की, ने बताया कि वह खुद ही जानकारी को सेंसर करने
पर मजबूर हैं।
संपादकों ने चिंता व्यक्त की कि वह अपने जिला
प्रतिनिधियों और स्ट्रिंगरों, जो उनकी सूचना
प्रणाली की रीढ़ हैं, से पिछले एक
महीने से संपर्क नहीं कर पा रहे हैं। उनके बारे में कोई जानकारी नहीं है, उन इलाकों और वहां रहने वाले लोगों की तो बात
ही छोड़ दीजिये।
जारी सूचनाबंदी का सभी कश्मीरियों की
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बुरा प्रभाव पड़ा है और मीडिया की आज़ादी गंभीर खतरे
में है। नागरिकों को जानने के बुनियादी सूचना अधिकार से वंचित किया जा रहा और
मीडिया का सच को बिना डर या उपकार के सामने लाने का कार्य खतरे में है।
हमारी तहकीकात की प्रमुख
बातें:
सेंसरशिप और समाचारों पर
नियंत्रण
हालांकि कोई अधिकारिक
सेंसरशिप या बैन लागू नहीं है पर संचार चैनलों की कमी और आवाजाही पर प्रतिबंधों के
कारण पत्रकारों को समाचार जुटाने के निम्नलिखित क़दमों में समस्या आ रही है:
·
इन्टरनेट और फ़ोन बंद होने के कारण घटनाओं के
बारे में जानकारी मिलने या संपर्कों और स्रोतों से जानकारी मिलने में
·
कहीं आ-जा न पाने के कारण, कुछ इलाकों में प्रवेश पर पाबंदियों से, समाचार जुटाना बाधित हो रहा है
·
खुद या गवाहों से पुष्टि करने से रोके जाने, आधिकारिक स्रोतों से जानकारी की पुष्टि करने से मना करने के
कारण समाचारों की विश्वसनीयता से समझौते के खतरे हैं
·
संपादकों से ईमेल अथवा फ़ोन पर तथ्यों की
पुष्टि के बारे में पूछे गए सवालों के जवाब न दे पाने के कारण या ख़बरों में सुधार
न कर पाने के कारण ख़बरें छप नहीं पा रही हैं। केवल एक खबर मीडिया केंद्र में जाकर
अपलोड करना काफी नहीं है यदि आप सवालों के जवाब देने के लिए उपलब्ध नहीं हैं।
·
तनाव और संघर्ष के समय में खबर में सुधार न
कर पाने की स्थिति खतरनाक हो सकती है,
चूंकि शब्दों का चयन
स्थानीय सन्दर्भ में संवेदनशील मामला होता है और सम्बंधित पत्रकार को जोखिम में भी
डाल सकता है।
·
स्पष्ट 'अनौपचारिक' निर्देश है कि किस तरह की सामग्री की अनुमति है
·
उच्च स्तरीय पुलिस अधिकारियों ने मीडिया
घरानों में जाकर मीडियाकर्मियों को जाकर कथित रूप से बताया कि इन विषयों से बचें:
विरोध प्रदर्शन,
पथराव, पाबंदियां
·
टीम ने सुना कि बीजेपी सदस्य मीडिया
कार्यालयों में रोज़ 7-8 ख़बरें लेकर पहुँचा रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि उन्हें
प्रकाशित किया जाए। ऐसे "प्रस्ताव" को टालना मुश्किल है क्योंकि वैसे भी
प्रकाशन योग्य सामग्री की बेहद कमी है
·
स्पष्ट पकिस्तान-विरोधी रवैया है अर्थात
मुखपृष्ठ पर इमरान खान की ख़बरें न दें,
यहाँ तक कि खेल पृष्ठ पर
मिस्बाह उल हक़ की तस्वीर छपने पर एक अखबार के कार्यालय में पुलिस आ धमकी।
कश्मीर में प्रमुख अख़बारों
में सम्पादकीय आवाज़ की अनुपस्थिति अपने आप में मीडिया की स्थिति पर एक टिप्पणी है।
सम्पादकीय और वैचारिकी आलेख इधर इन विषयों पर हैं: "भोजन के रूप में विटामिन
के उपयोग, लाभ और 10 भोज्य स्रोत", "जंक फ़ूड त्यागना चाहते हैं?", "गर्मियों में आपको कैफीन लेना चाहिए? जवाब आपको हैरान कर देगा", "फल उत्पादन", ग्रहों की सोच" और "हमारे समुद्र और हम"।
उर्दू अख़बार समाचारों के मामले में बेहतर हैं लेकिन वर्तमान संकट पर सम्पादकीय
आलेखों से बच रहे हैं और सम्पादकीय के रूप में "घर की सफाई कैसे हो?" और "जोड़ों का दर्द" जैसे आलेख दे
रहे हैं।
हिरासत और गिरफ्तारी की
धमकी
हालांकि आने वाले तूफ़ान की
आहट जुलाई के अंत में दर्शनीय सैन्य तैनाती के रूप में मिलने लगी थी, ऑनलाइन प्रकाशन द कश्मीरियत के संपादक क़ाज़ी शिबली को सैन्य तैनाती के
बारे में ट्वीट को लेकर और जम्मू एवं कश्मीर के कोने-कोने में अतिरिक्त अर्धसैनिक
बलों की तैनाती के बारे में एक अधिकारिक आदेश प्रकाशित करने को लेकर दक्षिण कश्मीर
के अनंतनाग में हिरासत में लिया गया।
घाटी के सर्वाधिक प्रसार
संख्या वाले अंग्रेजी दैनिक ग्रेटर कश्मीर के रिपोर्टर इरफ़ान मालिक को 14 अगस्त को
हिरासत में लिया गया। उनके परिजनों ने बताया कि सुरक्षा कर्मी दक्षिण कश्मीर के
त्राल में दीवार फांदकर उनके घर में घुसे और उन्हें ले
गए और स्थानीय पुलिस थाने की कोठरी में हिरासत में रखा।
किसी और तरह के संचार के अभाव में उनका परिवार श्रीनगर में कश्मीर प्रेस क्लब गया
और सरकारी अधिकारियों से भी मिला। इस प्रचार से थोड़ा शोर मचा और मलिक को 17 अगस्त
को छोड़ दिया गया। उन्हें हिरासत में लेने का कारण अज्ञात ही है।
श्रीनगर और जिलों में भी
कई पत्रकारों को थोड़े-थोड़े अरसे के लिए हिरासत में लिया गया है, पुलिस थानों पर बुलाया गया है और/अथवा पुलिस या जांच
एजंसियों के लोगों की तरफ से मिल कर अपने स्रोत बताने के लिए दबाव डाला गया है।
लेकिन वह लोग खुलकर अपने अनुभव बताना या मामले को बढ़ाना नहीं चाहते क्योंकि
प्रतिशोधात्मक कार्रवाई हो सकती है।
बुरहान वाणी पर कवर स्टोरी
के लिए कश्मीर नैरेटर, के सहायक संपादक आसिफ सुलतान को अगस्त 2018 में हिरासत में
लिया गया था और गैरकानूनी गतिविधि प्रतिरोधक क़ानून (यूएपीए) के तहत आरोप लगाए गए
थे, वह अब भी जेल में हैं।
धमकी भरे माहौल ने पीड़ा और
तनाव बढाया है। विभिन्न तरह की धमकियों के कारण डर का माहौल है। पत्रकारों को
पुलिस थानों पर बुलाया गया है अथवा सीआईडी के लोग उनसे जाकर मिले हैं उनके स्रोत
की जानकारी के लिए। पब्लिक सेफ्टी एक्ट,
यूएपीए अथवा अन्य आतंक
विरोधी प्रावधानों के तहत हिरासत में लिए जाने का डर अकारण नहीं है। इससे उच्च
स्तरीय सेल्फ सेंसरशिप हो रही है। संचारबंदी ने असुरक्षा की भावना को बढ़ाया ही है।
एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा,
"यदि हमें उठा लिया गया या
गायब कर लिया गया तो किसीको पता भी नहीं चलेगा। हम एक-दूसरे से कह रहे हैं। यह खबर
मत करो, सुरक्षित रहो। जब ज़िन्दगी दांव पर लगी हो, साख पीछे छूट ही जाती है।"
अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को
घाटी में सीधी पहुँच की अनुमति नहीं है पर कुछ स्थानीय वरिष्ठ पत्रकारों की सहायता
से वह ख़बरें सामने ला रहे हैं। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को ख़बरें देने वाले
स्थानीय पत्रकारों पर बहुत दबाव हैं। कुल मिलकर, अंतर्राष्ट्रीय
मीडिया 5 अगस्त के बाद की स्थिति की अपेक्षाकृत साफ़ तस्वीर प्रस्तुत करने
में सक्षम रहा है। इसके परिणाम स्वरुप लेकिन उन पत्रकारों को निशाना बनाया जा रहा
है जो अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों अथवा अपेक्षाकृत स्वतंत्र राष्ट्रीय प्रकाशनों और
चैनलों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े हैं। सात पत्रकारों की एक
"सूची" कथित रूप से बनायी गयी है। यह हैं: फ़याज़ बुखारी (रायटर), रियाज़ मसरूर (बीबीसी),
परवेज़ बुखारी (एएफपी), एजाज़ हुसैन (एपी),
नज़ीर मसूदी (एनडीटीवी) , बशरत पीर (एनवायटी) और मिर्ज़ा वहीद, निवासी लेखक यूके।
इसे प्रताड़ना का तरीका ही
कहा जाएगा कि इनमें से तीन (फ़याज़ बुखारी,
नज़ीर मसूदी और एजाज़ हुसैन), जो उन करीब 70 पत्रकारों में हैं जिन्हें सरकारी मकान मिले
हुए हैं, से मौखिक रूप से घर खाली करने को कहा गया।
इन्होंने लिखित नोटिस मांगे तो नहीं दिया गया।
स्थानीय मीडिया की उपेक्षा
पत्रकारों ने प्रशासन के दिल्ली से आने वाले 'राष्ट्रीय' पत्रकारों को तरजीह देने के बारे में कुछ कड़वाहट भरे लहजे में बात की। अनुच्छेद 370 हटाने के बाद दिल्ली से 'लाये' पत्रकारों को लाल
रंग वाले मूवमेंट पास दिए गए जो सरकारी अधिकारियों और सुरक्षा बलों को दिए जाते
हैं, जबकि स्थानीय
मीडियाकर्मियों को सफ़ेद रंग वाले नागरिक पास दिए गए।
गैर स्थानीय पत्रकारों को ख़बरें फाइल करने के
लिए इन्टरनेट पहुँच दी गयी। एक स्थानीय पत्रकार ने कहा, "यह हमारे लिए सबसे बड़ी खबर थी पर मैं कोई खबर नहीं दे पाया।"
अंतर्राष्ट्रीय संवाददाता और कश्मीर घाटी के
बाहर के राष्ट्रीय मीडिया के पत्रकार भी पूरी तरह स्थानीय पत्रकारों निर्भर हैं। वह स्थानीय पत्रकारों के कारण ही घूम-फिर और
ख़बरें जुटाने का काम कर सकते हैं। लेकिन बंदी ने क्या किया? कश्मीरी आवाज़
का पूरी तरह गला घोंट दिया।
स्थानीय पत्रकारों ने अपनी हताशा और अलग-थलग
किये जाने की भावना दर्शायी जब उन्होंने बताया कि मीडिया संस्थानों ने उन्हें
दर-किनार कर दिल्ली या अन्य स्थानों के ब्यूरो से रिपोर्टर भेजे। एक प्रमुख अखबार के पत्रकार ने कहा,
"मैं खबर और तरीके से लिखता। जाहिर था, उन्हें मेरी रिपोर्ट नहीं चाहिए थी। इसलिए अब मैं कोई खबर नहीं देता।"
स्थानीय पत्रकारों ने कहा कि यह 'एम्बेडेड' पत्रकार, अधिकांश
राष्ट्रीय मीडिया से, सरकार को रास
आने वाला परिदृश्य रच रहे थे। इसीलिए यहाँ आम तौर पर मीडिया के प्रति द्वेष की भावना है। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने अविश्वसनीयता के
आरोपों का मुकाबला करने के साधन हैं। उदाहरण के लिए 9 अगस्त को सौरा में प्रदर्शन के बीबीसी वीडियो को जब भारत
सरकार ने चुनौती दी, बीबीसी ने
अनकट फुटेज मुहैया करा दी उसकी असलियत सिद्ध करने और फेक न्यूज़ के आरोपों को खारिज
करने के लिए।
कश्मीर में मीडिया बिरादरी के बीच एकजुटता
में मुश्किलें किसी भी संघर्ष की स्थिति जैसी ही हैं, सरकार, खुफिया
एजंसियां, सैन्य बल और
सशस्त्र उग्रवादियों जैसे कई तत्व इन्हें अलग-अलग दिशाओं में खींचते हैं, पहुँच देकर या रोककर, गलत जानकारी फैलाकर, निगरानी और धमकी भरा माहौल बनाकर। अविश्वास और संदेह का माहौल ऐसा होता है कि
केवल सावधानी ही कार्यप्रणाली बन जाती है। गिरफ्तार होने, फर्जी मामले
दर्ज होने की सूरत में मीडिया संस्थानों से उम्मीद बहुत ज्यादा नहीं होती, इसलिए पत्रकार समूहों में बोलने से कतराते हैं। ऐसे परिदृश्य में कश्मीर वर्किंग जर्नलिस्ट्स, कश्मीर यंग जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन और नयी चुनी
मुखर गवर्निंग बॉडी के साथ कश्मीर प्रेस क्लब आशा की किरण दर्शाते हैं।
पत्रकारों पर खुल कर काम न कर पाने का अपने
लोगों से अन्याय करने समेत गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ रहा है। एक स्थानीय महिला पत्रकार ने अपने साथियों की
भावनाओं को प्रतिबिंबित करते हुए कहा, "हमारा काम खबर देना है और वह हम नहीं कर पा रहे और बेहद असहाय महसूस करते हैं। कश्मीरियों को कोने में धकेल दिया गया है और
हम कश्मीर की व्यथा को रिपोर्ट नहीं कर सकते।"
तीन दशकों से संघर्ष की ख़बरें दे रहे हैं
जम्मू और कश्मीर में मीडिया के लिए सैन्यीकरण, सशस्त्र उग्रवाद, संचारबंदी और बंद अनोखी बात नहीं है और उक्त
चीज़ें यहाँ सामान्य जनजीवन से लेकर मीडिया के काम को प्रभावित करते रहे हैं।
1990: वर्ष 1989 में सशस्त्र संघर्ष शुरू होने के
बाद से 22 पत्रकार मारे गए हैं, इनमें से
अधिकाँश को सीधे तौर पर निशाना बनाया गया। 1990 में श्रीनगर में दूरदर्शन केंद्र के निदेशक लस्सा कौल से लेकर 2018 में
राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी तक, कश्मीरी
पत्रकारों ने अपना कार्य करने की कीमत जान देकर चुकाई है।
2008: जम्मू एवं कश्मीर सरकार के ज़मीन श्री
अमरनाथजी श्राइन बोर्ड को देने के फैसले के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए, सुरक्षा बलों की फायरिंग में कई लोग मारे गए
और महीनों तक कई स्थानों पर 'बंद' रहे।
2010: बारामुला के एक गाँव के तीन युवकों को सेना
के "फर्जी मुठभेड़" में मारने के बाद मचे घमासान में प्रदर्शकारियों पर
सुरक्षा बलों की फायरिंग में सौ से ज्यादा लोग मारे गए और कई घायल हो गए। घाटी कई बंद, कर्फ्यू और आवाजाही पर कड़े प्रतिबन्ध की गवाह बनी।
2016: उग्रवादी नेता बुरहान वाणी के सुरक्षा बलों
के हाथों मारे जाने के बाद व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए और लगभग दो महीने तक कर्फ्यू
लगा रहा, मोबाइल फ़ोन
कनेक्टिविटी काट दी गयी। लगभग सौ लोग मारे गए और हज़ारों लोग, भीड़ नियंत्रण
उपायों जिनमें पैलेट शामिल थे, से घायल हुए।
कानून: मीडिया कड़े प्रतिबंधों के तहत और
सैन्यकर्मियों को असीमित ताकत देने वाले आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावर्स) एक्ट तथा
राज्य की सुरक्षा अथवा क़ानून व्यवस्था बनाए रखने में बाधा डालने की आशंका से
पत्रकारों समेत लोगों को बिना मुक़दमे के हिरासत में लेने के कश्मीर के पब्लिक
सेफ्टी एक्ट 1978 के तहत गिरफ्तारी की तलवार के साए में काम कर रहा है। वर्ष 2008 में बनी राष्ट्रीय जांच एजंसी
(एनआईए) जैसी आतंकवाद विरोधी एजंसियों को पत्रकारों समेत नागरिकों को बुलाने, हिरासत में लेने और तहकीकात करने के असीमित अधिकार
हैं।
इन्टरनेट बैन का सामना
इन्टरनेट पर बैन ने पत्रकारों के कार्य को
बाधित किया है। पत्रकारों को
इन्टरनेट की अनुपलब्धता की सूरत से निबटने के लिए अविश्वसनीय तरीकों का इस्तेमाल
करने पर मजबूर किया है। पर यह थकाने वाला और लगातार निगरानी के खतरे की आशंका पैदा करते हैं।
- शुरूआती
दिनों में, कुछ
पत्रकारों ने पेन ड्राइव में ख़बरें भेजीं।
- कुछ
पत्रकारों ने उन स्थानों पर जाकर ख़बरें फाइल करना शुरू किया जहाँ इन्टरनेट
हो।
- कुछ ने
महसूस किया कि वह कहीं और अपने साथियों या रिश्तेदारों से भी मेल खुलवा नहीं
सकते क्योंकि उन्होंने अपने डिवाईस पर दो चरणों में पुष्टि की व्यवस्था की
गयी है। ओटीपी
पूछे जाने पर उनके मोबाइल फ़ोन पर आता, जो मामला बिगाड़ देता था।
कश्मीर
में इन्टरनेट शटडाउन
कश्मीर
के लिए इन्टरनेट शटडाउन कोई अनोखी बात नहीं है और 2012 से 180 बार इसका अनुभव कर चुका
है। 4
अगस्त 2019 को मोबाइल और ब्रॉडबैंड इन्टरनेट सेवाओं पर प्रतिबन्ध इस साल के सात
महीनों में 55वां था।
पर यह
पहली बार है कि मोबाइल, ब्रॉडबैंड इन्टरनेट सेवाएं, लैंडलाइन और केबल टीवी सब एक साथ बंद किये गए, नतीजतन कश्मीर के अन्दर और बाहर संचार के हर प्रकार को काट
दिया गया।
2012
से इन्टरनेट शटडाउन का हिसाब रख रहे सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेण्टर (एसएफएलसी) की एक
रिपोर्ट के अनुसार मोबाइल इन्टरनेट सेवाओं पर सबसे बड़ी अवधि का बैन 2016 में 08
जुलाई 2016 को बुरहान वाणी के मारे जाने के बाद विरोध प्रदर्शनों के समय रहा. तब
मोबाइल इन्टरनेट सेवाएं 133 दिन बंद रहीं। एसएफएलसी
ट्रैकर के अनुसार, "पोस्टपेड
नम्बरों पर इन्टरनेट सेवाएं 19 नवम्बर 2016 को बहाल की गयीं, लेकिन प्रीपेड उपयोगकर्ताओं की मोबाइल सेवाएं जनवरी 2017
में ही बहाल की जा सकीं, अर्थात उन्होंने लगभग छह महीने इन्टरनेट
शटडाउन का सामना किया।
संचार
सेवाओं पर ख़ास बंद संबंधी कोई आधिकारिक आदेश नहीं है और यदि है भी तो इसे
सार्वजनिक नहीं किया गया। सार्वजनिक
जगहों पर चार लोगों से अधिक के जमा होने पर प्रतिबन्ध लगाने वाली अपराध प्रक्रिया
संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 लागू होने के बाद प्रभावी, डिजिटल और ऑनलाइन संचार के लिए इस प्रावधान के विस्तार की
आलोचना भी की गई है और कानूनी रूप से इसे चुनौती भी दी गयी है पर कोई लाभ नहीं
हुआ। 2015
में गुजरात उच्च न्यायालय ने गौरव सुरेशभाई व्यास बनाम गुजरात राज्य के मामले में
सीआरपीसी 144 के इस्तेमाल को बरकरार रखा। सूचना
प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69ए वेब साईट को ब्लॉक करने देती है पर सभी तरह के
इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन पर सम्पूर्ण बैन इंडियन टेलीग्राफ एक्ट में अगस्त 2017
संशोधन के ज़रिये प्रभावी किया जा सका।
लेकिन
संचारबंदी के लागू करने से सम्बंधित प्रक्रिया में को पारदर्शिता नहीं है, किसी समिति की समीक्षा प्रक्रिया की तो बात ही छोड़ दीजिये। इसीलिए अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद संचारबंदी के लिए
प्रशासनिक कारण शुरूआती "सतर्कता उपायों' से
लेकर क़ानून और व्यवस्था बनाए रखने से लेकर अब 'आतंकी
गतिविधि' और 'आतंकियों
के बीच संचार रोकना' हो गए हैं।
यदि
कोई कनेक्टिविटी है भी तो जासूसी और निगरानी का स्तर आश्चर्यजनक है। सोशल मीडिया नेटवर्क नियमित रूप से खुफिया निगरानी में हैं
और यह छिपाने की कोई कोशिश तक नहीं की जाती। जिला
दंडाधिकारी आम तौर पर व्हाट्सएप समूहों के प्रशासकों को निर्देश जारी करते हैं कि
वह अपने समूहों और सदस्यों का विवरण जमा करवाएं।
23
अगस्त को कठुआ के जिला दंडाधिकारी ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर प्रशासकों से कहा
कि वह केवल 21 अक्टूबर 2019 तक 'केवल
एडमिन ही सन्देश भेज सकते हैं' स्टेटस
लागू करें। एडमिन
को यह भी निर्देश दिया गया है कि संवेदनशील या कानून व्यवस्था की समस्या पैदा करने
वाली किसी भी पोस्ट या अफवाह' की
जानकारी निकटस्थ पुलिस चौकी को दें।
अपडेट: 17 अगस्त को जम्मू के पांच जिलों - जम्मू, साम्बा, कठुआ, उधमपुर और रीसी - में 2जी सेवाएं बहाल की गयीं पर पूँछ, राजौरी, किश्तवर, डोडा और रम्बा के सीमाई के क्षेत्रों में निलंबित रहीं। लदाख में, चूंकि
यह प्रीपेड और पोस्टपेड कनेक्टिविटी के सन्दर्भ में डिजिटल इंडिया की परिधि में है, क्षेत्र के कुछ इलाकों में लैंडलाइन बहाल कए गए। कारगिल में इन्टरनेट सेवायें अनुच्छेद 370 हटाने को लेकर
हुए विरोधों के बाद 9 अगस्त, 2019
को निलंबित की गयीं।
कश्मीर
घाटी में, 17 टेलीफोन एक्सचेंज के तहर लैंडलाइन
और 35 पुलिस थाना क्षेत्रों के तहत 2जी सेवाएं बहाल की गयीं। प्रशासन ने दावा किया कि लैंडलाइन सेवाएं मध्य कश्मीर के
बडगाम, सोनामार्ग और मनिगम तथा उत्तरी
कश्मीर के गुरेज़, तंगमार्ग, उरी, करण, करनाह
और तंगधार व दक्षिणी कश्मीर के काजीगुंड और पहलगाम में बहाल की गयीं।
हालांकि
यह सरकारी आंकड़े हैं। ज़मीनी
हकीकत एकदम जुदा तस्वीर पेश करती है और लोग कहते हैं कि लैंडलाइन या तो अभी बहाल
किये जाने है या फिर कनेक्टिविटी कमज़ोर है, लाइन
होल्डिंग अनियमित और स्पष्टता बेहद कम।
प्रकाशन
और वेबसाइट बंद होने से रोज़गार हानि, वेतन
कटौती और फ्रीलान्सर्स के लिए समस्या
कश्मीर
में मीडिया जो हालांकि जीवंत, विविधिता
लिए है और हाल के समय में यहाँ कई अखबार, पत्रिकाएं
और डिजिटल प्लेटफार्म शुरू हुए हैं, पर
तीन दशकों के तनावपूर्ण माहौल में और आर्थिक व्यवहार्यता के अभाव में संघर्ष करता
रहा है। हालिया
संकट ने इस विकट स्थिति को और विकट किया है।
सरकारी
आंकड़ों के अनुसार 414 सूचीबद्ध अखबार हैं जिनमें से 242 जम्मू में हैं और 172
कश्मीर में। 172
में से 60 उर्दू हैं और 40 अंग्रेजी। 100
दैनिक हैं और बाकी पाक्षिक और साप्ताहिक. जम्मू कश्मीर का सूचना एवं जन संपर्क
विभाग (डीआईपीआर) के पास सालाना 40 करोड़ के विज्ञापन बजट का नियंत्रण है।
केंद्रीय
डायरेक्टरेट ऑफ़ एडवरटाइजिंग एंड विजुअल पब्लिसिटी (डीएवीपी) से विज्ञापन 2010 से
आने बंद हैं और अखबार डीआईपीआर पर बुरी तरह निर्भर हैं। जब डीआईपीआर ने फरवरी में दो प्रमुख अंग्रेजी दैनिकों के
विज्ञापन निलंबित किये तो मीडिया बिरादरी ने अपना आक्रोश कोरे मुखपृष्ठ छाप कर
व्यक्त किया।
मीडिया
जो कई स्वतंत्र अख़बारों को पहले से सरकारी विज्ञापनों के प्रतिबन्ध के कारण
वित्तीय रूप से संकट में था, अब
लॉकडाउन के कारण निजी कारोबारियों से राजस्व न आने के कारण और संकट और गहरा गया
है।
कई
अख़बारों को लगभग 75 फ़ीसदी स्टाफ निकालना पड़ा है। वरिष्ठ
पदों पर बैठे लोगों को वेतन में 30
फ़ीसदी कटौती झेलनी पड़ रही है।
भले
ही कुछ राष्ट्रीय अखबार और पत्रिकाओं के प्रबंधन कश्मीर से योगदान करने वालों के
कम हुए योगदान को समझ सकते हैं, पर डर
है कि यह स्थिति ज्यादा समय नहीं चल सकती और उन लोगों के अनुबंध टूट सकते हैं।
एक पत्रकार
ने कहा, "आज 3
सितम्बर है और मुझे वेतन नहीं मिला। पता
नहीं मिलेगा भी या नहीं।"
कई
पत्रकार स्वतंत्र पत्रकार यानी फ्रीलांसर हैं जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय
मीडिया की वेबसाइट और प्रकाशनों के लिए लिखते हैं। एक ने
बताया, "आखिरकार
20 अगस्त को मैंने अपना मेल देख सका और मैंने देखा कि मुझे इस दौरान 12 असाइनमेंट
मिले थे। मैं
एक का भी जवाब नहीं दे पाया।"
महिला
पत्रकार बैरिकेड से जूझ रही हैं
सड़कों
पर बढ़ी सैन्य उपस्थिति और शटडाउन ने कश्मीर में महिलाओं को असंख्य तरीकों से
प्रभावित किया है। महिला
पत्रकारों के लिए जानकारी जुटाना और अपनी ख़बरें व तस्वीरें प्रकाशनों को भिजवाना
एक बड़ी चुनौती है। वास्तव
में, मीडिया फैसिलिटेशन सेण्टर बनने के
बाद भी ख़बरें भेजने में आ रही दिक्कतों के कारण उन्हें प्रशासन से एक कंप्यूटर
अपने इस्तेमाल के लिए माँगना पड़ा।
घाटी
में कार्य करने की कोशिश करती महिला पत्रकार आवाजाही पर कड़े प्रतिबंधों और
सैन्यीकृत सड़कों से निबटने में बड़ी चुनौतियों का सामना कर रही हैं। अधिकांश के पास निजी परिवहन साधन नहीं है, जिससे उनका कहीं आना-जाना और मुश्किल साबित हो रहा है। सुरक्षित रहने के लिए परिवारों का दबाव भी उन्हें खुद को
जोखिम की संभावनाओं वाली परिस्थितियों में डालने से रोक रहा है। महिला छाया पत्रकार, अनुच्छेद
370 हटाये जाने से हुए प्रलयकारी परिवर्तन के बाद की घटनाओं का दर्शनीय रिकॉर्ड
रचने के लिए अपने श्रेष्ठ प्रयास कर रही हैं। एक ने
हमें बताया कि कैसे सुरक्षा बल अभूतपूर्व सैन्य तैनाती और सैन्य बलों के खिलाफ
आन्दोलनों के दर्शनीय रिकॉर्ड पर रोक लगा रहे हैं। पुरुष
और महिला, दोनों छाया पत्रकारों को नियमित रूप
से रोका-टोका जाता है और विरोध प्रदर्शनों, खासकर
पत्थरबाज़ी की फुटेज डिलीट करने पर मजबूर किया जाता है।
दूसरा
प्रतिबंधित क्षेत्र अस्पताल थे जहाँ पेलेट चोटों और सुरक्षा बलों की पिटाई के
पीड़ितों का उपचार चल रहा था। महिला
पत्रकारों ने पीड़ितों के रिश्तेदार बनकर भी वहां जाने की कोशिश की। वास्तव में महिला पत्रकार उन कश्मीरी महिलाओं से नाता जोड़ने
में सफल रही हैं, जो संचारबंदी, सैन्यीकरण और आवाजाही पर प्रतिबंधों के कारण बहुत मुश्किलों
का सामना कर रही हैं। प्रसूताओं, बीमार महिलाओं और अपने पारिवारिक सदस्यों का उपचार करा रही
महिलाओं को चिकित्सा सुविधाएँ हासिल करने में बहुत परेशानी का सामना करना पड़ रहा
है, सरकार भले दावा करे कि दवाएं मिल रही
हैं और अस्पताल आम जैसे चलते हैं, चल
रहे हैं।
महिलाओं
को परिजनों की गिरफ्तारियों के कारण भी भुगतना पड़ रहा है, सरकार ने गिरफ्तारियों के आंकड़े जारी नहीं किये हैं। युवकों (कई नाबालिग लड़के भी) की माँ और बहनें घंटों पुलिस
थानों के बाहर इंतज़ार करती हैं अपने बेटों, भाइयों
या पिता से मिलने, ढूँढने के लिए। हजारों को प्रदेश के बाहर भेज दिया गया है, जिससे उन्हें लम्बी और खर्चीली यात्राएँ कर आगरा, बरेली, जोधपुर, रोहतक और झज्जर जेलों में जाना पड़ रहा है, अपनों से मिलने के लिए। जम्मू
और कश्मीर ने दुनिया में सर्वाधिक संख्या में जबरन गायब किये जाने के मामले देखे
हैं और यह आंकड़े लगभग 4000 (सरकारी) से लेकर लगभग 8000 (सिविल सोसाइटी) तक हैं, ऐसे में उनकी आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं तथा महिलाएं अपनी
पूरी ताकत और क्षमता से अपनों को ढूँढने के लिए जो कर सकती हैं, कर रही हैं। उनकी
कहानियां अभी बतायी जानी बाकी हैं।
अनकही
कहानियां
स्थानीय
मीडिया प्रताड़ना से बचने के लिए अथवा बैन किये जाने के डर से जोखिम नहीं ले रहा, इस तरह लगभग पूरा स्टाफ बेकार हो गया है। इसीलिए काफी सेल्फ सेंसरशिप हो रही है। इसी तरह, खुद
को बचाने के लिए अधिकांश अखबार एक जैसी ख़बरें कवर कर रहे हैं। इस समय "एक्स्क्लूसिव" से ज्यादा प्राथमिकता बचके
रहने को दी जा रही है। कई
स्थानीय पत्रकारों ने बताया कि उन्हें उनके कार्यालयों से ऐसे सन्देश मिले हैं कि
ऐसी ख़बरें न दें जो उनके लिए गिरफ्तारी या शारीरिक हमलों की धमकियों का जोखिम पैदा
करती हों। इन
खुदकी लागू की गयी पाबंदियों के कारण कुछ महत्वपूर्ण ख़बरें स्थानीय मीडिया कवर ही
नहीं कर रहा।
· युवाओं
को हिरासत में लिए जाने और अत्याचार करने की ख़बरें, खासकर
जिलों से। हमने
लोगों से सुना कि पुलिस रात में गाँवों में घुसती है और 12 साल की उम्र के बच्चों
से लेकर युवाओं को उठा रही है। उन्हें
थोड़े समय के लिए हिरासत में रखा जा रहा है और मारने-पीटने के बाद छोड़ दिया जाता
है. पुलिस उन्हें और उनके परिवारों को अगले दिन थाने बुलाती है या उन पर पीएसए केस
लगाकर उन्हें राज्य से बाहर आगरा, बरेली, जोधपुर, रोहतक
और झज्जर जेलों में भेजा जा रहा है। जिला
आयुक्त के कार्यालय में सूचियाँ लगती हैं कि हिरासत में लिए गए लोगों को कहाँ भेजा
गया है. पुलिस थानों और डीसी कार्यालयों में शाम को औरतों की भीड़ जमा हो जाती है
अपने बेटों को ढूँढने के लिए।
· बंदी
के शुरूआती दिनों में स्वास्थ्य सेवा तक लोगों की पहुँच बाधित होने से भारत सरकार
को असुविधाजनक स्थिति का सामना करना पड़ा था। एक
महीने बाद स्थिति में शायद ही कोई सुधार हुआ हो, बस
इतना ही फर्क आया है कि सरकारी प्रवक्ता, प्रधान
सचिव रोहित कंसल सरकारी अस्पतालों में सर्जरी के आंकड़े देते हैं। पर जैसे ही पत्रकार ज्यादा विवरण मांगने (उदाहरण के तौर पर
जैसे पैलेट घावों के बारे में) लगते हैं, उनके
सवालों को अनसुना कर दिया जाता है।
· पैलेट
चोटों के स्पष्ट आंकड़े नहीं हैं। डॉक्टर
और अन्य हॉस्पिटल स्टाफ के मीडिया से बात करने पर रोक है। एक अस्पताल में पैलेट घायलों को रखने वाला वार्ड बदला जा
चुका है और अब घायलों तक पहुंचा नहीं जा सकता। परिजन
मीडिया से बात करने से डरते हैं कि उनके बच्चों पर केस न लगाए जाएँ। पुलिस जांच से बचने के लिए पैलेट चोटों के शिकार निजी
अस्पतालों में जा रहे हैं। सरकारी
अस्पतालों में, नाम और संपर्क विवरण दर्ज किया जाता
है जिससे पुलिस के लिए उन्हें ढूंढना और उन पर केस दर्ज करना, उन्हें पत्थरबाज़ या प्रदर्शनकारी का नाम देना आसान हो जाता
है।
· पत्रकारों
के अधिकारों का उल्लंघन अपने आप में एक अनकही कहानी है क्योंकि पत्रकार खुद खबर
बनना पसंद नहीं करते इसलिए उनकी प्रताड़ना और दबाव खबर नहीं बन रहे हैं।
निष्कर्ष
अभूतपूर्व
संचारबंदी ने नागरिकों की ज़िन्दगी में तबाही ला दी है, परिवारों के संपर्क काट दिए गए हैं जिससे चिकित्सकीय सहायता
की ज़रुरत वाले मरीजों का जीवन खतरे में पड़ गया है, छात्रों
अथवा युवाओं को प्रवेश के आवेदनों की जानकारी अथवा रोज़गार के अवसरों की जानकारी से
वंचित किया गया है और कुछ बेहद अमानवीय प्रकरणों में अपनों की मौत की सूचना पाने
से भी वंचित किया गया है।
कश्मीर
में मीडिया के लिए वर्तमान संकट चल रहे संघर्ष, सैन्यीकरण
और बुनियादी मानवाधिकारों व लोकतान्त्रिक स्वतंत्रताओं के क्षरण से दोबाला हो गया
है। संचारबंदी
और इन्टरनेट पर बैन ने सभी नागरिकों के लिए अकल्पनीय और अमानवीय समस्याएं पैदा की
ही हैं मीडिया के लिए भी इसने जैसे मौत का फरमान ही सुना दिया है। यह बेहद ज़रूरी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति
कटिबद्धता दर्शाने के लिए निम्नलिखित कदम तुरंत उठाये जाएँ। इससे कम केवल कोरी घोषणाओं व दावों के अलावा कुछ नहीं होगा।
1.
तुरंत इन्टरनेट शटडाउन हटायें और हाई स्पीड इन्टरनेट कनेक्टिविटी लागू करें।
2.
सभी लैंडलाइन और मोबाइल टेलीफोन सेवाएं बहाल करें पत्रकारों और मीडिया घरानों को
प्राथमिकता के साथ।
3.
पत्रकारों की आवाजाही पर प्रतिबन्ध हटायें ताकि वह ज़मीनी रिपोर्टिंग और तथ्यात्मक
ख़बरों की पुष्टि कर सकें।
4.
पत्रकारों की निगरानी और जासूसी बंद करें और पुलिस थानों में बुलाने, हिरासत में लिए जाने या गिरफ्तारी की धमकियों, झूठे मामले दर्ज करने की हरकतें बंद करें।
5.
सभी स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया
के लिए एक समान स्थिति पैदा करें और सभी को अधिकारिक स्रोतों व जानकारी तक समान
पहुँच सुनिशिचित करें।
6.
सरकारी विज्ञापनों के वितरण के लिए पारदर्शी और जवाबदेह व्यवस्था तैयार करें।
7.
पत्रकारों की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करने वाला माहौल बनाएं, ऐसा जीवंत और व्यवहार्य मीडिया जो पत्रकारों को समुचित
पारिश्रमिक और अन्य सुरक्षा दे सके जिसे वह अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के
अधिकार का पूर्ण उपयोग कर सकें।
आवाजें
"मैं
रोज़ अखबार निकाल रहा हूँ पर अपने पाठकों के प्रति अपराध बोध होता है। मुझे लगता है कि मैं उनके साथ छल कर रहा हूँ क्योंकि मैं
सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं कर पा रहा। मेरे
रिपोर्टर अपने स्रोतों से या कार्यालय से संपर्क नहीं कर पा रहे।"
"मैंने
प्रकाशन न करने का फैसला किया है। मैं
पम्फलेट नहीं निकाल सकता।"
"इस
संघर्ष के केंद्र में संचार है। मीडिया
पिछले दस सालों से लगातार डीलेजिटीमाईजड किया जा रहा है और अब यह बंदी।"
"हमारे
पास कई जिला रिपोर्टर हैं पर जिलों से हमारे पास की ख़बरें नहीं उनके पास हमसे
संपर्क करने, ख़बरें भेजने के साधन ही नहीं हैं। यह शून्य समाचार स्थल बन चुका है।"
"मीडिया
सेण्टर में जब अधिकारी जवाब देते हैं, हंसी
के फव्वारे छूटते हैं क्योंकि उनके जवाब ही इतने हास्यास्पद होते हैं। गिरफ्तारियों की इसंख्या के बारे में पूछने पर उन्होंने
बताया कि यह ऑपरेशनल डिटेल्स हैं और वह साझा नहीं कर सकते।"
"बड़े
पैमाने पर सेल्फ सेंसरशिप हो रही है।"
"कश्मीर
में लोकल मीडिया पूरी तरह से भारतीय मीडिया और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के बीच दब
गया है। क्या
हम अपनी ख़बरें दे सकते हैं? क्या हमारे अपने नैरेटिव पर कोई
अधिकार है?"
"पता
नहीं सरकार का बनाया मीडिया सेण्टर वरदान है या श्राप। हम सभी को कंप्यूटर के लिए चार से पांच घंटे कतार में खड़े
रहना पड़ता है और इन्टरनेट स्पीड मुश्किल से 2केबीपीएस है। वह हमारे पीछे खड़े रहते हैं देखने के लिए कि कौन क्या खबर
दे रहा है। हर
कोई निगरानी में है।"
"अधिकारियों
तक पहुँच नहीं है। हमारी
खबर पूरी है पर यदि अधिकारिक पुष्टि नहीं है तो हम इस्तेमाल कैसे करें। खबर जब तक अप्रासंगिक हो जाए, उसे
रोकने का यह दूसरा तरीका है."
"मैं
पहले दिन से अस्पताल जा रही थी। मैंने
बहुत भयावह दृश्य देखे। मैं
दो बार अस्पताल में बेहोंश हो गयी! पैलेट चोटों से घायल एक बच्चे के अभिभावक बुरी
तरह रो रहे थे, यह डराने वाला और दुखी करने वाला था। उस दिन मैं लिख भी नहीं पायी, कोई
खबर नहीं दे पायी।"
"आधिकारिक रूप से इनकार किया जा रहा है, पर हर
कोई जानता है कि उन्होंने जम्मू कश्मीर पुलिस से बंदूकें छीन ली हैं। बहुत अटकलें चल रही हैं। क्या
उन्हें आशंका थी कि लोग बगावत करेंगे और पुलिस से बंदूकें छीन लेंगे? या यह कि लोग बगावत करेंगे और पुलिस उनके साथ हो जायेगी?"
"स्थानीय
पत्रकार थम से गए हैं। उन्होंने
नजरिया प्रबंधन के लिए बाहर से पत्रकार लाये हैं। मैं
20-25 साल से काम कर रहा हूँ। मुझे
बुरा लगता है जब दिल्ली ब्यूरो से मेरे साथी यहाँ ख़बरें करने आये। वैसे कोई समस्या नहीं है। वह
मेरे साथी हैं और मैंने उनकी मदद भी की। पर
मैं अपने आप से पूछता रहा, "क्यों?" मैं
क्यों नहीं खबर दे सकता? मुझे लग रहा था कि मुझ पर विश्वास
नहीं किया जा रहा।"
"हमारे
मालिकों को तो अखबार छापना ही है। उन्हें
खुदको बचाना है। पर
पृष्ठसंख्या कम हो गयी है और यदि पाबंदियां जारी रहीं तो उनके पास दो विकल्प हैं:
पहले महीने वह उदार हो सकते हैं और कह सकते हैं कि आपको भी घर चलाना है। वह हमें वेतन भी दे सकते हैं पर दूसरे महीने से वह इतने
दरियादिल नहीं रहे तो फिर?"
"मैंने
कभी ऐसा सम्पूर्ण बंद नहीं देखा। मैं
यहाँ सालों से संघर्ष कवर कर रहा हूँ। कर्फ्यू
के शुरूआती दिनों में मैंने बाहर निकलने की कोशिश की पर सुरक्षा बल मेरा पहचान
पत्र देखने तक के लिए तैयार नहीं होते थे। मैं
एक अंतर्राष्ट्रीय मीडिया हाउस के लिए काम करता हूँ और एक ट्रेवल एजेंट के ज़रिये
पेन ड्राइव में एक रिपोर्ट भेजने की कोशिश की। पर जब
उन्हें पता चल गया तो मुझे रोक दिया गया."
"नब्बे
के दशक में उग्रवाद के चरम पर होए हुए इन्टरनेट और मोबाइल नहीं थे पर लैंडलाइन, फैक्स काम करते थे। कहीं
आना-जाना समस्या नहीं थी। पत्रकार
बेरोकटोक आ-जा सकते थे। कोई प्रताड़ना
नहीं थी। कारगिल
युद्ध के दौरान भी, हमारे पास पानी नहीं होता था पर फ़ोन
काम करते थे।"
"हम
जो अपनी आँखों से देखते हैं, वह भी
लिख नहीं सकते। हमें
सूचनाओं को अस्पष्ट रखना होता है।"
"आगे
चलकर, सरकार इससे भी बुरा कर सकती है। वह इस संचारबंदी में सफल रही है। अब जब वह एक जगह सफल हो चुके हैं, हर कहीं करेंगे।"
"हम
जानते हैं कि सरकार के मीडिया विभागों में कार्यरत कुछ लोगों को लैंडलाइन और
बीएसएनएल फ़ोन कनेक्शन दिए गए हैं। पर
उन्हें वचन देना पड़ा है कि वह इनका किसी भी तरह से 'दुरूपयोग' नहीं करेंगे।"
"मैं
हवा कदल इलाके में था और पुलिस ने हमारे वीडियो डिलीट करने का आदेश दिया। मैंने तुरंत मेमोरी
कार्ड बदल दिया और अपनी फाइल बचा ली।"
"मीडिया
ज़्यादा फ़ोन और ज्यादा कंप्यूटर मांग रहा है। यह एक
तरह से विशेषाधिकार की तरह है जो अन्य सभी नागरिकों को मना किया गया है।"
"आज
जो हम देख रहे हैं वह सबको पूरी तरह से अशक्त बना देना है। मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ, कार्यकर्ता, पत्रकार।"
(नोट:
जिन लोगों से हमने बात की सभी लोगों की पहचान उनके कहने अनुसार और उनकी सुरक्षा के
लिहाज़ से हमने जाहिर नहीं की।)
(नोट:
त्तस्वीरें लेखिकाओं ने ही खींची हैं)
(नोट : रिपोर्ट पत्रकारों लक्ष्मी मूर्ति और गीता शेषु ने लिखी है जो नेटवर्क ऑफ वीमेन इन मीडिया, इंडिया की सदस्य हैं और फ्री स्पीच कलेक्टिव की संपादक हैं। दोनों 30 अगस्त से 3 सितंबर तक कश्मीर में थीं और चार सितंबर यह रिपोर्ट जारी की गई। दोनों संस्थाएं नॉन फंडेड और वालंटियर ड्रिवन हैं।)
मूल अग्रेज़ी रिपोर्ट यहाँ पढ़ सकते हैं :
https://freespeechcollective.in/2019/09/04/news-behind-the-barbed-wire-kashmirs-information-blockade/
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