Skip to main content

कंटीली तारों से घायल खबर : कश्मीर की सूचनाबंदी - 6 (अंतिम)


एनडब्ल्यूएमआई-एफएससी रिपोर्ट
अनकही कहानियां
स्थानीय मीडिया प्रताड़ना से बचने के लिए अथवा बैन किये जाने के डर से जोखिम नहीं ले रहा, इस तरह लगभग पूरा स्टाफ बेकार हो गया है इसीलिए काफी सेल्फ सेंसरशिप हो रही है इसी तरह, खुद को बचाने के लिए अधिकांश अखबार एक जैसी ख़बरें कवर कर रहे हैं इस समय "एक्स्क्लूसिव" से ज्यादा प्राथमिकता बचके रहने को दी जा रही है कई स्थानीय पत्रकारों ने बताया कि उन्हें उनके कार्यालयों से ऐसे सन्देश मिले हैं कि ऐसी ख़बरें न दें जो उनके लिए गिरफ्तारी या शारीरिक हमलों की धमकियों का जोखिम पैदा करती हों इन खुदकी लागू की गयी पाबंदियों के कारण कुछ महत्वपूर्ण ख़बरें स्थानीय मीडिया कवर ही नहीं कर रहा
·         युवाओं को हिरासत में लिए जाने और अत्याचार करने की ख़बरें, खासकर जिलों से हमने लोगों से सुना कि पुलिस रात में गाँवों में घुसती है और 12 साल की उम्र के बच्चों से लेकर युवाओं को उठा रही है उन्हें थोड़े समय के लिए हिरासत में रखा जा रहा है और मारने-पीटने के बाद छोड़ दिया जाता है. पुलिस उन्हें और उनके परिवारों को अगले दिन थाने बुलाती है या उन पर पीएसए केस लगाकर उन्हें राज्य से बाहर आगरा, बरेली, जोधपुर, रोहतक और झज्जर जेलों में भेजा जा रहा है जिला आयुक्त के कार्यालय में सूचियाँ लगती हैं कि हिरासत में लिए गए लोगों को कहाँ भेजा गया है. पुलिस थानों और डीसी कार्यालयों में शाम को औरतों की भीड़ जमा हो जाती है अपने बेटों को ढूँढने के लिए
·         बंदी के शुरूआती दिनों में स्वास्थ्य सेवा तक लोगों की पहुँच बाधित होने से भारत सरकार को असुविधाजनक स्थिति का सामना करना पड़ा था एक महीने बाद स्थिति में शायद ही कोई सुधार हुआ हो, बस इतना ही फर्क आया है कि सरकारी प्रवक्ता, प्रधान सचिव रोहित कंसल सरकारी अस्पतालों में सर्जरी के आंकड़े देते हैं पर जैसे ही पत्रकार ज्यादा विवरण मांगने (उदाहरण के तौर पर जैसे पैलेट घावों के बारे में) लगते हैं, उनके सवालों को अनसुना कर दिया जाता है
·         पैलेट चोटों के स्पष्ट आंकड़े नहीं हैं डॉक्टर और अन्य हॉस्पिटल स्टाफ के मीडिया से बात करने पर रोक है एक अस्पताल में पैलेट घायलों को रखने वाला वार्ड बदला जा चुका है और अब घायलों तक पहुंचा नहीं जा सकता परिजन मीडिया से बात करने से डरते हैं कि उनके बच्चों पर केस न लगाए जाएँ पुलिस जांच से बचने के लिए पैलेट चोटों के शिकार निजी अस्पतालों में जा रहे हैं सरकारी अस्पतालों में, नाम और संपर्क विवरण दर्ज किया जाता है जिससे पुलिस के लिए उन्हें ढूंढना और उन पर केस दर्ज करना, उन्हें पत्थरबाज़ या प्रदर्शनकारी का नाम देना आसान हो जाता है
·         पत्रकारों के अधिकारों का उल्लंघन अपने आप में एक अनकही कहानी है क्योंकि पत्रकार खुद खबर बनना पसंद नहीं करते इसलिए उनकी प्रताड़ना और दबाव खबर नहीं बन रहे हैं
निष्कर्ष                                                   
अभूतपूर्व संचारबंदी ने नागरिकों की ज़िन्दगी में तबाही ला दी है, परिवारों के संपर्क काट दिए गए हैं जिससे चिकित्सकीय सहायता की ज़रुरत वाले मरीजों का जीवन खतरे में पड़ गया है, छात्रों अथवा युवाओं को प्रवेश के आवेदनों की जानकारी अथवा रोज़गार के अवसरों की जानकारी से वंचित किया गया है और कुछ बेहद अमानवीय प्रकरणों में अपनों की मौत की सूचना पाने से भी वंचित किया गया है
कश्मीर में मीडिया के लिए वर्तमान संकट चल रहे संघर्ष, सैन्यीकरण और बुनियादी मानवाधिकारों व लोकतान्त्रिक स्वतंत्रताओं के क्षरण से दोबाला हो गया है संचारबंदी और इन्टरनेट पर बैन ने सभी नागरिकों के लिए अकल्पनीय और अमानवीय समस्याएं पैदा की ही हैं मीडिया के लिए भी इसने जैसे मौत का फरमान ही सुना दिया है यह बेहद ज़रूरी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति कटिबद्धता दर्शाने के लिए निम्नलिखित कदम तुरंत उठाये जाएँ इससे कम केवल कोरी घोषणाओं व दावों के अलावा कुछ नहीं होगा
1. तुरंत इन्टरनेट शटडाउन हटायें और हाई स्पीड इन्टरनेट कनेक्टिविटी लागू करें
2. सभी लैंडलाइन और मोबाइल टेलीफोन सेवाएं बहाल करें पत्रकारों और मीडिया घरानों को प्राथमिकता के साथ
3. पत्रकारों की आवाजाही पर प्रतिबन्ध हटायें ताकि वह ज़मीनी रिपोर्टिंग और तथ्यात्मक ख़बरों की पुष्टि कर सकें
4. पत्रकारों की निगरानी और जासूसी बंद करें और पुलिस थानों में बुलाने, हिरासत में लिए जाने या गिरफ्तारी की धमकियों, झूठे मामले दर्ज करने की हरकतें बंद करें
5. सभी स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के लिए एक समान स्थिति पैदा करें और सभी को अधिकारिक स्रोतों व जानकारी तक समान पहुँच सुनिशिचित करें
6. सरकारी विज्ञापनों के वितरण के लिए पारदर्शी और जवाबदेह व्यवस्था तैयार करें
7. पत्रकारों की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करने वाला माहौल बनाएं, ऐसा जीवंत और व्यवहार्य मीडिया जो पत्रकारों को समुचित पारिश्रमिक और अन्य सुरक्षा दे सके जिसे वह अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का पूर्ण उपयोग कर सकें
आवाजें
"मैं रोज़ अखबार निकाल रहा हूँ पर अपने पाठकों के प्रति अपराध बोध होता है मुझे लगता है कि मैं उनके साथ छल कर रहा हूँ क्योंकि मैं सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं कर पा रहा मेरे रिपोर्टर अपने स्रोतों से या कार्यालय से संपर्क नहीं कर पा रहे"
"मैंने प्रकाशन न करने का फैसला किया है मैं पम्फलेट नहीं निकाल सकता"
"इस संघर्ष के केंद्र में संचार है मीडिया पिछले दस सालों से लगातार डीलेजिटीमाईजड किया जा रहा है और अब यह बंदी"
"हमारे पास कई जिला रिपोर्टर हैं पर जिलों से हमारे पास की ख़बरें नहीं उनके पास हमसे संपर्क करने, ख़बरें भेजने के साधन ही नहीं हैं यह शून्य समाचार स्थल बन चुका है"
"मीडिया सेण्टर में जब अधिकारी जवाब देते हैं, हंसी के फव्वारे छूटते हैं क्योंकि उनके जवाब ही इतने हास्यास्पद होते हैं गिरफ्तारियों की इसंख्या के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि यह ऑपरेशनल डिटेल्स हैं और वह साझा नहीं कर सकते"
"बड़े पैमाने पर सेल्फ सेंसरशिप हो रही है"
कश्मीर में लोकल मीडिया पूरी तरह से भारतीय मीडिया और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के बीच दब गया है क्या हम अपनी ख़बरें दे सकते हैं? क्या हमारे अपने नैरेटिव पर कोई अधिकार है?"
"पता नहीं सरकार का बनाया मीडिया सेण्टर वरदान है या श्राप हम सभी को कंप्यूटर के लिए चार से पांच घंटे कतार में खड़े रहना पड़ता है और इन्टरनेट स्पीड मुश्किल से 2केबीपीएस है वह हमारे पीछे खड़े रहते हैं देखने के लिए कि कौन क्या खबर दे रहा है हर कोई निगरानी में है।"
"अधिकारियों तक पहुँच नहीं है हमारी खबर पूरी है पर यदि अधिकारिक पुष्टि नहीं है तो हम इस्तेमाल कैसे करें खबर जब तक अप्रासंगिक हो जाए, उसे रोकने का यह दूसरा तरीका है."
"मैं पहले दिन से अस्पताल जा रही थी मैंने बहुत भयावह दृश्य देखे मैं दो बार अस्पताल में बेहोंश हो गयी! पैलेट चोटों से घायल एक बच्चे के अभिभावक बुरी तरह रो रहे थे, यह डराने वाला और दुखी करने वाला था उस दिन मैं लिख भी नहीं पायी, कोई खबर नहीं दे पायी"
"आधिक्रारिक रूप से इनकार किया जा रहा है, पर हर कोई जानता है कि उन्होंने जम्मू कश्मीर पुलिस से बंदूकें छीन ली हैं बहुत अटकलें चल रही हैं क्या उन्हें आशंका थी कि लोग बगावत करेंगे और पुलिस से बंदूकें छीन लेंगे? या यह कि लोग बगावत करेंगे और पुलिस उनके साथ हो जायेगी?"
"स्थानीय पत्रकार थम से गए हैं उन्होंने नजरिया प्रबंधन के लिए बाहर से पत्रकार लाये हैं मैं 20-25 साल से काम कर रहा हूँ मुझे बुरा लगता है जब दिल्ली ब्यूरो से मेरे साथी यहाँ ख़बरें करने आये वैसे कोई समस्या नहीं है वह मेरे साथी हैं और मैंने उनकी मदद भी की पर मैं अपने आप से पूछता रहा, "क्यों?" मैं क्यों नहीं खबर दे सकता? मुझे लग रहा था कि मुझ पर विश्वास नहीं किया जा रहा"
"हमारे मालिकों को तो अखबार छापना ही है उन्हें खुदको बचाना है पर पृष्ठसंख्या कम हो गयी है और यदि पाबंदियां जारी रहीं तो उनके पास दो विकल्प हैं: पहले महीने वह उदार हो सकते हैं और कह सकते हैं कि आपको भी घर चलाना है वह हमें वेतन भी दे सकते हैं पर दूसरे महीने से वह इतने दरियादिल नहीं रहे तो फिर?"
"मैंने कभी ऐसा सम्पूर्ण बंद नहीं देखा मैं यहाँ सालों से संघर्ष कवर कर रहा हूँ कर्फ्यू के शुरूआती दिनों में मैंने बाहर निकलने की कोशिश की पर सुरक्षा बल मेरा पहचान पत्र देखने तक के लिए तैयार नहीं होते थे मैं एक अंतर्राष्ट्रीय मीडिया हाउस के लिए काम करता हूँ और एक ट्रेवल एजेंट के ज़रिये पेन ड्राइव में एक रिपोर्ट भेजने की कोशिश की पर जब उन्हें पता चल गया तो मुझे रोक दिया गया."
"नब्बे के दशक में उग्रवाद के चरम पर होए हुए इन्टरनेट और मोबाइल नहीं थे पर लैंडलाइन, फैक्स काम करते थे कहीं आना-जाना समस्या नहीं थी पत्रकार बेरोकटोक आ-जा सकते थे कोई प्रताड़ना नहीं थी कारगिल युद्ध के दौरान भी, हमारे पास पानी नहीं होता था पर फ़ोन काम करते थे"
"हम जो अपनी आँखों से देखते हैं, वह भी लिख नहीं सकते हमें सूचनाओं को अस्पष्ट रखना होता है"
"आगे चलकर, सरकार इससे भी बुरा कर सकती है वह इस संचारबंदी में सफल रही है अब जब वह एक जगह सफल हो चुके हैं, हर कहीं करेंगे"
"हम जानते हैं कि सरकार के मीडिया विभागों में कार्यरत कुछ लोगों को लैंडलाइन और बीएसएनएल फ़ोन कनेक्शन दिए गए हैं पर उन्हें वचन देना पड़ा है कि वह इनका किसी भी तरह से 'दुरूपयोग' नहीं करेंगे"
"मैं हवा कदल इलाके में था और पुलिस ने हमारे वीडियो डिलीट करने का आदेश दिया मैंने तुरंत  मेमोरी कार्ड बदल दिया और अपनी फाइल बचा ली"
"मीडिया ज़्यादा फ़ोन और ज्यादा कंप्यूटर मांग रहा है यह एक तरह से विशेषाधिकार की तरह है जो अन्य सभी नागरिकों को मना किया गया है"
"आज जो हम देख रहे हैं वह सबको पूरी तरह से अशक्त बना देना है मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ, कार्यकर्ता, पत्रकार"

(जिन लोगों से हमने बात की सभी लोगों की पहचान उनके कहने अनुसार और उनकी सुरक्षा के लिहाज़ से हमने जाहिर नहीं की।)

(नोट : रिपोर्ट पत्रकारों लक्ष्मी मूर्ति और गीता शेषु ने लिखी है जो नेटवर्क ऑफ वीमेन इन मीडिया, इंडिया की सदस्य हैं और फ्री स्पीच कलेक्टिव की संपादक हैं। दोनों 30 अगस्त से 3 सितंबर तक कश्मीर में थीं और चार सितंबर यह रिपोर्ट जारी की गई। दोनों संस्थाएं नॉन फंडेड और वालंटियर ड्रिवन हैं। )



Comments

Popular posts from this blog

प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा

-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं।  साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम

Premchand’s Torn Shoes

By Harishankar Parsai There is a photograph of Premchand in front of me, he has posed with his wife. Atop his head sits a cap made of some coarse cloth. He is clad in a kurta and dhoti. His temples are sunken, his cheek-bones jut out, but his lush moustache lends a full look to his face. He is wearing canvas shoes and its laces are tied haphazardly. When used carelessly, the metal lace-ends come off and it   becomes difficult to insert the laces in the lace-holes. Then, laces are tied any which way. The right shoe is okay but there is a large hole in the left shoe, out of which a toe has emerged. My sight is transfixed on this shoe. If this is his attire while posing for a photograph, how must he be dressing otherwise? I wonder. No, this is not a man who has a range of clothes, he does not possess the knack of changing clothes. The image in the photograph depicts how he really is. I look towards his face. Are you aware, my literary forbear, that your shoe is

चुनावपूर्व पुल दुर्घटनाएं कैसे कवर करें पत्रकार? डूज़ एंड डोंट्स

डिस्क्लेमर: यह लेख पाठ्यपुस्तकों में शामिल कराने के पवित्र उद्देश्य के साथ लिखा गया है। विषय चूंकि मीडिया से संबंधित है इसलिए अपेक्षा है कि इसे सरकारी, अर्ध सरकारी व निजी मीडिया संस्थानों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सकता है। कोई और समय होता तो यह लेख लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती लेकिन समय ऐसा है कि मीडिया जगत से ‘देशद्रोहियों‘ को जेलों में ठूंसकर लाइन पर लाने का काम उतनी तेजी  से नहीं हो पा रहा है, जितनी तेजी से होना चाहिए था। खासकर सोशल मीडिया में तो इनका ही बोलबाला है सो कोई भी त्रासद दुर्घटना होने पर उसका कवरेज कैसे किया जा चाहिए, कैसे नहीं किया जाना चाहिए यानी ‘डूज़‘ क्या हैं, ‘डोंट्स‘ क्या हैं, यहां  बताया जा रहा है। आशा है कि मीडिया के छात्रों के लिए यह लेख उपयोगी साबित होगा।  डूज़  -पॉजिटिव बनें। संवेदनशील बनें।  -यह जरूर बताएं कि पुल कितने सौ वर्ष पुराना था? और पुल पर क्षमता से बहुत ज्यादा लोग थे।  -लोगों की लापरवाही या चूक, जैसे उन्होंने प्रशासन के निर्देशों/चेतावनियों का पालन नहीं किया और वह खुद ही दुर्घटना के लिए जिम्मेदार थे, को हाइलाईट करें। -दुर्घटना में कितने मरे?