Skip to main content

आम चुनाव की चीरफाड़ करती है 'न्यू इंडिया में चुनाव'




अब जबकि आम चुनाव संपन्न हुए और नयी सरकार बने चार महीने से ज्यादा का समय गुज़र चुका है तो स्वाभाविक है कि 2019 के आम चुनाव का अन्त्य परीक्षण और विश्लेषण किया जाए। ऐसे में एक हिंदी पुस्तक का आना स्वागत योग्य ही माना जाना चाहिए। चन्द्र प्रकाश झा की ई-प्रकाशन संस्था नॉटनल से जारी हिंदी ई-पुस्तक 'न्यू इंडिया में चुनाव' इस अर्थ में सामयिक पुस्तक है।
पुस्तक की भूमिका 'कुछ बातें' में श्री झा स्पष्ट कर चुके हैं कि यह ई-पुस्तक उनके यूनाइटेड न्यूज़ ऑफ़ इंडिया से सेवा निवृत्ति के बाद विभिन्न अखबारों और समाचार पोर्टल पर आम चुनाव को लेकर पिछले लगभग दो सालों के दौरान लिखे लेखों का संकलन है। पुस्तक में हालांकि लेख अलग-अलग न देकर उन्हें जोड़कर और (संभवत:) उप शीर्षकों की मदद से तीन आलेखों की शक्ल दी गयी है। इनमें मुख्य आलेख 'आम चुनाव 2019 के मायने', के साथ 'चुनावी बांड का गोरखधंधा' और 'एक राष्ट्र एक चुनाव जुमला के निहितार्थ' लेख शामिल हैं।
मुख्य आलेख में चुनाव से पहले की परिस्थितियों से लेकर एग्जिट पोल और नतीजे आने तक विभिन्न पहलुओं की जांच की गयी है। इनमें चुनावी माहौल, पुलवामा हमले और बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सैन्य राष्ट्रवाद को भुनाने से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की चुनावी रणनीति, राजनीतिक दलों के प्रदर्शन, निर्वाचन आयोग की भूमिका पर उठे सवाल, अनौपचारिक रूप से सत्ता पक्ष के पाले में शामिल हो गए मीडिया की भूमिका और ईवीएम समेत कई मुद्दों पर सवाल उठाये गए हैं।
अन्य दो लेखों के शीर्षकों से ही जैसा कि स्पष्ट है यह अपने विषयों चुनावी बांड और 'एक राष्ट्र एक चुनाव' नारे का विश्लेषण करते हैं।
पुस्तक का आकार भले छोटा है (53 पृष्ठ) पर इसमें सूचनाओं और आंकड़ों का भण्डार है जो कि लेखक के पत्रकार होने के कारण स्वाभाविक है पर यह पुस्तक की एक खामी भी बन जाता है क्योंकि खासकर आंकड़ों की बमबारी विश्लेषण और पठनीयता के प्रवाह को बाधित करती है। दूसरी एक छोटी सी बात जो मुझे खटकी वह भाषा से सम्बंधित है। हालांकि बहुत कम स्थानों पर है पर पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई के स्थान पर "." (डॉट) का इस्तेमाल किया गया है। खैर, यह मामूली भूल है और ई-पुस्तक का लाभ यह है कि इसे सुधारा जा सकता है।
कुल मिलाकर यह एक ज़रूरी पुस्तक है क्योंकि अंग्रेजी में तो चुनाव के सन्दर्भ में काफी विश्लेषणात्मक सामग्री लिखी जाती है पर हिंदी में यह न के बराबर होती है।
पुस्तक का नाम: न्यू इंडिया में चुनाव
लेखक: चन्द्र प्रकाश झा
प्रकाशक: नॉटनल
मूल्य: 39 रुपये मात्र 
पुस्तक प्राप्त करने का लिंक: https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?ShortCode=xYtyDY30

(डिस्क्लेमर: 1) मैं कोई पेशेवर समीक्षक नहीं हूँ। 2) चन्द्र प्रकाश झा यूनाइटेड न्यूज़ ऑफ़ इंडिया में मेरे वरिष्ठ सहयोगी रहे हैं और हमने कुछ साल वार्ता के मुंबई ब्यूरो में साथ में काम किया है। इसके बावजूद मैंने कोशिश की है कि पुस्तक पढ़ने के बाद जो मेरे मन में आया वह स्पष्ट और ईमानदारी से लिखूं। मेरे ऊपर पुस्तक समीक्षा लिखने की कोई बाध्यता नहीं थी पर पुस्तक पढने के बाद मुझे लगा कि इसके बारे में जानकारी ब्लॉग पढने वाले मित्रों के साथ साझा करूं सो कर रहा हूँ।)
   


Comments

  1. शुक्रिया महेश जी , मुझे तब ज्यादा अच्छा लगता है जब कोई मेरे लेखन की खामियों को इंगित करे.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा

-गुलजार हुसैन प्रेमचंद का साहित्य और सिनेमा के विषय पर सोचते हुए मुझे वर्तमान फिल्म इंडस्ट्री के साहित्यिक रुझान और इससे जुड़ी उथल-पुथल को समझने की जरूरत अधिक महसूस होती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी ताकतों का बहुत प्रभाव हिंदी सहित अन्य भाषाओं की फिल्मों पर है।...और मेरा तो यह मानना है की प्रेमचंदकालीन सिनेमा के दौर की तुलना में यह दौर अधिक भयावह है , लेकिन इसके बावजूद साहित्यिक कृतियों पर आधारित अच्छी फिल्में अब भी बन रही हैं।  साहित्यिक कृतियों पर हिंदी भाषा में या फिर इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में बन रही हैं , यह एक अलग विषय है लेकिन इतना तो तय है गंभीर साहित्यिक लेखन के लिए अब भी फिल्मी राहों में उतने ही कांटे बिछे हैं , जितने प्रेमचंद युग में थे। हां , स्थितियां बदली हैं और इतनी तो बदल ही गई हैं कि नई पीढ़ी अब स्थितियों को बखूबी समझने का प्रयास कर सके। प्रेमचंद जो उन दिनों देख पा रहे थे वही ' सच ' अब नई पीढ़ी खुली आंखों से देख पा रही है। तो मेरा मानना है कि साहित्यिक कृतियों या साहित्यकारों के योगदान की उपेक्षा हिंदी सिनेम...

नरक में मोहलत (कहानी)

  -प्रणव प्रियदर्शी घर से निकलते समय ही अनिता ने कहा था, ‘बात अगर सिर्फ हम दोनों की होती तो चिंता नहीं थी। एक शाम खाकर भी काम चल जाता। लेकिन अब तो यह भी है। इसके लिए तो सोचना ही पड़ेगा।’ उसका इशारा उस बच्ची की ओर था जिसे अभी आठ महीने भी पूरे नहीं हुए हैं। वह घुटनों के बल चलते, मुस्कुराते, न समझ में आने लायक कुछ शब्द बोलते उसी की ओर बढ़ी चली आ रही थी। अनिता के स्वर में झलकती चिंता को एक तरफ करके अशोक ने बच्ची को उठा लिया और उसका मुंह चूमते हुए पत्नी अनिता से कहा, ‘बात तुम्हारी सही है। अब इसकी खुशी से ज्यादा बड़ा तो नहीं हो सकता न अपना ईगो। फिक्कर नॉट। इस्तीफा वगैरह कुछ नहीं होगा। जो भी रास्ता निकलेगा, उसे मंजूर कर लूंगा, ऐसा भी क्या है।’ बच्ची को गोद से उतार, पत्नी के गाल थपथपाता हुआ वह दरवाजे से निकल पड़ा ऑफिस के लिए। इरादा बिल्कुल वही था जैसा उसने अनिता से कहा था। लेकिन अपने मिजाज का क्या करे। एक बार जब दिमाग भन्ना जाता है तो कुछ आगा-पीछा सोचने के काबिल कहां रहने देता है उसे।  मामला दरअसल वेतन वृद्धि का था। अखबार का मुंबई संस्करण शुरू करते हुए सीएमडी साहब ने, जो इस ग्रुप के म...

चुनावपूर्व पुल दुर्घटनाएं कैसे कवर करें पत्रकार? डूज़ एंड डोंट्स

डिस्क्लेमर: यह लेख पाठ्यपुस्तकों में शामिल कराने के पवित्र उद्देश्य के साथ लिखा गया है। विषय चूंकि मीडिया से संबंधित है इसलिए अपेक्षा है कि इसे सरकारी, अर्ध सरकारी व निजी मीडिया संस्थानों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सकता है। कोई और समय होता तो यह लेख लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती लेकिन समय ऐसा है कि मीडिया जगत से ‘देशद्रोहियों‘ को जेलों में ठूंसकर लाइन पर लाने का काम उतनी तेजी  से नहीं हो पा रहा है, जितनी तेजी से होना चाहिए था। खासकर सोशल मीडिया में तो इनका ही बोलबाला है सो कोई भी त्रासद दुर्घटना होने पर उसका कवरेज कैसे किया जा चाहिए, कैसे नहीं किया जाना चाहिए यानी ‘डूज़‘ क्या हैं, ‘डोंट्स‘ क्या हैं, यहां  बताया जा रहा है। आशा है कि मीडिया के छात्रों के लिए यह लेख उपयोगी साबित होगा।  डूज़  -पॉजिटिव बनें। संवेदनशील बनें।  -यह जरूर बताएं कि पुल कितने सौ वर्ष पुराना था? और पुल पर क्षमता से बहुत ज्यादा लोग थे।  -लोगों की लापरवाही या चूक, जैसे उन्होंने प्रशासन के निर्देशों/चेतावनियों का पालन नहीं किया और वह खुद ही दुर्घटना के लिए जिम्मेदार थे, को हाइलाईट कर...